प्रिय पाठकवृन्द! यह सत्य है कि हमारे ही स्वार्थी लोगों क कारण भारत माता की गुलामी की बेड़ियाँ मजबूर होती रही, पर यह भी सत्य है कि अंग्रेजों कह सेना में काम करने वाले सभी भारतीय मन से अंग्रेजों के साथ नहीं थे। कुछ तो परिस्थितियों के गुलाम थे। 8 अप्रैल 1929 को भगतसिंह और बी0के0 दत्त असेम्बली हाॅल में बम फैंककर गिरफतार हो गये और इसके सत्पाह भर बाद 15 अप्रैल को लौहार की बम फैक्टरी के छापे में सुखदेव आदि गिरफतार हुए।
3 मई को सहारनपुर की बम फैक्टरी भी पकड़ी गई, जिसमे शिववर्मा, जयदेव कपूर और डाॅ0 गया प्रसाद निगत को भी गिरफतार कर लिया गया। अपनी उस गिरफतारी का वर्णन शिववर्मा ने ‘मेरी गिरफतारी में’ में किया है। वे लिखते हैं-
‘‘कुछ देर बाद जब वातावरण की गर्मी कुछ शांत हुई ता कोतवाल तथा श्री कादरी ने पूछा कि जब हम लोगों के पास इतने बम तथा रिवाल्वर थे, तो हम लोगों ने उन्हेे मारा क्यों नहीं? उत्तर में मैंने कह दिया-‘‘हम लोग अपने ही भाईयों के खून से अपने हाथ रंगना नहीं चाहते। जिनके लिए हम लोग यह सबकर रहे हैं उन्ही को मारकर हमारे हाथ में रह क्या जाएगा। हाँ, यदि कोई अंग्रेज सामने आया होता तो निश्चय ही अपने हथियारों का इस्तेमाल करने में हमें तनिक भी हिचकिचाहट न हुई होती।’’ मेरा उत्तर (बहाना) सुनते ही कोतवाल मत्थे पर हाथ रखकर जमीन पर बैठ गया-‘हम लोग रोटी के टुकड़ों पर दुम हिलाने वाले कुत्ते हैं। और दो वार कुत्तों के रहने या न रहने से कौम के लिए कोई अन्तर नहीं पड़ता। हमें बचाकर नाहक आपने अपने आपको खतरे में डाला, यह तो कुत्तों के लिए देवताओं के बलिदान की सी बात हो गई।’’
‘‘कुछ पुलिस वाले तो हमारे उत्तर पर ढाहें मारकर रो पड़े- हमसे तो कहा गया था कि कुछ कोके न बेचने वालों को घेरना है। हमें क्या पता था कि इस बहाने हमारे हाथो कुछ कौमपस्तों को फंदे फँसाया जाएगा।’’
‘‘1929 में जनसाधारण में विदेशी शासन के प्रति गहरा असंतोष था। मैं ऊँचे अधिकारियों की बात नहीं कहता लेकिन साधारण सिपाहियोें में निश्चय ही मुक्ति आंदोलन के प्रति सहानुभूति के बीच पड़ चुके थे। यह सहानुभूति पुलिस ही नहीं, सेना के अंदर भी पहुँच चुकी थी और चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व मेें गढ़वाली पलटन का विद्रोह (1930) उसी का परिणाम था। यहाँ में इस बात को भी छिपाना नहीं चाहता कि कोतवाल तथा सिपाहियों के उन शब्दों ने, भावुकता, सहानुभूतिपूर्ण उन उद्गारों ने मुझे काफी बदल दिया और स्वाधीनता संग्राम की सफलता पर मेरा विश्वास और गहरा हो गया।’’
