ऐतिहास का बडा चौंकाने वाला प्रसंग है
कांग्रेस के 1923 के राष्ट्रीय अधिवेशन के मंच पर गांधीजी, नेहरू जी तथा अन्य कई राष्ट्रीय नेता विराजमान थे। मौलाना मुहम्मद अली अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे थे।
महान संगीतज्ञ पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कंरजी को राष्ट्रगीत गाने के लिए आमंत्रित किया गया।
जैसे ही वाद्ययंत्रो को स्वरबद्ध करके पंडित जी ने वंदेमातरम् गाना प्रांरभ किया, तो अध्यक्ष अली खडे हो गये और सेकुलरिज्म की दुहाई देकर बोले-
इस गाने को बंद करो। यह इस्लाम विरोधी है- कोई भी मुसलमान इसे नहीं गायेगा।
पंडित जी गरज उठे- मौलाना, यह ध्यान रखो कि मैं राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में वंदेमातरम् गा रहा हूँ, किसी अन्य से नहीं। यह किसी मजहब या समुदाय का दल नहीं है। इसलिए मुझे यह राष्ट्रगीत गाने से रोकने का अधिकार आपको किसने दिया?
हजारो श्रोताओं ने तालियाँ बजाकर पंडित जी की निर्भीकता व तेजस्विता का स्वागत किया।
मौलाना खासकर जाकर दूर खडे हो गये और पंडित जी ने भाव विभोर होकर वह गीत गाया। यहां सबसे महत्वपूर्ण व गंभीर बात यह है कि गांधी जी नेहरू जी ने इस प्रसंग को यो ही कैसे टाल दिया?
यदि इस विषाणु का उसी समय सही इलाज सोचा या किया जाता जो यह आगे नहीं फैल पाता।
इन नेताओं की इस अदूरदर्शिता व घुटने टेक नीति का ही दुष्परिणाम है कि 100 वर्षों तक जिस वंदेमातरम् का नारा लगाते हुए लाखों हिन्दू, मुसलमान, सिख व ईसाई शहीद हो गए, उसी गीत को आज कांग्रेस के मंच पर गाने में संकोच व भय अनुभव होने लगा है।
स्वतंत्रता के सातवें दशक में हम स्वाभिमान शून्य होकर किस पतन की पराकाष्ठा की बाट जोह रहे हैं?
वंदेमातरम् को लेकर कुछ कठमुल्लाओं ने भ्रम के ये विषाणु फैलाये हुए हैं, अन्यथा मादरे-वतन के प्यार व सम्मान से कौन इन्कार कर सकता है?
हमारे देश की अमर विभूति अमीर खुसरो ने एक जगह कहाँ है-हिन्दोस्तां मेरा मादरे वतन है। क्या हजरत पैगम्बर ने यह नहीं कहा कि हुब्बेवतन ईमानदारी की निशानी है।
इसी सिलसिले में उनका एक और भावपूर्ण कथन है….मैं हिन्दू हूँ।…..गंगा-तट के इस गाँव में बड़ा हुआ हूँ। गंगा-मैया की रेन में मैं खेला हूँ। जो पिया वह गंगा जल। मेरी आत्मा हिन्दू संस्कारों से पुनीत है। …सबसे बड़ी बात यह है कि यह मातृभूमि मुझे स्वर्ग से भी ज्यादा प्यारी लगती है।
इस उद्धरण के बाद वंदेमातरम् के विरोध का कोई औचित्य नहीं रह जाता और फिर मुसलमान भाइयों को इस ऐतिहासिक तथ्य को भी समझना चाहिए कि दो-तीन सौ वर्ष पहले तक वे सब हिन्दू ही थे।
डर या किसी मजबूरी से मजहब बदल जाने से हमारी पूजा-पद्धति बदल सकती है-हमारे पुरखे, इतिहास, भूगोल, संस्कृति, सभ्यता, संस्कार, भाषा-साहित्य व पहनावा तो वही रहेंगे।
कांग्रेस के 1923 के राष्ट्रीय अधिवेशन के मंच पर गांधीजी, नेहरू जी तथा अन्य कई राष्ट्रीय नेता विराजमान थे। मौलाना मुहम्मद अली अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे थे।
महान संगीतज्ञ पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कंरजी को राष्ट्रगीत गाने के लिए आमंत्रित किया गया।
जैसे ही वाद्ययंत्रो को स्वरबद्ध करके पंडित जी ने वंदेमातरम् गाना प्रांरभ किया, तो अध्यक्ष अली खडे हो गये और सेकुलरिज्म की दुहाई देकर बोले-
इस गाने को बंद करो। यह इस्लाम विरोधी है- कोई भी मुसलमान इसे नहीं गायेगा।
पंडित जी गरज उठे- मौलाना, यह ध्यान रखो कि मैं राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में वंदेमातरम् गा रहा हूँ, किसी अन्य से नहीं। यह किसी मजहब या समुदाय का दल नहीं है। इसलिए मुझे यह राष्ट्रगीत गाने से रोकने का अधिकार आपको किसने दिया?
