वियतनाम द्वारा अमेरिका की सेना के विरुद्ध चलाए जाने वाले संघर्ष के नायक वियतनाम के राष्ट्रपति हो ची मिन्ह के प्रेरणा स्त्रोत थे महाराणा प्रताप। उनकी समाधि पर लिखा गया था- ‘महाराणा प्रताप का शिष्य।’ वियतनाम के तत्कालीन विदेशमंत्री अपनी भारत यात्रा के दौरान स्वयं आग्रहपूर्वक उदयपुर में महाराणा प्रताप की समाधि पर गए और बड़ी श्रद्धा से वहाँ की कुछ मिट्टी उठाकर अपने थैले में डाली। पत्रकारों द्वारा इसका कारण पूछे जाने पर उन्होंने कहा-‘‘यह मिट्टी मैं अपने देश ले जाऊँगा ताकि वहाँ भी महाराणा प्रताप जैसे वीर पैदा हों।’’ (प्रसारित समाचार के आधार पर)
जबकि अपने देश में उस अकबर को महान लिखा-पढ़ा जाता है जिसके पूर्वजों ने भारत के देश व धर्म की स्वतंत्रता का अपहरण किया और जिसके विरुद्ध महाराणा प्रताप ने स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा। इतिहासकार मुस्लिम समाज की नाराजगी का ध्यान करके सत्य लिखने से कतराते हैं। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिन्दुओं को उदारता का पाठ पढ़ाकर मूर्ख बनाया जा रहा है। जबकि सत्य यही है कि भारत में रहने वाले सभी भारतीयों के लिए गजनवी, गौरी, तैमूर, अकबर आदि विदेशी आक्रमणकारी लुटेरे थे, क्योंकि भारतीय मुस्लिमों के पूर्वज भी हिन्दू ही थे। विदेशी हमलावरों से इनका कोई संबंध नहीं है। इतिहासकारों को भी राष्ट्रहित को प्राथमिकता देकर लिखना चाहिए, सम्प्रदाय विशेष को खुश कर अलगाववादी मानसिकता को बढ़ावा न दें।
‘मध्यकालीन भारत’ पुस्तक के लेखक प्रो0 सतीश चन्द्र ने अपनी पुस्तक में सभी आक्रमणकारियों को महान व उदार सिद्ध करने का कुप्रयास किया है। अकबर की महानता के विषय में तो विस्तार से लिखा और महाराणा प्रताप के विषय में लिखा कि विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है। क्यों? क्या इसीलिए की उसने छोटे से प्रदेश का स्वामी; अस्त्र-शस्त्र व सेना के कम होने पर भी अपने आत्मिक बल व स्वाभिमान की ताकत से भारत के सबसे बडे निरंकुश व मतान्ध सम्राट् से जीवन भर स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा! उसके अदम्य साहस व युद्ध प्रणाली से प्रेरणा लेकर छत्रपति शिवाजी जैसे योद्धाओं ने मुगल सम्राज्य की नींव हिला दी। प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम में उसका आदर्श प्रेरक बना हुआ था और आज भी प्रत्येक देशभक्त उसके पावन चरित्र को याद करके गौरवान्वित होता है व उसे हिन्दुस्तान का सूरज मानता है। यदि हीन भावना से ग्रस्त व स्वार्थ में अन्धे हुए मानसिंह (वास्तव में मानहीन) जैसे लोग अकबर के शिकारी कुत्तों की भूमिका न निभाकर तटस्थ भी बने रहते, तो भी प्रणवीर प्रताप न केवल अपने चित्तौड़ को वापिस ले लेता, अपितु अकबर के गुलाम बने राजपूतों की भी स्वतंत्रता बचा लेता और यदि वे राजपूत राणाप्रताप के साहस से चैथाई साहस भी दिखाकर राणा का साथ देते, तो विदेशी आक्रमणकारी मुगलवंश भारत को लगभग 200 वर्ष और गुलाम नहीं रख पाता, क्योंकि अकबर को तो उसके राजदरबारियों के विद्रोह ही नष्ट कर देते। ये तो मानसिंह जैसे ही राजपूत थे, जो अपने ही देशवासियों के खून में हाथ रंगकर उसके साम्राज्य की ढाल बने हुए थे। आज भी मानसिंह के वंशज साहित्य (इतिहास) के माध्यम से राणा प्रताप पर आक्रमण कर अकबर की महानता (?) को बचाने का कुकृत्य कर रहे हैं।