पाठकवृन्द! इस संस्मरण में एक आरदणीय नाम आया है-चन्द्रसिंह गढ़वाली। 22 अप्रैल 1930 को दोपहर के समय परेड मैदार पेशावर में सब ओहदेदार जमा थे। अकस्मात् कम्पनी के अग्रंेज कमाण्डर ने आकर कहा- ‘‘हमारी एक कम्पनी को पेशावर शहर में ब्रिगेड ड्यूटी के लिए जाना होगा। पेशावर शहर में 98 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है और वे अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार कर रहे हैं। कल गढ़वाली सेना पेशावर शहर में जाकर अमन-चैन करेगी। यदि जरूरत पडे, तो मुसलमानों पर गोली भी चलानी होगी।’’
स्वतंत्रता आन्दोलन को खत्म करने लिए अंग्रेजों की यह नीति थी कि जिन इलाकों में हिन्दु आबादी अधिसंख्य होती, वहाँ मुसलमान सैनिको को तैनात करते और जहाँ अधिक आबादी मुसलमानों की होती, वहाँ हिन्दु पलटन भेजते। इस बात को ध्यान में रखते हुए हवलदार मेजर चन्द्रसिंह ने अपने साथियों से कहा-‘‘ब्रिटिश हुकूमत कांग्रेस आन्दोलन को कुचलना चाहती है। क्या गढवाली सैनिक गोली चलाने के लिए तैयार हैं? पास खड़े सभी सैनिको ने कहा-‘‘कदापि नहीं। हम अपने निहत्थे भाइयों पर कदापि गोलियाँ नहीं चलायेंगे।
उस दिन रात को ही बैरिक के छोटे कमरे में हवलदार चन्द्रसिंह के नेतृत्व में तय किया गया कि गढवाली पलटन उन्हेें गिरफतार कर सकती है, पर निरीह जनता पर गोलियाँ नही चलेंगी। गोली चलाने का हुक्म होने पर हवलदार मेजर चन्द्र सिंह उन्हें आदेश देंगे ‘‘सीज फायर।’’ जबकि अंग्रेजों ने फौजी बैरकों पर भारतीय सेना के अनुच्छेद सेक्शन 27, पैरा ‘ए’ से उद्धृत करके यह नोटिस चस्पा करवा दिया जिसमें दर्ज था कि जो भी फौजी सिपाही हुक्म उदूली (बगावत) करेगा या बागियों को किसी तरह मदद देगा, राशन या हथियार सप्लाह करेगा, उसे ये संज्ञाएं दी जाएगी-
1- उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा।
2- फाँसी दे दी जाएगी।
3- खत्ती में चूना भरकर उसमें बागी सिपाही को खड़ा किया जाएगा और पानी डालकर जिंदा ही जला दिया जाएगा।
4- बागी सैनिकों को कुत्तों से नुचवा दिया जाएगा।
5- उसकी सब जमीन-जायदाद जब्त करके देश-निकाला दे दिया जाएगा।
अगले दिन सुबह गढ़वाली पलटन की ‘ए ’ कम्पनी को आदेश हुआ कि पेशावर बाजार के लिए तुरन्त प्रस्थान करे। किस्साखानी बाजार के फाटक पर यह कंपनी पहुँची। सामने 20 हजार निहत्थे आंदोलनकारी विदेशी शराब और विलायती कपड़ों की दुकानों पर धरना देने आ गये। जुलूस की विशालता से रास्ता बंद हो गया था। एक गोरा सिपाही बहुत तेजी से मोटरसाइकिल चलाता हुआ कई व्यक्तियों को कुचल गया। भीड़ ने उत्तेजित होकर पैट्रोल डालकर मोटरसाइकिल में आग लगा दी। गोरा सिपाही गंभीर रूप से घायल हो गया। अंग्रेज कम्पनी कमाण्डर ने आग बबूला होकर कहा-‘‘गढवाली! थ्री राउण्ड फायर!’’
