सहज सुलभ तुलसी के निरंतर प्रयोग से हमारे ऋषि-मुनियों ने यथार्थ ज्ञान के आधार पर यह अनुभव किया कि यह ‘वनस्पति’ एक नहीं अनेक छोटे बड़े रोगों में लाभ पहुंचाती है और इसके द्वारा आस-पास का वातावरण भी शुद्ध और स्वास्थ्यप्रद रहता है। भारतीय चिकित्सा विज्ञान में सब से प्राचीन और मान्य ग्रंथ ‘चरक संहिता’ मंे तुलसी के गुणांे का वर्णन करते हुए कहा गया है-सुरसा (तुलसी) हिचकी, खांसी, विषविकार, पसली के दर्द को मिटाने वाली है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित कफ तथा वायु का शमन होता है। यह दुर्गंध को भी दूर करती है।
‘धनवन्तरि निघन्टु’ में कहा गया है- तुलसी हलकी, उष्ण, रुक्ष, कफदोषों और कृमिदोषों को मिटाने वाली और अग्निदीपक होती है। दूसरे ‘राज वल्लभ निघन्टु’ में कहा है कि तुलसी पित्तकारक तथा वात, कृमि और दुर्गन्ध को मिटाने वाली है, पसली के दर्द, खांसी, श्वास, हिचकी में लाभ करती है। ‘कैयदेव निघन्टु’ में तुलसी के गुणों का इस प्रकार वर्णन किया गया है- तुलसी तीक्ष्ण, कटु, कफ, खांसी, हिचकी, उल्टी, कृमि, दुर्गन्ध, कोढ़, आंखों की बीमारी आदि में लाभकारी है। प्रसिद्ध गं्रथ ‘भावप्रकाश’ में कहा गया है- तुलसी कटु, तिक्त, हृदय के लिए हितकर, त्वचा के रोगांेे मंे लाभदायक, पाचन शक्ति को बढ़ाने वाली, मूत्र कृच्छ के कष्ट को मिटाने वाली तथा कफ, वात संबंधी विकारों को निश्चित रूप से ठीक करती है।
तुलसी मुख्यतः दो प्रकार की होती है- रामा (श्वेत) और श्यामा। (काली) आयुर्वेद की दृष्टि से श्वेत तुलसी की अपेक्षा श्यामा तुलसी में अधिक गुण पाये जाते हैं। यह गर्म, त्रिदोषनाशक, खांसी, शूल, कृमि, वमन तथा वात नाशक और आरोग्यवर्धक होती है। तुलसी की दूसरी जाति ‘वनतुलसी’ है जिसे कठेरक भी कहा जाता है। इसकी गंध घरेलू तुलसी की अपेक्षा बहुत तेज होती है और इसमें विष का प्रभाव नष्ट करने की क्षमता विशेष होती है। रक्तदोष, कोढ़, चक्षुरोग और प्रसव की चिकित्सा में यह विशेष उपयोगी होती है। तीसरी जाति को ‘मरुवक’ कहते हैं। कहीं कहीं इसे ‘मरवा’ कहते है। ‘राजमार्तण्ड’ ग्रंथ के मतानुसार हथियार से कट जाने या रगड़ लगकर घाव हो जाने पर इसका रस लाभकारी होता है। किसी विषैले जीव के डंक मार देने पर भी इसको लगाने से आराम होता है। चौथी जाति ‘बर्बरी’ या बुबई तुलसी होती है, जिसकी मंजरी की गंध अधिक तेज होती है।
तुलसी बीज, जिनको यूनानी तिब (हकीमी) चिकित्सा पद्धति में-‘तुख्म रेहाँ’ कहते हैं, बहुत अधिक बाजीकरण गुण युक्त माने गये है। वीर्य को गाढ़ा बनाने के लिए बीजों का प्रयोग किया जाता है।
तुलसी प्रकृति के अनुकूल औषधि है- यद्यपि इन ग्रंथो में तुलसी को तीक्ष्ण भी लिखा है पर उसकी तीक्ष्णता केवल विशेष प्रकार की और छोटे कृमियों को दूर करने तक ही सीमित है। जिस प्रकार वर्तमान समय की कीटाणुनाशक और दुर्गंध मिटाने वाली औषधियाँ कुछ भी अधिक हो जाने से हानिप्रद भी हो सकती हैं, वैसी बात तुलसी में नही है। यह घरेलू वनस्पति है जिसके प्रयोग से किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता, इस दृष्टि से डॉक्टरी और वैद्यक औषधियों से भी श्रेष्ठ सिद्ध होती है।
