वास्तव में शाकाहार हर प्राणी से प्रेम करना सिखाता है क्योंकि शाकाहारी व्यक्ति हिंसा नहीं करता और जो हिंसा नहीं करता उससे अन्य जीव जंतु भी प्रेम करते हैं।
इंसान जबसे इस दुनिया में आया है तब से उसके साथ एक चीज और आई है और वह है भूख। भूख ऐसी चीज है जो इंसान को कुछ भी करने के लिए मजबूर कर देती है। कई बार तो भूख का नाम लेकर इंसान वह सब कर जाता है जो उसे किसी भी हाल में नहीं करना चाहिए। उन्हीं न करने योग्य कामों से एक है- मांसभक्षण। मांसाहारी किसी भी मासूम और बेजुबान जानवर को मारकर खा जाते हैं, लेकिन यह नैतिकता की दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से और विज्ञान की दृष्टि से बिल्कुल भी ठीक नहीं है। चलिए आइये देखते हैं, कैसे-
अगर संसार के सभी जीवों को देखा जाए तो उनमें मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ और क्रियाशील है। ईश्वर ने जो नेमतें और ताकतें इंसानों को दी हैं वे और किसी जीव- और किसी प्राणी को नहीं दी हैं। इसलिए हम इंसानों की जिम्मेदारी भी सबसे अधिक है। इंसान अपने हुनर और दिमाग का इस्तेमाल करके भी अन्य जीवों से अपनी आजीविका प्राप्त कर सकता है। जैसे गाय, भैंस का दूद्द बेचकर, भेड़ से ऊन बेचकर, हाथी से महावत बनकर, घोड़े से तांगा आदि चलाकर। इस तरह से वन्य जीवों को मारे बिना भी इनके जरिए भूख का इलाज हो सकता है तो फिर क्यों बेवजह इनकी हत्या का पाप अपने सर लें।
हालांकि इस पर यह सवाल उठाया जाता है कि जो पेड़ पौधे खाए जाते हैं, उनमें भी तो जीवन होता है। अगर उनको खाना पाप नहीं है तो मांस खाना कैसे पाप हुआ? तो इस सवाल का जवाब यह है कि पेड़ पौधे आदि वनस्पति सुषुप्ति अवस्था में यानि एक तरह की गहरी नींद में होते हैं। उन्हें काटने या तोड़ने पर हमारी तरह किसी तरह की पीड़ा नहीं होती। वानस्पतिक खाद्य पदार्थ जाग्रत प्राणियों द्वारा स्वेच्छा से दिये गए दूध आदि की तरह होते हैं। इस तरह वनस्पतियों से प्राप्त भोजन खाना गलत नहीं है। वह मांस नहीं होता। वह उनका स्वाभाविक फल है। वे इससे आगे बढ़ने में सक्षम नहीं है। अगर यदि हम आम-अमरूद जैसे फल हिंसा समझ कर न खावें तो वे सड़ जाएँगे और फिर उनका कोई फायदा भी नहीं रहेगा। इसी तरह अगर हरी-भरी सब्जियों को भी यूं ही छोड़ दिया जाए तो वे भी सूखकर बेकार हो जाएंगी और किसी काम की नहीं रहेंगी। आप सब अक्सर खबरों में सुनते होंगे कि आज इतना टन गेंहू गोदाम में पड़े-पड़े खराब हो गया। लेकिन अन्य मांसवाले जीवों के साथ ऐसा नहीं होता।
पशुओं में प्रजनन क्षमता भी होती है, जिससे वे अपना वंश बढाते हैं। उन्हें काटने, मारने पर रक्त की धार सीधी दिखाई देती है। अपने परिजन की मृत्यु पर पशु भी आंसू बहाते हैं तो फिर उन पर इस तरह का अत्याचार क्यों? दूसरी बात- यदि आप प्रोटीन, विटामिन्स आदि के लिए मांस को सही मानते हो तो यह तर्क भी पूरी तरह से ठीक नहीं, क्योंकि जो प्रोटीन, मिनिरल्स पशुओं में होते हैं वे उनमें प्राकृतिक रूप से नहीं होते। वे सभी तत्त्व पेड़ पौधों से ही प्राप्त करते हैं। अंग्रेजी भाषा में इसे फूड चेन कहा जाता है। इस तरह जब पशु पक्षी भी शाकाहार से जरूरी तत्त्व पा सकते हैं तो हम क्यों नहीं? हम तो उनसे बहुत अधिक श्रेष्ठ हैं तो फिर हम क्यों मांस का ही रास्ता चुनें?