अंग्रेज कमाण्डर रीकेट के आदेश के विरूद्ध चन्द्रसिंह गढवाली की आवाज गूँजी-‘‘गढवाली! सीज फायर।’’
सभी गढवाली सैनिकों ने अपनी बन्दूकें नीचे भूमि पर टेक दीं। यह कम्पनी तुरन्त गिरफतार कर ली गई औरी बैरकोे में लाई गई। 24 अपै्रेल 1930 को इस कम्पनी के 67 सैनिकों ने अपने कमाण्डिंग अधिकारी को लिखकर दिया कि 24 घण्टे के अन्दर हमारा इस्तीफा स्वीकार करो। चन्द्रसिंह द्वारा इस्तीफा वाला दस्तावेज कर्नल बाकर को सौंप दिया गया। कारण पूछा गया, तो चन्द्रसिंह ने उत्तर दिया-‘‘हम हिन्दुस्तानी सिपाही हिन्दुस्तान की सुरक्षा के लिए भर्ती हुए हैं न कि निहत्थी जनता पर गोलियाँ चलाने के लिए।’’
13 जून 1930 को एबटाबाद मिलिट्री कोर्ट मार्शल द्वारा हवलदार मेजर चन्द्रसिंह को आजीवन कारावास, सारी जायदाद जब्त, ओहदेदार से उतारकर सिपाही दर्जे में रखना और सिपाही संे नाम काटकर खारिज कर देने की सजा सुनायी गयी। 7 सैनिक सरकारी गवाह बनकर छूट गये। बाकी 60 में से 43 सैनिकों की नौकरी और जमीन-जायदाद जब्त कर ली गई। 12 हवलदार नायकों, लांस नायकों को 3 साल से 20 साल तक की जेल दी गई।
16 लोग आधी सजा काटकर रिहा हो गए, पर चन्द्रसिंह गढवाली 26 अक्तूबर 1941 को 11 साल 8 महीने की कैद काटकर ही छूटे। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में पुनः सक्रिम हो गये और सात साल की सजा इस केस मेकं भी मिली। कुल 15 साल 2 मास जेल में रहकर 22 अक्तूबर 1946 को गढवाल वापिस लौटे। 16 साल नौकरी करने के पुरस्कार में जमीन-जायदाद व बन्दुक जब्त हुई और मिली मात्र 30 रू0 मासिक पेंशन। अपने साथियों को पेंशन और सम्मान दिलाने के लिए गढवाली जी लड़ते रहे। कांग्रेकस राज की विरोधी होने कारण ही उन्हें आजाद भारत में भी एक साल की जेल काटनी पड़ी।
इस अहिंसक सिपाही की अहिंसा के पुजारी गाँधी जी ने बागी कहकर आलोचन की थी और आजादी के बाद इन्हें स्थानीय चुनाव में इस कारण नहीं खड़ा नहीं होने दिया गया कि वे फौजी कानून में सज़ायाफता थे। 1 सितम्बर 1962 को नेहरू जी ने एक बार इनसे पूछा था- ‘‘बड़े भाई! तुम पेंशन के लिए नहीं-देश के लिए किया। आज आपके कांग्रेसियों की 70 और 100 रू0 पेंशन है, मेरी 30 रू0। नेहरू जी सिर झुकाकर चुप हो गए। फिर बोले-‘अच्छा, अभी जो मिलता है, ले लो।’
चन्द्रसिंह का जवाब था-‘यह कम्पनी रूल के अनुसार जो 30 रू0 मासिक मुझे आपकी सरकार देती है- वह न देकर मुझे एक साथ पाँच हजार रू0 दे दिए जाएं जिससे मैं सहकारी संघ और हाऊसिंग ब्रांच का कर्ज चुका सकूं।’
नेहरू जी का उत्तर था-‘बड़े भाई! आपकी पंेशन भी बढ़ा दी जाएगी। 5 हजार रू0 भी मिल जाएगें। क्या हुआ! किसी ने जागीर खड़ी कर ली। किसी ने बस-मोटर के परमिट लिए, किसी ने भारी-भारी ग्रांट (अनुदान) ले ली। किसी ने लाखों रूपये गबन लिए-मो आपको 5 हजार रू0 देने से सरकारी खजाना खाली नहीं हो जाएगा।’’
फिर चन्द्रसिंह के कागजात केन्द्र से उत्तर प्रदेश सरकार को भेजे गए। यहाँ प्रदेश में चन्द्रभान गुुप्त की सरकार थी। उनसे कहा-सुना, पर नतीजा कुछ नहीं निकला। सुचेता कृपलानी की सरकार आई- उनसे भी फरियाद की। पर पल्ले कुछ न पड़ा। ऊर से एक साल की जेल जरूर मिली।