स्वयं को हिन्दू की अपेक्षा ईसाई व मुसलमान मानने वाले पंडित नामधारी जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारत की खोज’ पुस्तक में हिन्दुओं के सिरों को काटकर उनकी मीनार बनवाने वाले क्रूर बाबर को आकर्षक व्यक्तित्व वाला, नई जागृति का शहजादा, बहादुर, साहसी, कला और साहित्य का शौकीन तथा उसके पौत्र अकबर को उससे भी अधिक आकर्षक, गुणवान, बहादुर, दुस्साहसी, योग्य सेनानायक, विनम्र, दयालु, आदर्शवादी और स्वप्नदर्शी लिखा है, जबकि महाराणा सांगा का नाम भी नहीं लिखा और राणा प्रताप को अभिमानी आत्मा वाला लिखा है। कुछ इतिहासकार राणा प्रताप को अकबर के राष्ट्रीय एकता के प्रयास में बाधा डालने वाला संकुचित हठी, घमण्डी व अपनी हठ के कारण मेवाड़ का नाश करने वाला तक लिख रहे हैं।
यह कैसी विडम्बना है कि जो राष्ट्रीयता अकबर के काल में पैदा ही नहीं हुई थी, उससे अकबर को अलंकृत किया जा रहा है। अकबर की राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले लोग यह न भूलें कि उसकी स्वार्थपूर्ण तथाकथित धर्मनिरपेक्षता उसके साथ ही मर गई थी। जहांगीर ने उसे अर्धमन से अपनाया, शाहजहां ने बिल्कुल छोड़ दिया और औरंगजेब ने तो उसकी नींव तक को ढहा दिया। जिसके फलस्वरूप बहुत से उन हिन्दू राज्यों को, जो अकबर के साथ हो गए थे, औरंगजेब के काल में प्रताप की तरह मुगल-विरोधी नीति अपनानी पड़ी।
चाहे कुछ भी हो, राणा प्रताप के लिए अकबर विदेशी, अत्याचारी और हमलावर था, जिसने उनके चित्तौड़ किले पर कब्जा कर बेरहमी से 30000 लोगों का कत्ल करवाया था। जिसके कारण चित्तौड़ का तीसरा साका हुआ, जिसमें 300 महिलाएँ अनेक छोटे-छोटे बच्चों के साथ द्दद्दकती चिताओं में कूदने को मजबूर हुई थीं। इससे पूर्व भी अकबर के दादा बाबर व पिता हुमायूं ने आक्रमणकारी के रूप में ही भारत में प्रवेश कर तबाही मचाई थी। उनसे भी पूर्व इन्हीं के पूर्वज तैमूरलंग ने 1398 ई0 में इस देश में लूट, आगजनी और कत्लेआम की जो विनाशलीला की थी, उसे इतिहासकार भूलकर भी भूल नहीं सकता। बाबर, अकबर आदि सभी मुगल अपने को बड़ी शान से तैमूर का वंशज कहते थे। फिर भी ये किसी देशभक्त की नजर में महान थे, तो देशभक्ति की परिभाषा बदलनी पड़ेगी।
यदि गोहत्या बन्द करने से ही अकबर महान बन गया, फिर तो भारत के सभी हिन्दू राजा महान थे, क्योंकि किसी भी हिन्दू राज में गोहत्या नहीं होती थी। यदि जजिया हटाने से अकबर महान है, तो सभी हिन्दू राजा महान थे, क्योंकि उन्होंने कभी किसी मुस्लिम प्रजा से ऐसा कर नहीं लिया। हाँ, यह हो सकता है कि अपने हरम में 5000 औरतें रखने के कारण अकबर ‘महान’ हो गया हो, पर हिन्दुओं की कन्याओं से विवाह करने के कारण अकबर महान नहीं है, क्योंकि कुरान के अनुसार उनके लिए हिन्दू औरतें हलाल हैं। ऐसे विवाह तो फिरोजशाह तुगलक जैसे अत्याचारी के पिता रज्जब और सिकंदर लोदी के पिता बहलोल लोदी ने भी किए थे, क्या वे भी धर्मनिरपेक्ष कहलाएंगे? और अकबर महान ने या उसके किस वंशज ने अपनी बेटी किसी हिन्दू के साथ ब्याही थी?