इस पर तर्क करने वाले यह तर्क देते हैं कि शेर आदि हिंसक जीव भी तो मांस खाते हैं तो हम क्यों न खाएँ? तो इस पर मैं यही कहूंगा कि प्रथम तो मांसाहार उनका प्राकृतिक भोजन है, उनके पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं है; और न ही उनका बौद्धिक स्तर इतना ऊँचा है कि वे इंसानों की तरह वृक्ष आदि उगा सकें। दूसरा ये कि वे मांस खाने के लिए मेहनत करते हैं। अपने शिकार से लड़कर उसे प्राप्त करते हैं और वे उसे उसी हालत में खाते हैं जिस हालत में वे उसे प्राप्त करते हैं। वे मांस के साथ साथ हड्डी भी पचा लेने में सक्षम हैं। लेकिन इंसानों के साथ यहां भी उल्टा है।
पहले क्रूरता से उसे मारते हैं और फिर उसे पकाकर भिन्न-भिन्न मसालों का प्रयोग कर उसे तैयार करते हैं जिससे मांस का भयानक रूप ढक जाता है और उसे वे खाने के लायक समझते हैं। वे उसे जैसे का तैसा ग्रहण नहीं कर सकते। वहीं अगर पेड़ पौधों की बात की जाए तो पेड़-पौधे से मिलने वाले खाद्य पदार्थ हमें जिस अवस्था में मिलते हैं, हम उसी अवस्था में उनका सेवन कर सकते हैं। उन्हें भोजन की तरह पकाकर खाने की भी जरूरत नहीं और वे मांस की अपेक्षा सुपाच्य भी होते हैं।
कुछ लोग यह कहकर मांस भक्षण करते हैं कि यदि हम इन्हें नहीं खाएंगे तो इनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी! इस मामले में मैं पूछना चाहूंगा कि हजारों प्रजातियां ऐसी हैं जो विलुप्ति की कगार पर हैं। वह भी तब- जब उन्हें खाया नहीं जाता! बाघ कोई नहीं खाता। फिर भी वे मिट रहे हैं। नीलगाय भी कभी कभार ही दिखाई देती है। धीरे धीरे हाथी भी कम हो रहे हैं। बिना खाये इनकी जनसंख्या नही बढ़ी तो अन्यों की कैसे बढ़ेगी। अगर इनकी जनसंख्या बढ़ भी गयी तो कुदरत उसका रास्ता खुद ब खुद ढूंढ लेगी। मनुष्य को तो लगभग कोई नहीं खाता, फिर भी प्रकृति मनुष्य की जनसंख्या को काबू में रखने का उपाय खोज ही लेती है और जो प्रकृति मनुष्य की संख्या वश में कर सकती है वह पशुओं की संख्या वश में क्यों नहीं कर सकती?मांस मनुष्य का भोजन नहीं है। इसका एक कारण और है और वह यह है कि मांसाहार हर काल में एवं परिस्थिति में नहीं किया जा सकता। लेकिन शाकाहार जब चाहे तब किया जा सकता है। जब एक शिशु जन्म लेता है तब वह दूध ही पीता है, बहुत से त्योहारों में मांसाहार छोड़ना ही पड़ता है और मांसाहार हमारे लिए हर जगह उपलब्ध हो जाए ऐसा भी नहीं है। किंतु शाकाहार व्यंजन हर जगह मिल ही जाता है। इतिहास इस विषय में प्रमाण है। भगवान राम को जंगलों में भी कंद-मूल-फल मिल जाते हैं। मांसाहार का विकल्प होने पर भी वे शबरी के बेर ही खाते हैं।
पांडव बारह वर्ष जंगलों में बिताते हैं लेकिन एक भी जीव हत्या नहीं करते। महाराणा प्रताप जंगलों में भटकते-भटकते घास की रोटी खाते हैं, लेकिन पेट के लिए किसी की जान नहीं लेते। इस आधुनिक युग में भी ऐसी ऐसी महान विभूतियां हुईं हैं जिन्होंने शाकाहारी रहते हुए भी मांसाहारियों को बदल दिया। उन्हें में से एक थे महर्षि रमण। उन्होंने एक बार किसी सिंह के पंजे से कांटे को निकालकर साफ किया, जिससे वह शेर भी उनका भक्त हो गया। इसके बाद वह हर रोज उनके आश्रम आता और उनके पैर चाटकर चला जाता और इस दौरान वह किसी को हानि नहीं पहुंचाता था।