सब प्रकार के ज्वर, खांसी और जुकाम, आंख, नाक और कानों के रोग, पुरुषों के वीर्य और मूत्र संबंधी रोग, स्त्रियों के विशेष रोग, बच्चों के रोग, उदर रोग, फोड़ा, घाव और चर्म रोग, मस्तिष्क और स्नायु संबंधी रोग, दांतांे की पीड़ा, सिरदर्द, गठिया और जोड़ों का दर्द, सर्पदंश, एसीडिटी तथा कोलेस्ट्रोल को नियमित करने में चमत्कारिक लाभ पाया जाता है। किडनी विकृति और मूर्छा में भी तुलसी का उपचार बड़ा ही महत्वपूर्ण है। तुलसी की बगीची में बैठकर पढ़िये, लेटिये, खेलिये और व्यायाम काजिये, आपको दीर्घायु मिलेगी, सुख वैभव के लिए उत्साह मिलेगा, प्रदूषण से बचे रहेंगे। तुलसी कवच की तरह रक्षा करेगी। कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं।
(1) अजीर्ण- उचित यही है कि अजीर्ण होने पर एक दिन का उपवास ही करें और पानी पीते रहें ताकि अन्दर की पूरी तरह सफाई हो जाये। अजीर्ण होने पर आप तुलसी का प्रयोग किसी भी प्रकार कर सकते हैं। ताजा पत्ते तोड़िये और दस ग्राम रस निकाल कर पी जाईये। अजीर्ण के साथ पेट दर्द भी उठे तो तुलसी व अदरक का रस मिलाकर एक-एक चम्मच दो-दो घण्टे बाद तीन बार लें। यह रस हल्का तपाकर लेने से शीघ्र लाभ होता है।
(2) अफारा - सफेद तुलसी का रस थोड़ा गर्म करके पिलादें- तुरन्त आराम होगा।
(3) पित्त प्रकोप- अगर शरीर में पित्त प्रकोप हो और पाचन भी बिगड़ चुका हो तो 5 बादाम की गिरी, 5 तुलसीदल, 2 छोटी इलायची और 4 काली मिर्च इन्हें धो-पीसकर दूद्द में मिलाएँ और मिश्री या चीनी घोलकर पिलाएं, दो दिन में शांति अनुभव होने लगेगी।
(4) हैजा- तुलसीदल (पत्ते) और काली मिर्च पीसकर छोटी गोलियां बनालें। 3-3 घण्टे बाद 2-2 गोली पानी के घूंट के साथ निगल जाएँ। हैजे के प्रकोप से आप बचे रहेंगे। अकेला तुलसी का रस ही हैजे को शांत करने में पूरी तरह समर्थ है। आजमाकर देख लें। यह हैजे की प्यास और दिल की घबराहट दूर करने में 100 प्रतिशत खरा पाया गया है।
(5) हिचकी- तुलसी का रस 10 ग्राम, शहद 5 ग्राम मिलकार चाट लें।
(6) सूजन - तुलसी दल का लेप सूजन को शांत कर देता है। दांत, डाढ़ के दर्द से गालों तक सूचन आ गई हो तो भी यही लेप करें।
(7) सूखी खांसी - तुलसी की मंजरी, सोंठ और प्याज समान मात्रा में पीसकर शहद में चांटे, इससे दमा तक ठीक हो जाता है। सूखी खांसी इस उपचार से खुद ही सूख जायेगी। खांसी सूखी भी हो और छाती भी घरघराने लगे तो तुलसी के बीज और मिश्री बराबर मात्रा में पीसकर 3-3 ग्राम फांक लें और पानी पीलें। चौबीस घण्टों में न खांसी रहेगी न खुश्की और न छाती घरघराएगी, न सीटियों जैसी आवाजें निकलेंगी।
(8) कम सुनाई देना- श्याम (काली) तुलसी का रस गुन-गुना करके तेल की तरह कानों में सुबह- शाम डालें। 8-10 दिन में कानों में साफ सुनाई देने लगेगा।
(9) सिर चकराना - वायु अथवा गर्मी के प्रकोप से खून जब पूरीे वेग से सिर को दौड़ता है तो चक्कर से आते अनुभव होते हैं। ऐसे में तुलसी के रस में थोड़ी (चीनी) घोलकर पिलादें। तुरन्त आराम आ जायेगा।