श्री शैलेन्द्र ने पांचजन्य के स्वदेशी अंक (16 अगस्त 1992) में चन्द्रसिंह गढवाली से हुई अपनी भेंट-वार्ता का वर्णन करते हुए लिखा है- मैंने पूछा- इस आजादी का श्रेय फिर भी कांग्रेस लेती है? चन्द्रसिंह उखड़ गए। गुस्से में कहा-यह कोरा झूठ है। मैं पूछता हूँ कि गदर पार्टी, अनुशीलन समिति, एम0एन0एच0, रास बिहारी बोस, राजा महेन्द्रप्रताप, ‘कामा-गाटामारू काण्ड’, दिल्ली लाहौर के मामले, दक्शाई-कोर्ट-मार्शल के बलिदान क्या कांग्रेसियों ने दिए थे? ‘चैरा-चैरी काण्ड’ और ‘नाविक विद्रोह’ क्या कांग्रेस ने किए? दक्शाई में जिन सैनिकों को अंग्रेजो ने गोली मारी- वे क्या कांग्रेसी थे? लाहौर काण्ड, चटगांव-शस्त्रागार काण्ड, मद्रास बम केस, उटी काण्ड, काकोरी काण्ड, दिल्ली-असेम्बली बम काण्ड। ये सब क्या कांग्रेस ने किए थे? हमारे पेशावर काण्ड में क्या कहीं कांग्रेस की छाया थी? अतः कांग्रेस का यह कहना कि स्वराज्य हमने लिया, एकदम गलत और झूठ है।’’
कहते-कहते क्षोभ और आक्रोश से चन्द्रसिंह जी उत्तेजित हो उठे थे। फिर बोले-कांग्रेस के इन नेताओं ने अंग्रेजो से एक गुप्त समझौता किया, जिसके तहत भारत का ब्रिटेन की तरफ जो 18 अरब पौंड की पावती थी, उसे ब्रिटेन से वापस लेने के बजाय ब्रिटिश फौजियों और नागरिकों के पेंशन खाते में दे दिया गया। साथ ही भारत को ब्रिटिश कुनबे (कामनवेल्थ) में रखना मंजूर किया गया। और बड़े शर्म की बात यह है कि सुभाष बोस को आजाद हिन्द फौज को अगले 30 सात तक के लिए गैर-कानूनी करार दिया गया।
मैं तो हमेशा कहता हूँ- कहता रहूँगा कि अंग्रेज वायसराय की ट्रेन उड़ाने की कोशिश कभी कांग्रेस ने नही की। की तो क्रांतिकारियों ने ही। हार्डिंग पर बम भी वही डाल सकते थे न कि कांग्रेसी नेता। सहारनपुर-मेरठ-बनारस-ग्वालियर-पूना-पेशावर सब काण्ड क्रांतिकारियांे से ही संबद्ध थे, कांग्रेस से कभी नहीं।’’
पेशावर काण्ड के इस महान सेनानी का अंत समय अपने गांव (पौड़ी गढवाल जनपद की चैथान पट्टी के अन्र्तगत रौणसेना) में खेती-बाड़ी करते हुए गुजरा और 1 अक्तुबर 1979 को 88 वर्ष की आयु (जन्म 25 दिसमब्र 189 ई0) में यह अमर सेनानी महाप्रयाण कर गया।
शायद पाठक इस बात को भी नहीं भूले होंगे कि अपने राष्ट्रवादी लेखन के पुरस्कार स्वरूप महान उपन्यासकार गुरूदत्त (1894-1898 ई0) को कांग्रेसी शासन ने 4 बार कारावास में रखा। इस महान साहित्यकार ने 65 उपन्यास लिखे व वेद, दर्शन, उपनिषद्, गीता आदि पर भी स्वतंत्र लेखनी चलाकर लगभग 50 ग्रंथ लिखे हैं। पहली बार 7 मार्च 1953 को 144 भंग करने के आरोप मेकं जेल भेजा गया था; 10 मार्च 1953 को रिहा किया गया। 16 मार्च को पुनः गिरफतार कर 1 मई को रिहा कर दिया। तीसरी बार डाॅ0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ कश्मीर में प्रवेश करते हुए उन्हें कश्मीर बार्डर पर ही 12 मई को गिरफतार किया गया और 23 जून 1953 को डाॅ0 मुखर्जी की हत्या करा दिया जाने के बाद उनको मुक्त करी दिया गया। 22 नवम्बर 1976 को रात के 9 बजे गिरफतार किया गया और 3 दिसम्बर की रात के 9 बजे रिहा किया गया।