मानसिंह की बुआ हीरकंवर अकबर के विवाह के बाद मरियम उज्जमानी बन गई थी। उससे उत्पन्न हुए सलीम (जहांगीर) के साथ मानसिंह ने अपनी बहन मानबाई का विवाह किया। नीचता की हद तो तब हो गई, जब ‘मानसिंह’ को अपने स्वर्गीय बेटे जगतसिंह की पुत्री का विवाह भी जहांगीर के साथ करना पड़ा। जबकि डाॅ0 आर्शीवादी लाल के अनुसार उसके हरम में 800 औरतें थीं। इन हिन्दू औरतों से उत्पन्न हुए जहांगीर व शाहजहां ने मुस्लिम लड़की से विवाह करने वाले हिन्दू को प्राण दण्ड देने की घोषणा कर किस धर्मनिरपेक्षता का पालन किया था? गुरु अर्जुन देव को मरवाकर जहांगीर ने किस धर्म निरपेक्षता को स्थापित किया था?
गोंडवाना की विधवा वीरांगना रानी दुर्गावती पर बिना कारण आक्रमण (1564 ई0) करने में भी अकबर की नीयत में खोट दिखाई देता है, क्योंकि रानी के मरने (वीरगति पाने) पर सेनापति आसफ खां ने लूट के माल के साथ रानी की बहन कमलावती और रानी की पुत्रवधू को भी अकबर के पास आगरा (हरम में) भेज दिया था। मालवा विजय के बाद (1561 ई0) भी इसी तरह लूट का माल (जिसमें धन-दौलत के अतिरिक्त बहुत सी स्त्रियाँ भी थीं) सेनापति आधम खाँ ने अकबर के पास भेजा था, पर बाज बहादुर की प्रेयसी रूपमती ने आधम खाँ या अकबर के हरम में जाने से साफ मना कर दिया और विष खाकर अपने सतीत्त्व की रक्षा की थी।
अपने संरक्षक बैरम खां की विधवा स्त्री सलीमा बेगम (अकबर की सगी बुआ गुलरुख बेगम की बेटी) के साथ भी अकबर ने विवाह किया था। कुछ इतिहास लेखकों की दृष्टि में बैरम खां की हत्या का उद्देश्य अकबर द्वारा सलीमा बेगम को पाना ही था, क्योंकि पहले तो अकबर ने बैरमखां को हज यात्रा पर भेज दिया, फिर उसे जल्दी भारत से निकालने के लिए सेना (मुल्ला पीर मुहम्मद के नेतृत्व में) भेज दी। बैरम खाँ ने विद्रोह कर दिया। वह हार गया और पकड़ा गया। पुनः उसे हज के लिए भेज दिया गया। पाटन की तरफ जाते हुए मार्ग में मुबारक खाँ अफगान ने बैरम खाँ की हत्या कर दी। अब प्रश्न है कि हत्यारे ने सलीमा बेगम और उसके 4 वर्षीय पुत्र रहीम खान को क्यों नहीं मारा या वह उन्हें अपने साथ क्यों नहीं ले गया? और वह अकबर के पास कैसे पहुंच गई? अकबर की विद्दवा के प्रति सहानुभूति थी, तो उसका विवाह किसी और के साथ भी करवा सकता था, उसे अपने हरम (या महल) में क्यों रखा? और हत्यारे को अकबर ने दण्ड क्यों नहीं दिया?