(10) सर्दी जुकाम- छोटी इलायची के कुल 2 या 3 दाने और 2 ग्राम तुलसी मंजरी (बौर) डालकर कर काढ़ा बनाएं और चाय की तरह दूध चीनी डालकर पिलादें। दिन में 4-5 बार भी पिला देंगे तो चाय की तरह खुश्की तो नहीं करेगी मगर सर्दी जुकाम को जड़ से ही खुश्क कर देगी।
(11) पेट दर्द- तुलसी पत्तों का रस व अदरक का रस 2-2 चम्मच मिलाकर दिन में 3-4 बार पीने से पेट दर्द में लाभ होता है।
(12) पेट के कीड़े- तुलसी के 11 पत्ते 1 ग्राम बायबिडंग के साथ पीस कर सुबह शाम ताजा पानी के साथ लेने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।
13-दाद पर- तुलसी के पत्ते नींबू के रस में पीसकर दादपर लगाते रहें, दाद कुछ दिन में समाप्त हो जाता है।
14-मस्तिष्क रोग- तुलसी के पत्ते और ब्राह्मी 5-5 ग्राम पीसकर पानी में छानकर एक गिलास प्रातः काल नित्य सेवन करने से मस्तिष्क की दुर्बलता से उत्पन्न उन्माद (पागलपन) ठीक होता है।
15-स्मरण शक्ति के लिए - प्रातः काल स्नान करने के पश्चात् तुलसी के 5 पत्ते जल के साथ निगल लेने से मस्तिष्क की दुर्बलता दूर होकर स्मरण शक्ति तथा मेधा की वृद्धि होती है।
16-सिरदर्द- वन तुलसी का फूल (मंजरी) और काली मिर्चों को जलते कोयले पर डालकर उसका धुआं सूंघने से सिर का दर्द ठीक हो जाता है।
17-विष खा लेने पर- किसी प्रकार के विष (जहर) जैसे अफीम, धतूरा, कुचला आदि खा जाने पर तुलसी के पत्तांे को पीसकर गाय के घी में मिलाकर पिलाने से विष उतरता है। घी की मात्रा अवस्था के अनुसार ढाई सोै ग्राम से पांच सौ ग्राम तक हो सकती है। एक बार में आराम न मिलने पर बार-बार तुलसी घृत पिलाना चाहिए।
18-संखिया (ARSENIC) जहर खा लेने पर पचास ग्राम शुद्ध गाय या भैंस के घी में पच्चीस तुलसी के पत्ते और देशी कपूर दो ग्राम पीसकर मिलादें और खा लेने वाले को पिलादें। अगर संखिया खाये देर नहीं हुई हो तो इस प्रयोग से प्राण बच जाते है। 15-15 मिनट बाद यह क्रिया दोहराते रहें ताकि विष पूरी तरह मल मूत्र या वमन (उल्टी) के रास्ते निकल जाये।
19-विषमज्वर और पुराने ज्वर मेेें- तुलसी के पत्तों का रस दस ग्राम प्रातः पीते रहने से ज्वर समाप्त हो जाता है।
20-मलेरिया ज्वर में- तुलसी के पत्ते और सूरजमुखी के पत्ते पीस छान कर पिलाने से लाभ होता है। सुबह शाम तुलसी पत्तों का काढ़ा- 15 पत्ते तुलसी के, 5 ग्राम अदरक, 10 नग काली मिर्च; कूटकर 200 ग्राम पानी में उबालें। 50 ग्राम के लगभग पानी रहने पर थोड़ी शक्कर डालकर उतार लें। छान कर रोगी को पिलाएं। ज्वर समाप्त हो जायेगा। रोगी का पेट साफ रहना जरूरी है।
21-घर की सफाई में- चारपाई (खाट) में खटमल हो जाने पर वन तुलसी की डाली रख देने से खटमल भाग जाते हैं। इस डाली को घर में रखने से मच्छर, छंछुदर तथा सांप नहीं आते ये सब जीव वन तुलसी की गन्ध को सहन नहीं कर सकते।
आयुर्वेद शिरोमणि डॉ0 मनोहरलाल अग्रावत
Courtesy : Shanti Dharmi
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