श्री वचनेश त्रिपाठी ने लिखा है कि वस्तुतः स्वतंत्र भारत में शासनगत दुर्नीतियों का विरोध करने पर एक साहित्यकार को पुनः पुनः गिरफतार होना पड़ा, जो एक स्वस्थ लोकतन्त्री व्यवस्था के लिए उपहासास्पद क्रूर मजाक ही है। कांग्रेस-शासन में ‘राष्ट्रवादी लेखन’ भी एक गुरूत्तर अपराध ही माना जाता रहा है।’’
3 मई को सहारनपुर की बम फैक्टरी भी पकड़ी गई, जिसमे शिववर्मा, जयदेव कपूर और डाॅ0 गया प्रसाद निगत को भी गिरफतार कर लिया गया। अपनी उस गिरफतारी का वर्णन शिववर्मा ने ‘मेरी गिरफतारी में’ में किया है। वे लिखते हैं-
‘‘कुछ देर बाद जब वातावरण की गर्मी कुछ शांत हुई ता कोतवाल तथा श्री कादरी ने पूछा कि जब हम लोगों के पास इतने बम तथा रिवाल्वर थे, तो हम लोगों ने उन्हेे मारा क्यों नहीं? उत्तर में मैंने कह दिया-‘‘हम लोग अपने ही भाईयों के खून से अपने हाथ रंगना नहीं चाहते। जिनके लिए हम लोग यह सबकर रहे हैं उन्ही को मारकर हमारे हाथ में रह क्या जाएगा। हाँ, यदि कोई अंग्रेज सामने आया होता तो निश्चय ही अपने हथियारों का इस्तेमाल करने में हमें तनिक भी हिचकिचाहट न हुई होती।’’ मेरा उत्तर (बहाना) सुनते ही कोतवाल मत्थे पर हाथ रखकर जमीन पर बैठ गया-‘हम लोग रोटी के टुकड़ों पर दुम हिलाने वाले कुत्ते हैं। और दो वार कुत्तों के रहने या न रहने से कौम के लिए कोई अन्तर नहीं पड़ता। हमें बचाकर नाहक आपने अपने आपको खतरे में डाला, यह तो कुत्तों के लिए देवताओं के बलिदान की सी बात हो गई।’’
‘‘कुछ पुलिस वाले तो हमारे उत्तर पर ढाहें मारकर रो पड़े- हमसे तो कहा गया था कि कुछ कोके न बेचने वालों को घेरना है। हमें क्या पता था कि इस बहाने हमारे हाथो कुछ कौमपस्तों को फंदे फँसाया जाएगा।’’
‘‘1929 में जनसाधारण में विदेशी शासन के प्रति गहरा असंतोष था। मैं ऊँचे अधिकारियों की बात नहीं कहता लेकिन साधारण सिपाहियोें में निश्चय ही मुक्ति आंदोलन के प्रति सहानुभूति के बीच पड़ चुके थे। यह सहानुभूति पुलिस ही नहीं, सेना के अंदर भी पहुँच चुकी थी और चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व मेें गढ़वाली पलटन का विद्रोह (1930) उसी का परिणाम था। यहाँ में इस बात को भी छिपाना नहीं चाहता कि कोतवाल तथा सिपाहियों के उन शब्दों ने, भावुकता, सहानुभूतिपूर्ण उन उद्गारों ने मुझे काफी बदल दिया और स्वाधीनता संग्राम की सफलता पर मेरा विश्वास और गहरा हो गया।’’
पाठकवृन्द! इस संस्मरण में एक आरदणीय नाम आया है-चन्द्रसिंह गढ़वाली। 22 अप्रैल 1930 को दोपहर के समय परेड मैदार पेशावर में सब ओहदेदार जमा थे। अकस्मात् कम्पनी के अग्रंेज कमाण्डर ने आकर कहा- ‘‘हमारी एक कम्पनी को पेशावर शहर में ब्रिगेड ड्यूटी के लिए जाना होगा। पेशावर शहर में 98 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है और वे अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार कर रहे हैं। कल गढ़वाली सेना पेशावर शहर में जाकर अमन-चैन करेगी। यदि जरूरत पडे, तो मुसलमानों पर गोली भी चलानी होगी।’’