पाठक यह न भूलें कि अकबर ने नकटों (मानसिंह, भगवानदास, टोडरमल आदि) के माध्यम से चार बार राणा प्रताप के पास सन्धि प्रस्ताव भेजा था, पर स्वाभिमानी राणा ने उसे ठुकरा दिया था, क्योंकि इस सुख-सुविधा के बदले राणा को अपनी स्वतंत्रता व स्वाभिमान की तो बलि चढ़ानी ही थी, साथ में अपनी या अपने किसी परिवार की कन्या के सतीत्त्व की भी बलि अकबर के हरम में चढ़ानी पड़ती और फिर नकटों के साथ मिलकर अकबर के शिकारी कुत्तों की भूमिका निभाते हुए अपने देशवासियों की हत्या भी करनी पड़ती। क्योंकि इससे पूर्व व बाद में स्वाधीनता खोने वाले राजाओं ने यही तो किया। आमेर के भारमल, जैसलमेर के हरराय व डुंगरपुर के आसकरण ने अपनी बेटी अकबर के हरम में भेजी थी। आश्चर्य है अकबर से ऐसे अपमान जनक संबंध जोड़ने वाले मजबूर लोगों को ‘भारत की खोज’ के लेखक ने स्वाभिमानी लिखा है।
बीकानेर के कल्याणमल को अपने भाई काहन की बेटी अकबर के हरम में भेजनी पड़ी, क्योंकि उसकी अपनी बेटी विवाह योग्य नहीं थी। कांगड़ा उर्फ नगरकोट के शासक विधिचन्द ने अकबर के हरम के लिए डोला भेजने से मना किया तो, अकबर महान (?) के सैनिकों ने ज्वालामुखी देवी के मंदिर में 200 काली गाय काटकर उनके खून से मंदिर के द्वारों व दीवारों को अपवित्र कर दिया था। जोधपुर का मोटा राजा उदय सिंह लगभग 16 वर्ष से अकबर की सेवा में था, पर 1587 ई0 में जब उसने अपनी बेटी मानमती (जोधाबाई) का विवाह अकबर के बेटे जहांगीर के साथ किया, तभी उसे एक हजार का मनसब दिया गया था। एक तरफ तो ये पिता पुत्र अपने हरमों को औरतों से भरने में जुटे थे, दूसरी तरफ अपनी बेटियों को जीवन भर अविवाहित रख रहे थे। अकबर की बेटी आरामबानो, जहांगीर की बेटी सुल्तुन्नीसा (मानसिंह की भांजी) शाहजहां की बेटी जहांआरा जीवन भर अविवाहित रहकर मरी थी। रोशनआरा को लगभग 40 वर्ष की अवस्था मंें ओरंगजेब ने विवाह की अनुमति दी थी। सोचिए, क्या अपनी बेटियों को यूं तड़पाने वाले महान थे?
अकबर की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता व उदारता का गुणगान करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हल्दी घाटी की लड़ाई (1576 ई0) में उसके सैनिकों ने दोनों ओर के (प्रताप व मानसिंह) के राजपूतों को समान भाव से मारा था। उस युद्ध में पकड़े गए राणा प्रताप के हाथी ‘रामप्रसाद’ को भी अकबर ने ‘पीर प्रसाद’ बना दिया था। हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ प्रयागराज का भी इस्लामीकरण कर 1583 ई0 में ‘इलाहाबाद’ बना दिया गया था। इसी से तो संदेह पैदा होता है कि फतेहपुर सिकरी का निर्माता कोई और ही था अकबर ने उसका भी इस्लामीकरण किया होगा। अपनी राज्य लिप्सा में इस ‘महान सम्राट्’ ने जीवन भर रक्त स्नान किया।
पाठकवृन्द! इतिहासकार तो कुछ भी कहें पर आप स्वयं निर्णय कीजिए की महान कौन था- खोया राज्य जीतने वाले अपने संरक्षक बैरम खां को मार्ग से हटाकर व उसकी हत्या करवाकर उसकी पत्नी को अपनी पत्नी बनाने वाला अकबर या उसी बैरम खां के पुत्र रहीम खाँ की युद्ध में बंदी बनाई गई पत्नी को सम्मान सहित वापिस भेजने वाला प्रताप? अपनी शक्ति के घमंड में दूसरों के राज्य व स्त्रियों के अपहरण करने वाला अकबर या अपनी स्वतंत्रता, धर्म व बहु बेटियों की रक्षा के लिए आक्रमणकारी से युद्ध करने वाला प्रताप? अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने वालों के सिर कटवाकर उनकी मीनारें बनवाने वालों का वंशज अकबर या मालवा व गुजरात के चिर शत्रुओं को भी शरण देने व बंदी बनाकर भी उनसे अतिथियों जैसा व्यवहार कर छोड़ने की उदारता दिखाने वालों का वंशज महाराणा प्रताप?
