Facts about Satguru Ram Singh
‘‘भारत के नेताओं ने भारत की सेना को आजाद हिन्द फौज की परम्परा पर खड़ा करने के बजाय उसी साँचे में ढालनाऔर उसी परम्परा पर खड़ा करना तय किया था, जिसे क्लाइव और उसके साथियों ने बनाया था; उस सना का नायक बनने की शिक्षा भारत में ही दी जाने लगी।
पर वह शिक्षा पाने वाले युवको को ईस्ट इंडिया कम्पनी की भाड़ैत सेना का इतिहास ‘अपना इतिहास’ कह कर पढ़ाया जाता है, उस सेना द्वारा ब्रितानवी (अंग्रेजी) साम्राज्य फैलाने के प्रयत्नों पर अभिमान करना और उसका मुकाबला करने वाले देशभक्तों को शत्रु कहना सिखाया जाता है। भारतीय सेना की बहुतेरी इकाईयों के नाम अंग्रेजी जमाने वाले चले आते हैं, और वे इकाईयाँ अंगेे्रजों की सेवा में लड़ी हुई अपनी पुरानी लड़ाईयों के बरस-दिन अब भी मनाती हैं।’’‘‘यों एक ओर जहाँ हम अंग्रेजी परम्परा बनाये रखने और अंग्रेजी जलसेना की यों सेवा करने का जिम्मा उठाये हुए हैं, वहाँ दूसरी ओर हमने अपनी आजाद हिन्द फौज की देशभक्ति और प्रशिक्षा से देश की रक्षा की मजबूत नींव डालने का काम न लेकर उसे नष्ट होने दिया। 1953-54 में दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, गढ़वाल आदि में हजारों आजाद हिन्द फौज वाले झल्ली वाले (टोकरी वाले) बनकर रोटी कमाते थे, न केवल इन्हें अपनाया नहीं गया, प्रत्युत बिहार में जिन पुलिस वालों ने 146 में हड़ताल की थी, उन्हें काँग्रेसी शासन मंे दण्ड दिये गये।
जिन चन्दनसिंह (गढ़वाली) ने 1930 में सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था, उन्हें स्थानीय चुनाव में इस कारण खड़ा नहीं होने दिया गया कि वे फौजी कानून में सजायक्ता थे।’’
पाठकों को यह भी याद होगा कि वीर सावरकरको स्वतंत्रता देवी को रिझाने के लिए लगभग 27 वर्ष अंग्रेजों की जेल व नजरबंदी में बिताने के बाद भी स्वतंत्र भारत में कोई राजनीतिक पद नहीं दिया गया, प्रत्युत गाँधी-हत्या षड्यंत्र का आरोप लगाकर पुनः जेल में डाल दिया गया। दुर्गा भाभी व पं0 रामप्रसाद बिस्मिल की बहन शास्त्री देवी घोर उपेक्षित जीवन जीने को विवश रहीं। फिर इस निर्दयी शासन से कोई कैसे अपेक्षा कर सकता है कि यह गोरक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वाले व असहयोग आंदोलन के प्रवर्तक गुरू रामसिंह ‘कूका’ का इतिहास नई पीढ़ियों के सामने रखेगा।
हाँ, यह वही रामसिंह है जिसके विषय में आजादी के मतवाले भगतसिंह ने लिखा है-
‘‘स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हममें सतगुरू रामसिंह सा समर्पण चाहिये, नामधारी शहीदों जैसा मनोबल चाहिए, जो स्वयं फांसी की डोर गले में डाल सके एवं जो आग उगलती तोपों के सामने भी खिलखिलाकर हँस सके।’’नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपना मुख्य कार्यालय रंगून (बर्मा) में स्थापित किया था, तब उन्होंने सतगुरू रामसिंह जी का अभिवादन करते हएु ये शब्द कहे-