स्वतंत्रता आन्दोलन को खत्म करने लिए अंग्रेजों की यह नीति थी कि जिन इलाकों में हिन्दु आबादी अधिसंख्य होती, वहाँ मुसलमान सैनिको को तैनात करते और जहाँ अधिक आबादी मुसलमानों की होती, वहाँ हिन्दु पलटन भेजते। इस बात को ध्यान में रखते हुए हवलदार मेजर चन्द्रसिंह ने अपने साथियों से कहा-‘‘ब्रिटिश हुकूमत कांग्रेस आन्दोलन को कुचलना चाहती है। क्या गढवाली सैनिक गोली चलाने के लिए तैयार हैं? पास खड़े सभी सैनिको ने कहा-‘‘कदापि नहीं। हम अपने निहत्थे भाइयों पर कदापि गोलियाँ नहीं चलायेंगे।
उस दिन रात को ही बैरिक के छोटे कमरे में हवलदार चन्द्रसिंह के नेतृत्व में तय किया गया कि गढवाली पलटन उन्हेें गिरफतार कर सकती है, पर निरीह जनता पर गोलियाँ नही चलेंगी। गोली चलाने का हुक्म होने पर हवलदार मेजर चन्द्र सिंह उन्हें आदेश देंगे ‘‘सीज फायर।’’ जबकि अंग्रेजों ने फौजी बैरकों पर भारतीय सेना के अनुच्छेद सेक्शन 27, पैरा ‘ए’ से उद्धृत करके यह नोटिस चस्पा करवा दिया जिसमें दर्ज था कि जो भी फौजी सिपाही हुक्म उदूली (बगावत) करेगा या बागियों को किसी तरह मदद देगा, राशन या हथियार सप्लाह करेगा, उसे ये संज्ञाएं दी जाएगी-
1- उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा।
2- फाँसी दे दी जाएगी।
3- खत्ती में चूना भरकर उसमें बागी सिपाही को खड़ा किया जाएगा और पानी डालकर जिंदा ही जला दिया जाएगा।
4- बागी सैनिकों को कुत्तों से नुचवा दिया जाएगा।
5- उसकी सब जमीन-जायदाद जब्त करके देश-निकाला दे दिया जाएगा।
अगले दिन सुबह गढ़वाली पलटन की ‘ए ’ कम्पनी को आदेश हुआ कि पेशावर बाजार के लिए तुरन्त प्रस्थान करे। किस्साखानी बाजार के फाटक पर यह कंपनी पहुँची। सामने 20 हजार निहत्थे आंदोलनकारी विदेशी शराब और विलायती कपड़ों की दुकानों पर धरना देने आ गये। जुलूस की विशालता से रास्ता बंद हो गया था। एक गोरा सिपाही बहुत तेजी से मोटरसाइकिल चलाता हुआ कई व्यक्तियों को कुचल गया। भीड़ ने उत्तेजित होकर पैट्रोल डालकर मोटरसाइकिल में आग लगा दी। गोरा सिपाही गंभीर रूप से घायल हो गया। अंग्रेज कम्पनी कमाण्डर ने आग बबूला होकर कहा-‘‘गढवाली! थ्री राउण्ड फायर!’’
अंग्रेज कमाण्डर रीकेट के आदेश के विरूद्ध चन्द्रसिंह गढवाली की आवाज गूँजी-‘‘गढवाली! सीज फायर।’’
सभी गढवाली सैनिकों ने अपनी बन्दूकें नीचे भूमि पर टेक दीं। यह कम्पनी तुरन्त गिरफतार कर ली गई औरी बैरकोे में लाई गई। 24 अपै्रेल 1930 को इस कम्पनी के 67 सैनिकों ने अपने कमाण्डिंग अधिकारी को लिखकर दिया कि 24 घण्टे के अन्दर हमारा इस्तीफा स्वीकार करो। चन्द्रसिंह द्वारा इस्तीफा वाला दस्तावेज कर्नल बाकर को सौंप दिया गया। कारण पूछा गया, तो चन्द्रसिंह ने उत्तर दिया-‘‘हम हिन्दुस्तानी सिपाही हिन्दुस्तान की सुरक्षा के लिए भर्ती हुए हैं न कि निहत्थी जनता पर गोलियाँ चलाने के लिए।’’