कुछ इतिहासकार भले ही हल्दी घाटी में महाराणा की हार का वर्णन करते हैं, पर यह सत्य है कि उस समर में दिखाई प्रताप की वीरता ने उसे अमर बना दिया और अकबर की मुगल सेना का अजेय होने का भ्रम तोड़ दिया। जीतने के बाद भी मुगल सेना में राणा का पीछा करने की हिम्मत नहीं हुई । 4 मास तक गोगुन्दा में रहकर भी मानसिंह न तो राणा को पकड़ सका, न मार सका, न झुका सका। इस जीत (?) से नाराज होकर अकबर ने उसे वापस बुला लिया वह अजमेर पहुँचा, तो उसे कई दिन तक दरबार में आने की अनुमति नहीं दी गई। यही नहीं, इसके बाद मेवाड़ पर कई आक्रमण हुए, लेकिन मानसिंह को कभी सेनापति नहीं बनाया और जब वह शाहबाज के अधीन आगे चलकर मेवाड़ पर चढ़ाई करने आया, तब सेनापति ने उसे रास्ते से ही लौटा दिया।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हल्दी घाटी में महाराणा के संघर्ष का प्रारंभ था, अंत नहीं। विद्यालय पाठयक्रमों में लेखक प्रायः महाराणा की हार लिखकर चुप हो जाते हैं, जबकि यह संघर्ष लगभग 9 वर्ष तक लगातार चला था। अकबर मानसिंह की असफलता से नाराज हो स्वयं गोगून्दा पहुंचा था। बाद में विशाल सेना भेजी गई। इसके बाद तीन बार शाहबाज खां के नेतृत्व में हमले हुए। रहीम खां और जगन्नाथ के नेतृत्व में राणा को मारने, पकड़ने या झुकाने के प्रयास किए गए, पर राणा ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली अपनाकर मुगल सेना को छकाया। 1585 ई0 तक चले इस कडे़ संघर्ष में अकबर के हाथ कुछ नहीं आया। राणा प्रताप ने उसके किए को एक वर्ष में ही उलट दिया। केवल चित्तौड़, माण्डलगढ़ और उनको अजमेर से जोड़ने वाला मार्ग ही मुगलों के हाथ में बचा। शेष सारा मेवाड़ पुनः स्वतंत्र हो गया।
राणा प्रताप के राज्यारोहण के समय मेवाड़ का भूगोल इतना ही था। शेष लगभग 12 वर्ष राणा ने मेवाड़ की समृद्धि में लगाए, तब अकबर शांत बैठा रहा। राणा की मृत्यु (जनवरी 1597 ई0) के बाद सितंबर 1599 ई0 और अक्टूबर 1603 ई0 में अकबर ने जहांगीर के नेतृत्व में मानसिंह व जगन्नाथ आदि के साथ विशाल सेना मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजी, पर उसे असफलता ही हाथ लगी। 1605 ई0 में पुनः जहांगीर के बेटे खुसरो ने सागर (राणा प्रताप का सौतेला भाई) आदि 60 अधिकारियों सहित मेवाड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी की, पर 15 अक्टूबर को अकबर कब्र में चला गया।
नवम्बर 1605 में जहांगीर ने विशाल सेना राणा अमरसिंह के विरुद्ध भेजी। पुनः 1608 में महावत खां के नेतृत्व में मेवाड़ पर चढ़ाई की गई। अगले ही वर्ष अबदुल्लाह खां के नेतृत्व में सेना भेजी गई। राणा ने गुरिल्ला युद्ध करके हर बार मुगल सेना को निराश कर दिया, पर मेवाड़ भी बार-बार के हमलों से तबाह हो चुका था। 1612 ई0 में राजा बासू को पुनः मेवाड़ भेजा गया, पर वापस बुला लिया और अगले वर्ष जहांगीर ने पूरी मुगल ताकत मेवाड़ को नष्ट करने के लिए झोंक दी। सारे देशद्रोही राजपूत जहांगीर के शिकारी कुत्ते बनकर मेवाड़ पर झपट पड़े। राणा अमर सिंह अपने पूर्वजों के प्रण को याद कर डटा हुआ था, पर चारों तरफ प्रलय देखकर मेवाड़ के सरदारों ने सन्धि का प्रस्ताव रखा, जो विवश होकर राणा को स्वीकार करना पड़ा। 1615 ई0 के आरम्भ में हुई यह सन्धि यद्यपि सम्मानजनक थी, पर राणा अमर सिंह आत्मग्लानि से भर गया और शाहजादा खुर्रम के पास जाने से पहले ही उसने राजसत्ता का त्याग कर दिया। इसके बाद अपनी मृत्यु (30 अक्टूबर 1620 ई0) तक उसने एकांतवास किया।
आश्चर्य है ऐसे प्रजा-वत्सल योद्धा को कुछ इतिहास लेखक आलसी, विलासी व आरामपरस्त लिखते हैं, जबकि दूसरों की हत्या करवाकर उनकी स्त्रियों से जबरदस्ती विवाह करने वाले क्रूर राजा को न्याय की जंजीर का बादशाह लिखते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि लार्ड-मैकाले के मानस पुत्रों द्वारा धर्मनिरपेक्षता (मुस्लिम तुष्टिकरण) की मदिरा पिलाकर देश को मदहोश किया जा रहा है। देश इस मदहोशी को कब त्यागेगा!