हजारो श्रोताओं ने तालियाँ बजाकर पंडित जी की निर्भीकता व तेजस्विता का स्वागत किया।
मौलाना खासकर जाकर दूर खडे हो गये और पंडित जी ने भाव विभोर होकर वह गीत गाया। यहां सबसे महत्वपूर्ण व गंभीर बात यह है कि गांधी जी नेहरू जी ने इस प्रसंग को यो ही कैसे टाल दिया?
यदि इस विषाणु का उसी समय सही इलाज सोचा या किया जाता जो यह आगे नहीं फैल पाता।
इन नेताओं की इस अदूरदर्शिता व घुटने टेक नीति का ही दुष्परिणाम है कि 100 वर्षों तक जिस वंदेमातरम् का नारा लगाते हुए लाखों हिन्दू, मुसलमान, सिख व ईसाई शहीद हो गए, उसी गीत को आज कांग्रेस के मंच पर गाने में संकोच व भय अनुभव होने लगा है।
स्वतंत्रता के सातवें दशक में हम स्वाभिमान शून्य होकर किस पतन की पराकाष्ठा की बाट जोह रहे हैं?
वंदेमातरम् को लेकर कुछ कठमुल्लाओं ने भ्रम के ये विषाणु फैलाये हुए हैं, अन्यथा मादरे-वतन के प्यार व सम्मान से कौन इन्कार कर सकता है?
हमारे देश की अमर विभूति अमीर खुसरो ने एक जगह कहाँ है-हिन्दोस्तां मेरा मादरे वतन है। क्या हजरत पैगम्बर ने यह नहीं कहा कि हुब्बेवतन ईमानदारी की निशानी है।
इसी सिलसिले में उनका एक और भावपूर्ण कथन है….मैं हिन्दू हूँ।…..गंगा-तट के इस गाँव में बड़ा हुआ हूँ। गंगा-मैया की रेन में मैं खेला हूँ। जो पिया वह गंगा जल। मेरी आत्मा हिन्दू संस्कारों से पुनीत है। …सबसे बड़ी बात यह है कि यह मातृभूमि मुझे स्वर्ग से भी ज्यादा प्यारी लगती है।
इस उद्धरण के बाद वंदेमातरम् के विरोध का कोई औचित्य नहीं रह जाता और फिर मुसलमान भाइयों को इस ऐतिहासिक तथ्य को भी समझना चाहिए कि दो-तीन सौ वर्ष पहले तक वे सब हिन्दू ही थे।
डर या किसी मजबूरी से मजहब बदल जाने से हमारी पूजा-पद्धति बदल सकती है-हमारे पुरखे, इतिहास, भूगोल, संस्कृति, सभ्यता, संस्कार, भाषा-साहित्य व पहनावा तो वही रहेंगे।
सत्यनारायण मिश्र
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