‘‘गुरू रामसिंह जी द्वारा लहराए हुए स्वतंत्रता के झंडे के नीचे नामधारियों ने जो बलिदान दिया, उस पर देश को सदा गर्व रहेगा।’’गदर पार्टी के संस्थापक सरकार सोहन सिंह भकना ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘‘आजादी का बीजारोपण एवं अंग्रेजों के प्रति नफरत की भावना मुझमें एक पड़ोसी बाबा केसर सिंह नामधारी ने भरी। उस सफेेद वस्त्र एवं उज्जवल चरित्र वाले देशभक्त की सदाचार पूर्ण प्रेरणा ही मुझे गदर पार्टी के झण्डे तले ले आई।’’डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है-
‘‘असहयोग आंदोलन के जिस अस्त्र को चलाकर हमने आजादी को प्राप्त की, इसका सतगुरू रामसिंह जी ने 50 वर्ष पूर्व (1920 ई0 से) किया था।’’संभवतः उसी कलंक को धोने के लिए पंजाब की धरती पर आध्यात्मिक संत ने एक नई क्रांति का सूत्रपात किया। महाराणा रणजीत सिंह के सैनिक ने 1861 ई0 में गुरू बालक सिंह की मृत्यु के बाद कूका सम्प्रदाय को व्यवस्थित कर लाखों नामधारी गोरक्षा व अंग्रेजों का बहिष्कार करने के लिए तैयार कर लिये।
भाई परमानन्द व वीर भगतसिंह ने इस क्रांतिकारी सन्त के विषय में लिखकर अपनी लेखनी को पवित्र किया, जिससे राष्ट्र में क्रांति का शंखनाद हुआ। देश ने जब पहली बार संगठित रूप से अंग्रेजो के विरूद्ध अंगडाई ली थी, तब कुछ आलसी व विलासी कपूतों ने ऐसी मूर्खता दिखाई कि अंग्रेजों का राज्य चिरस्थायी बनाने के लिए अपनी ही माँ के सीने में चाकू घोंप दिया।
परतंत्रता की बेड़ियाँ काटने के कुर्बानी और राष्ट्रीय चेतना भर दी। उन्होंने प्रेरणा दी कि वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें, सरकारी नौकरियों से त्यागपत्र दे दें, अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार करें अंग्रेजी कानून को न मानें और हर उस बात को अस्वीकार करें जिसके लिये उनकी आत्मा नहीं मानती।
इसी प्रेरणा के परिणामस्वरूप अमृृतसर मे खुले दो बूचड़खानों पर दस नामधारी सिक्खों ने 14 जून 1871 की रात में हमला कर बूचड़ों का सफाया कर दिया व गायों को मुक्त कर दिया। इसके बाद सभी कूके भैणी की तरफ चल पड़े। शहर मंे पुलिस ने मनमानी पकड़-धकड़ शुरू कर दी।
जब ये कूके भैणी पहुँचे और गुरूरामसिंह को सब हाल बताया तो गुरू ने इनको सच्चे शूरवीर का मार्ग बताया और आदेश दिया कि वहाँ जाकर अपने अपराध को स्वीकार कर लें और निरपराध लोगों को फाँसी से बचा लें। कूके तो उनकी बात पर जान देते थे। वे सब अदालत में जा उपस्थित हुए और कहा-बूचड (कसाई) हमने कत्ल किये हैं। निर्दोषों को बचाकर गोरक्षा के लिए ये वीर हँसते-हँसते फाँसी चढ़ गये। इनमे से चार को 15 सितम्बर 1871 को फाँसी, तीन को काला पानी की सजा व तीन को देशद्रोही घोषित कर दिया गया।
रायकोट, जिया लुधियाना के गुरूद्वारे के महन्त ने बडे़ दुःख के साथ गुरूद्वारे के निकट गऊ-वध का समाचार संगत को बताया। यह सुनकर कूका वीरों का मन रोष से भर गया और 15 जुलाई 1871 को रात के 10 बजे गुरमुख सिंह, संत मंगल सिंह व संत मस्तान सिंह ने कई बूचड़ों को मार डाला और वध होने वाली गायों के रस्से काटकर मुक्त कर दिया। सरकार के इनाम (एक हजार रु0) के लालच में आकर तीन लोगों ने पाँच व्यक्तियों को पकड़वा दिया, जिनमें ज्ञानसिंह और रत्नसिंह बिल्कुल निद्रोष थे।
पर सरकार ने झूठे गवाह बनाकर पाँचो को फाँसी का दण्ड दिया। 5 अगस्त 1871 को गुरूमुख सिंह आदि को व 26 नवम्बर को ज्ञानसिंह आदि को लुधियाना में फाँसी दे दी।