जबकि अपने देश में उस अकबर को महान लिखा-पढ़ा जाता है जिसके पूर्वजों ने भारत के देश व धर्म की स्वतंत्रता का अपहरण किया और जिसके विरुद्ध महाराणा प्रताप ने स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा। इतिहासकार मुस्लिम समाज की नाराजगी का ध्यान करके सत्य लिखने से कतराते हैं। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिन्दुओं को उदारता का पाठ पढ़ाकर मूर्ख बनाया जा रहा है। जबकि सत्य यही है कि भारत में रहने वाले सभी भारतीयों के लिए गजनवी, गौरी, तैमूर, अकबर आदि विदेशी आक्रमणकारी लुटेरे थे, क्योंकि भारतीय मुस्लिमों के पूर्वज भी हिन्दू ही थे। विदेशी हमलावरों से इनका कोई संबंध नहीं है। इतिहासकारों को भी राष्ट्रहित को प्राथमिकता देकर लिखना चाहिए, सम्प्रदाय विशेष को खुश कर अलगाववादी मानसिकता को बढ़ावा न दें।
‘मध्यकालीन भारत’ पुस्तक के लेखक प्रो0 सतीश चन्द्र ने अपनी पुस्तक में सभी आक्रमणकारियों को महान व उदार सिद्ध करने का कुप्रयास किया है। अकबर की महानता के विषय में तो विस्तार से लिखा और महाराणा प्रताप के विषय में लिखा कि विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है। क्यों? क्या इसीलिए की उसने छोटे से प्रदेश का स्वामी; अस्त्र-शस्त्र व सेना के कम होने पर भी अपने आत्मिक बल व स्वाभिमान की ताकत से भारत के सबसे बडे निरंकुश व मतान्ध सम्राट् से जीवन भर स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा! उसके अदम्य साहस व युद्ध प्रणाली से प्रेरणा लेकर छत्रपति शिवाजी जैसे योद्धाओं ने मुगल सम्राज्य की नींव हिला दी। प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम में उसका आदर्श प्रेरक बना हुआ था और आज भी प्रत्येक देशभक्त उसके पावन चरित्र को याद करके गौरवान्वित होता है व उसे हिन्दुस्तान का सूरज मानता है। यदि हीन भावना से ग्रस्त व स्वार्थ में अन्धे हुए मानसिंह (वास्तव में मानहीन) जैसे लोग अकबर के शिकारी कुत्तों की भूमिका न निभाकर तटस्थ भी बने रहते, तो भी प्रणवीर प्रताप न केवल अपने चित्तौड़ को वापिस ले लेता, अपितु अकबर के गुलाम बने राजपूतों की भी स्वतंत्रता बचा लेता और यदि वे राजपूत राणाप्रताप के साहस से चैथाई साहस भी दिखाकर राणा का साथ देते, तो विदेशी आक्रमणकारी मुगलवंश भारत को लगभग 200 वर्ष और गुलाम नहीं रख पाता, क्योंकि अकबर को तो उसके राजदरबारियों के विद्रोह ही नष्ट कर देते। ये तो मानसिंह जैसे ही राजपूत थे, जो अपने ही देशवासियों के खून में हाथ रंगकर उसके साम्राज्य की ढाल बने हुए थे। आज भी मानसिंह के वंशज साहित्य (इतिहास) के माध्यम से राणा प्रताप पर आक्रमण कर अकबर की महानता (?) को बचाने का कुकृत्य कर रहे हैं।
स्वयं को हिन्दू की अपेक्षा ईसाई व मुसलमान मानने वाले पंडित नामधारी जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारत की खोज’ पुस्तक में हिन्दुओं के सिरों को काटकर उनकी मीनार बनवाने वाले क्रूर बाबर को आकर्षक व्यक्तित्व वाला, नई जागृति का शहजादा, बहादुर, साहसी, कला और साहित्य का शौकीन तथा उसके पौत्र अकबर को उससे भी अधिक आकर्षक, गुणवान, बहादुर, दुस्साहसी, योग्य सेनानायक, विनम्र, दयालु, आदर्शवादी और स्वप्नदर्शी लिखा है, जबकि महाराणा सांगा का नाम भी नहीं लिखा और राणा प्रताप को अभिमानी आत्मा वाला लिखा है। कुछ इतिहासकार राणा प्रताप को अकबर के राष्ट्रीय एकता के प्रयास में बाधा डालने वाला संकुचित हठी, घमण्डी व अपनी हठ के कारण मेवाड़ का नाश करने वाला तक लिख रहे हैं।