इसी तरह सन् 1937 की घटना है- किसी साधु ने एक शेर के बच्चे को पकड़कर केवल दूध, साग आदि से उसका लालन पालन किया। जिससे वह शेर पूरी तरह अहिंसक हो गया। जहाँ जहाँ वह साधु जाता वहां वहां वह भी जाता पर इस दौरान उस शेर ने किसी को भी हानि नहीं पहुंचाई। इसी तरह का एक वाकया अमेरिका में भी हुआ। सन् 1946 से 1955 की घटना है। अमेरिका के एक चिड़ियाघर में एक शेरनी ने एक मादा शेर को जन्म दिया जिसकी एक टांग खराब थी। उस शावक को जॉर्ज नाम के व्यक्ति को सौंप दिया, जो कि स्वभाव से ही जानवरों का प्रेमी था। उसने उस शेरनी के बच्चे को ठीक करने के लिए नौ साल तक गाय का दूध पिलाया जिससे उसकी टांग अच्छी हो गई। तब जॉर्ज ने सोचा इसे मांस वगैरह भी देना चाहिए, लेकिन उसने मांस की तरफ मुंह उठाकर देखा भी नहीं। मांस देखते ही वह बेचैन हो जाती थी और बड़े होने पर भी उसका यह स्वभाव नहीं बदला। वह हिंसक प्राणी होकर भी सबसे प्यार करती थी। यहां तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी उसकी पीठ पर बिना डर के घूमते थे। अपने इस स्वभाव से वह इतनी प्रसिद्ध हो गई थी कि उसकी खबरें अमेरिका के अखबारों में पहले ही पेज पर छपने लगी। चिड़ियाघर में भी वह हमेशा खुली ही रहती थी। यह उसके सात्विक आहार का प्रभाव था जिसने उसे भी सात्विक बना दिया था। कहावत भी है कि जैसा खाय अन्न वैसा होए मन।
इन हिंसक पशुओं के बारे में जानकर मांसाहार को सही ठहराने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि अगर शाकाहार अथवा शाकाहारी लोग इनके जीवन में इतना बदलाव ला सकते हैं तो आपका जीवन शाकाहार से कितना बदल जायेगा और जब शेर जैसे खूंखार जानवर बिना मांस के रह सकते हैं जो कि उनका प्राकृतिक भोजन है तो मनुष्य क्यों नहीं रह सकता?
वास्तव में शाकाहार हर प्राणी से प्रेम करना सिखाता है क्योंकि शाकाहारी व्यक्ति हिंसा नहीं करता और जो हिंसा नहीं करता उससे अन्य जीव जंतु भी प्रेम करते हैं। महर्षि पतंजलि योगदर्शन में लिखते हैं-
अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।।
अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके समीप रहने वाले अन्य प्राणी भी वैर त्याग देते हैं। यही कारण है कि हमारे पूर्वज ऋषि मुनि जंगलों में आवास बनाकर शांति से रहते थे। इसलिए मांसाहार छोड़िए, पशु-पक्षियों से प्रेम कीजिये। बदले में आपको उनसे प्रेम ही मिलेगा। अगर मेरे इस लेख को पढ़ कर किसी एक व्यक्ति ने भी मांसाहार त्याग दिया तो मैं समझूंगा कि मेरी मेहनत सफल हुई।
विष्णु शर्मा
(Courstesy : Shanti Dharmi)
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