13 जून 1930 को एबटाबाद मिलिट्री कोर्ट मार्शल द्वारा हवलदार मेजर चन्द्रसिंह को आजीवन कारावास, सारी जायदाद जब्त, ओहदेदार से उतारकर सिपाही दर्जे में रखना और सिपाही संे नाम काटकर खारिज कर देने की सजा सुनायी गयी। 7 सैनिक सरकारी गवाह बनकर छूट गये। बाकी 60 में से 43 सैनिकों की नौकरी और जमीन-जायदाद जब्त कर ली गई। 12 हवलदार नायकों, लांस नायकों को 3 साल से 20 साल तक की जेल दी गई।
16 लोग आधी सजा काटकर रिहा हो गए, पर चन्द्रसिंह गढवाली 26 अक्तूबर 1941 को 11 साल 8 महीने की कैद काटकर ही छूटे। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में पुनः सक्रिम हो गये और सात साल की सजा इस केस मेकं भी मिली। कुल 15 साल 2 मास जेल में रहकर 22 अक्तूबर 1946 को गढवाल वापिस लौटे। 16 साल नौकरी करने के पुरस्कार में जमीन-जायदाद व बन्दुक जब्त हुई और मिली मात्र 30 रू0 मासिक पेंशन। अपने साथियों को पेंशन और सम्मान दिलाने के लिए गढवाली जी लड़ते रहे। कांग्रेकस राज की विरोधी होने कारण ही उन्हें आजाद भारत में भी एक साल की जेल काटनी पड़ी।
इस अहिंसक सिपाही की अहिंसा के पुजारी गाँधी जी ने बागी कहकर आलोचन की थी और आजादी के बाद इन्हें स्थानीय चुनाव में इस कारण नहीं खड़ा नहीं होने दिया गया कि वे फौजी कानून में सज़ायाफता थे। 1 सितम्बर 1962 को नेहरू जी ने एक बार इनसे पूछा था- ‘‘बड़े भाई! तुम पेंशन के लिए नहीं-देश के लिए किया। आज आपके कांग्रेसियों की 70 और 100 रू0 पेंशन है, मेरी 30 रू0। नेहरू जी सिर झुकाकर चुप हो गए। फिर बोले-‘अच्छा, अभी जो मिलता है, ले लो।’
चन्द्रसिंह का जवाब था-‘यह कम्पनी रूल के अनुसार जो 30 रू0 मासिक मुझे आपकी सरकार देती है- वह न देकर मुझे एक साथ पाँच हजार रू0 दे दिए जाएं जिससे मैं सहकारी संघ और हाऊसिंग ब्रांच का कर्ज चुका सकूं।’
नेहरू जी का उत्तर था-‘बड़े भाई! आपकी पंेशन भी बढ़ा दी जाएगी। 5 हजार रू0 भी मिल जाएगें। क्या हुआ! किसी ने जागीर खड़ी कर ली। किसी ने बस-मोटर के परमिट लिए, किसी ने भारी-भारी ग्रांट (अनुदान) ले ली। किसी ने लाखों रूपये गबन लिए-मो आपको 5 हजार रू0 देने से सरकारी खजाना खाली नहीं हो जाएगा।’’
फिर चन्द्रसिंह के कागजात केन्द्र से उत्तर प्रदेश सरकार को भेजे गए। यहाँ प्रदेश में चन्द्रभान गुुप्त की सरकार थी। उनसे कहा-सुना, पर नतीजा कुछ नहीं निकला। सुचेता कृपलानी की सरकार आई- उनसे भी फरियाद की। पर पल्ले कुछ न पड़ा। ऊर से एक साल की जेल जरूर मिली।
श्री शैलेन्द्र ने पांचजन्य के स्वदेशी अंक (16 अगस्त 1992) में चन्द्रसिंह गढवाली से हुई अपनी भेंट-वार्ता का वर्णन करते हुए लिखा है- मैंने पूछा- इस आजादी का श्रेय फिर भी कांग्रेस लेती है? चन्द्रसिंह उखड़ गए। गुस्से में कहा-यह कोरा झूठ है। मैं पूछता हूँ कि गदर पार्टी, अनुशीलन समिति, एम0एन0एच0, रास बिहारी बोस, राजा महेन्द्रप्रताप, ‘कामा-गाटामारू काण्ड’, दिल्ली लाहौर के मामले, दक्शाई-कोर्ट-मार्शल के बलिदान