यह कैसी विडम्बना है कि जो राष्ट्रीयता अकबर के काल में पैदा ही नहीं हुई थी, उससे अकबर को अलंकृत किया जा रहा है। अकबर की राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले लोग यह न भूलें कि उसकी स्वार्थपूर्ण तथाकथित धर्मनिरपेक्षता उसके साथ ही मर गई थी। जहांगीर ने उसे अर्धमन से अपनाया, शाहजहां ने बिल्कुल छोड़ दिया और औरंगजेब ने तो उसकी नींव तक को ढहा दिया। जिसके फलस्वरूप बहुत से उन हिन्दू राज्यों को, जो अकबर के साथ हो गए थे, औरंगजेब के काल में प्रताप की तरह मुगल-विरोधी नीति अपनानी पड़ी।
चाहे कुछ भी हो, राणा प्रताप के लिए अकबर विदेशी, अत्याचारी और हमलावर था, जिसने उनके चित्तौड़ किले पर कब्जा कर बेरहमी से 30000 लोगों का कत्ल करवाया था। जिसके कारण चित्तौड़ का तीसरा साका हुआ, जिसमें 300 महिलाएँ अनेक छोटे-छोटे बच्चों के साथ द्दद्दकती चिताओं में कूदने को मजबूर हुई थीं। इससे पूर्व भी अकबर के दादा बाबर व पिता हुमायूं ने आक्रमणकारी के रूप में ही भारत में प्रवेश कर तबाही मचाई थी। उनसे भी पूर्व इन्हीं के पूर्वज तैमूरलंग ने 1398 ई0 में इस देश में लूट, आगजनी और कत्लेआम की जो विनाशलीला की थी, उसे इतिहासकार भूलकर भी भूल नहीं सकता। बाबर, अकबर आदि सभी मुगल अपने को बड़ी शान से तैमूर का वंशज कहते थे। फिर भी ये किसी देशभक्त की नजर में महान थे, तो देशभक्ति की परिभाषा बदलनी पड़ेगी।
यदि गोहत्या बन्द करने से ही अकबर महान बन गया, फिर तो भारत के सभी हिन्दू राजा महान थे, क्योंकि किसी भी हिन्दू राज में गोहत्या नहीं होती थी। यदि जजिया हटाने से अकबर महान है, तो सभी हिन्दू राजा महान थे, क्योंकि उन्होंने कभी किसी मुस्लिम प्रजा से ऐसा कर नहीं लिया। हाँ, यह हो सकता है कि अपने हरम में 5000 औरतें रखने के कारण अकबर ‘महान’ हो गया हो, पर हिन्दुओं की कन्याओं से विवाह करने के कारण अकबर महान नहीं है, क्योंकि कुरान के अनुसार उनके लिए हिन्दू औरतें हलाल हैं। ऐसे विवाह तो फिरोजशाह तुगलक जैसे अत्याचारी के पिता रज्जब और सिकंदर लोदी के पिता बहलोल लोदी ने भी किए थे, क्या वे भी धर्मनिरपेक्ष कहलाएंगे? और अकबर महान ने या उसके किस वंशज ने अपनी बेटी किसी हिन्दू के साथ ब्याही थी?
मानसिंह की बुआ हीरकंवर अकबर के विवाह के बाद मरियम उज्जमानी बन गई थी। उससे उत्पन्न हुए सलीम (जहांगीर) के साथ मानसिंह ने अपनी बहन मानबाई का विवाह किया। नीचता की हद तो तब हो गई, जब ‘मानसिंह’ को अपने स्वर्गीय बेटे जगतसिंह की पुत्री का विवाह भी जहांगीर के साथ करना पड़ा। जबकि डाॅ0 आर्शीवादी लाल के अनुसार उसके हरम में 800 औरतें थीं। इन हिन्दू औरतों से उत्पन्न हुए जहांगीर व शाहजहां ने मुस्लिम लड़की से विवाह करने वाले हिन्दू को प्राण दण्ड देने की घोषणा कर किस धर्मनिरपेक्षता का पालन किया था? गुरु अर्जुन देव को मरवाकर जहांगीर ने किस धर्म निरपेक्षता को स्थापित किया था?
