महान क्रांतिकारी राष्ट्र रत्न और गुजरात के गौरव पुत्र पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा की जीवन यात्रा दिनांक 4 अक्टूबर 1857 को माण्डवी कच्छ गुजरात से आरंभ हुई।
स्वामी दयानंद सरस्वती के सान्निध्य में रहकर मुखर हुए संस्कृत व वेदशास्त्रों के मूर्धन्य विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्मा जी 1885 में तत्कालीन रतलाम राज्य के 1889 तक दीवान पद पर आसीन रहे। 1892 में उदयपुर राजस्थान व उसके बाद जूनागढ़ गुजरात के भी दीवान रहे, लेकिन राज्यों के आंतरिक मतभेद और अंग्रेजों की कुटिलताओं को समझकर उन्होंने ऐसे महत्वपूर्ण पद भी ठुकरा दिए। उनके मन में तो मां भारती की व्यथा कुछ और करने को प्रेरित कर रही थी। गुलाम भारत और अनेक बड़े-बड़े राजे-रजवाड़े प्रजा पर राज तो कर रहे थे, लेकिन उन्हें अंग्रेजों की पकड़ के चलते वायसराय के पास जाकर नतमस्तक होना पड़ता था, उस समय भारतीय स्वतंत्रता कही दिखाई नहीं दे रही थी। अतः 1905 में पं. श्री वर्मा ने 20 भारतीयों को साथ लेकर 3 मंजिला भवन इंग्लैंड के स्टेशन पर खरीदकर भारत भवन की स्थापना की। यह भवन भारत मुक्ति के लिए एक क्रांति मंदिर बन गया। स्वतंत्र वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा, लाला हरदयाल, सरदार केशरसिंह राणा, मादाम कामा आदि की सशक्त श्रृंखला तैयार हुई और इन्ही की प्रेरणा से पं.लोकमान्य तिलक, नेता जी सुभाषचन्द्र बोस स्वतंत्र समर में संघर्षरत रहे हैं। भारत को स्वतंत्रता चांदी की तश्तरी में भेंट स्वरूप नहीं मिल पाई।
सात समंदर पार से अंग्रेजों की धरती से ही भारत मुक्ति की बात करना सामान्य नहीं थी, उनकी देश भक्ति की तीव्रता थी ही, स्वतंत्रता के प्रति आस्था इतनी दृढ़ थी कि पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा ने अपनी मृत्यु से पहले ही यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनकी मृत्यु के बाद अस्थियां स्वतंत्र भारत की धरती पर ले जाई जाए। भारतीय स्वतंत्रता के 17 वर्ष पहले दिनांक 31 मार्च 1930 को उनकी मृत्यु जिनेवा में हुई, उनकी मृत्यु के 73 वर्ष बाद स्वतंत्र भारत के 56 वर्ष बाद 2003 में भारत माता के सपूत की अस्थियां गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर देश की धरती पर लाने की सफलता मिली। यह चिंता की बात हैं कि अभी भी हम कुछ सीमित भर स्वतंत्रता सैनानियों को ही याद भर रखकर इतिश्री कर रहे हैं, अतीत को भूल रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों को भूलना अपने पितृ पुरुषों को भुलने जैसा हैं, यह अपने आप के साथ आघात करने जैसा ही हैं।
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