11-12 जनवरी 1872 को भैणी के माघी मेले में इन दोनों घटनाओं की काफी चर्चा रही। सरदार हरिसिंह और लहरासिंह ने आपस में विचार करके मेले में एक रेखा खींचकर आह्वान किया कि जो लोग गऊ-रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देना चाहते हैं, वे इस रेखा के अन्दर आ जाएँ।
तत्काल 140 व्यक्ति (जिनमें कुछ बच्चे और औरतें भी थी) इस रेखा के अंदर आ गये।
13 जनवरी 1872 को यह जत्था मलेर कोटला के लिए रवाना हुआ और 15 जनवरी को प्रातः सात बजे मलेर कोटला के बूचड़खाने पर आक्रमण कर दिया। वहाँ पर पुलिस के साथ इनकी मुठभेड़ भी हुई, परन्तु विजय नामधारियों की हुई। इसमें 10 लोग मारे गये और 17 घायल हो गए।
इस पर नामधारियों पर कहर टूट पड़ा। अंग्रेज सेना ने इनका जंगलों पीछा किया। रठनामी गाँव में जब ये वीर विश्राम कर रह थे, तब उत्तम सिंह थानेदार ने इनको धोखे से गिरफतार कर लिया और शेरपुर की जेल में बंद कर दिया। 17 व 18 जनवरी 1872 को स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध विश्व का सर्वाधिक क्रूरता एवं अन्यायपूर्ण इतिहास रचा गया। नाभा, पटियाला और जीन्द रियासतों से तोपें मँगवाकर मलेर कोटला के मैदान मेे 50 कूके वीर तोपों से बाँधकर उड़ा दिये।
लुधिाना का अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर कावन कूकों को तोपों से उड़ाने का आदेश पुलस को दे रहा था। एक-एक कूका वीर जय बोलता हुआ बारी-बारी से तोप के सामने आता और तोप के गोले के दगने के साथ ही उसकी देह की धज्ज्यिाँ हवा में बिखर जातीं। जब 50वाँ कूका, जो एक 13वर्षीय बालक बिशन सिंह था, आया, तो कावन की मेम ने उसे बचाने का प्रयत्न किया। कावन ने उस बालक को कहा- ‘यदि तु कह दो कि मैं गुरू रामसिंह का शिष्य नहीं हूँ तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा।’
यह सुनते ही बिशनसिंह ने दौड़कर काॅवन की दाढ़ी पकड़ ली और तब तक काॅवन अपनी दाड़ी उससे न छुड़ा सका, जब तक तलवार से बालक के दोनों हाथ नहीं काट दिये गये। बालक को वहीं काॅवन ने कत्ल करा दिया। बलिदान हो गा 13 वर्षीय बिशनसिंह। बाकी 18 कूके दूसरे दिन मलौंध में फाँसी पर चढ़ा दिये गए। इसी दिन गुरू रामसिंह को 22 विशेष सहयोगियों के साथ गिरफतार कर अलग-अलग स्थानों पर निर्वासित कर दिया।
निर्वासित करने से पूर्व अंग्रेज कमिश्नर फोर साइब ने गुरू जी से उनके अगले कार्यक्रम के विषय में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया-‘‘ तुम एक रामसिंह को जलावतन कर रहे हो, मैं यहाँ घर-घर में रामसिंह पैदा कर दूँगा।’’
5 मास तक गुरू रामसिंह को इनके सेवक नानू सिंह के साथ सेन्ट्रल जेल रंगून (बर्मा ) में रखा गया। 18 दिसम्बर 1880 को रंगून से सरगोई भेज दिया गया। इसके बाद इनके बारे में कुछ पता नहीं चल सका।
धन्य हुआ तू जाने वाले, अमर हुआ तेरा बलिदान
अमर कीर्ति रहे जगत् मं, युग-युग गाये हिन्दुस्तान।
गो-राष्ट्र की सच्ची भक्ति, तूने फिर से सिखला दी,
सुनकर तेरी सिंह गर्जना, सिर हथेली धर चले जवान।।
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