क्या कांग्रेसियों ने दिए थे? ‘चैरा-चैरी काण्ड’ और ‘नाविक विद्रोह’ क्या कांग्रेस ने किए? दक्शाई में जिन सैनिकों को अंग्रेजो ने गोली मारी- वे क्या कांग्रेसी थे? लाहौर काण्ड, चटगांव-शस्त्रागार काण्ड, मद्रास बम केस, उटी काण्ड, काकोरी काण्ड, दिल्ली-असेम्बली बम काण्ड। ये सब क्या कांग्रेस ने किए थे? हमारे पेशावर काण्ड में क्या कहीं कांग्रेस की छाया थी? अतः कांग्रेस का यह कहना कि स्वराज्य हमने लिया, एकदम गलत और झूठ है।’’
कहते-कहते क्षोभ और आक्रोश से चन्द्रसिंह जी उत्तेजित हो उठे थे। फिर बोले-कांग्रेस के इन नेताओं ने अंग्रेजो से एक गुप्त समझौता किया, जिसके तहत भारत का ब्रिटेन की तरफ जो 18 अरब पौंड की पावती थी, उसे ब्रिटेन से वापस लेने के बजाय ब्रिटिश फौजियों और नागरिकों के पेंशन खाते में दे दिया गया। साथ ही भारत को ब्रिटिश कुनबे (कामनवेल्थ) में रखना मंजूर किया गया। और बड़े शर्म की बात यह है कि सुभाष बोस को आजाद हिन्द फौज को अगले 30 सात तक के लिए गैर-कानूनी करार दिया गया।
मैं तो हमेशा कहता हूँ- कहता रहूँगा कि अंग्रेज वायसराय की ट्रेन उड़ाने की कोशिश कभी कांग्रेस ने नही की। की तो क्रांतिकारियों ने ही। हार्डिंग पर बम भी वही डाल सकते थे न कि कांग्रेसी नेता। सहारनपुर-मेरठ-बनारस-ग्वालियर-पूना-पेशावर सब काण्ड क्रांतिकारियांे से ही संबद्ध थे, कांग्रेस से कभी नहीं।’’
पेशावर काण्ड के इस महान सेनानी का अंत समय अपने गांव (पौड़ी गढवाल जनपद की चैथान पट्टी के अन्र्तगत रौणसेना) में खेती-बाड़ी करते हुए गुजरा और 1 अक्तुबर 1979 को 88 वर्ष की आयु (जन्म 25 दिसमब्र 189 ई0) में यह अमर सेनानी महाप्रयाण कर गया।
शायद पाठक इस बात को भी नहीं भूले होंगे कि अपने राष्ट्रवादी लेखन के पुरस्कार स्वरूप महान उपन्यासकार गुरूदत्त (1894-1898 ई0) को कांग्रेसी शासन ने 4 बार कारावास में रखा। इस महान साहित्यकार ने 65 उपन्यास लिखे व वेद, दर्शन, उपनिषद्, गीता आदि पर भी स्वतंत्र लेखनी चलाकर लगभग 50 ग्रंथ लिखे हैं। पहली बार 7 मार्च 1953 को 144 भंग करने के आरोप मेकं जेल भेजा गया था; 10 मार्च 1953 को रिहा किया गया। 16 मार्च को पुनः गिरफतार कर 1 मई को रिहा कर दिया। तीसरी बार डाॅ0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ कश्मीर में प्रवेश करते हुए उन्हें कश्मीर बार्डर पर ही 12 मई को गिरफतार किया गया और 23 जून 1953 को डाॅ0 मुखर्जी की हत्या करा दिया जाने के बाद उनको मुक्त करी दिया गया। 22 नवम्बर 1976 को रात के 9 बजे गिरफतार किया गया और 3 दिसम्बर की रात के 9 बजे रिहा किया गया।
श्री वचनेश त्रिपाठी ने लिखा है कि वस्तुतः स्वतंत्र भारत में शासनगत दुर्नीतियों का विरोध करने पर एक साहित्यकार को पुनः पुनः गिरफतार होना पड़ा, जो एक स्वस्थ लोकतन्त्री व्यवस्था के लिए उपहासास्पद क्रूर मजाक ही है। कांग्रेस-शासन में ‘राष्ट्रवादी लेखन’ भी एक गुरूत्तर अपराध ही माना जाता रहा है।’’
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