गोंडवाना की विधवा वीरांगना रानी दुर्गावती पर बिना कारण आक्रमण (1564 ई0) करने में भी अकबर की नीयत में खोट दिखाई देता है, क्योंकि रानी के मरने (वीरगति पाने) पर सेनापति आसफ खां ने लूट के माल के साथ रानी की बहन कमलावती और रानी की पुत्रवधू को भी अकबर के पास आगरा (हरम में) भेज दिया था। मालवा विजय के बाद (1561 ई0) भी इसी तरह लूट का माल (जिसमें धन-दौलत के अतिरिक्त बहुत सी स्त्रियाँ भी थीं) सेनापति आधम खाँ ने अकबर के पास भेजा था, पर बाज बहादुर की प्रेयसी रूपमती ने आधम खाँ या अकबर के हरम में जाने से साफ मना कर दिया और विष खाकर अपने सतीत्त्व की रक्षा की थी।
अपने संरक्षक बैरम खां की विधवा स्त्री सलीमा बेगम (अकबर की सगी बुआ गुलरुख बेगम की बेटी) के साथ भी अकबर ने विवाह किया था। कुछ इतिहास लेखकों की दृष्टि में बैरम खां की हत्या का उद्देश्य अकबर द्वारा सलीमा बेगम को पाना ही था, क्योंकि पहले तो अकबर ने बैरमखां को हज यात्रा पर भेज दिया, फिर उसे जल्दी भारत से निकालने के लिए सेना (मुल्ला पीर मुहम्मद के नेतृत्व में) भेज दी। बैरम खाँ ने विद्रोह कर दिया। वह हार गया और पकड़ा गया। पुनः उसे हज के लिए भेज दिया गया। पाटन की तरफ जाते हुए मार्ग में मुबारक खाँ अफगान ने बैरम खाँ की हत्या कर दी। अब प्रश्न है कि हत्यारे ने सलीमा बेगम और उसके 4 वर्षीय पुत्र रहीम खान को क्यों नहीं मारा या वह उन्हें अपने साथ क्यों नहीं ले गया? और वह अकबर के पास कैसे पहुंच गई? अकबर की विद्दवा के प्रति सहानुभूति थी, तो उसका विवाह किसी और के साथ भी करवा सकता था, उसे अपने हरम (या महल) में क्यों रखा? और हत्यारे को अकबर ने दण्ड क्यों नहीं दिया?
पाठक यह न भूलें कि अकबर ने नकटों (मानसिंह, भगवानदास, टोडरमल आदि) के माध्यम से चार बार राणा प्रताप के पास सन्धि प्रस्ताव भेजा था, पर स्वाभिमानी राणा ने उसे ठुकरा दिया था, क्योंकि इस सुख-सुविधा के बदले राणा को अपनी स्वतंत्रता व स्वाभिमान की तो बलि चढ़ानी ही थी, साथ में अपनी या अपने किसी परिवार की कन्या के सतीत्त्व की भी बलि अकबर के हरम में चढ़ानी पड़ती और फिर नकटों के साथ मिलकर अकबर के शिकारी कुत्तों की भूमिका निभाते हुए अपने देशवासियों की हत्या भी करनी पड़ती। क्योंकि इससे पूर्व व बाद में स्वाधीनता खोने वाले राजाओं ने यही तो किया। आमेर के भारमल, जैसलमेर के हरराय व डुंगरपुर के आसकरण ने अपनी बेटी अकबर के हरम में भेजी थी। आश्चर्य है अकबर से ऐसे अपमान जनक संबंध जोड़ने वाले मजबूर लोगों को ‘भारत की खोज’ के लेखक ने स्वाभिमानी लिखा है।
बीकानेर के कल्याणमल को अपने भाई काहन की बेटी अकबर के हरम में भेजनी पड़ी, क्योंकि उसकी अपनी बेटी विवाह योग्य नहीं थी। कांगड़ा उर्फ नगरकोट के शासक विधिचन्द ने अकबर के हरम के लिए डोला भेजने से मना किया तो, अकबर महान (?) के सैनिकों ने ज्वालामुखी देवी के मंदिर में 200 काली गाय काटकर उनके खून से मंदिर के द्वारों व दीवारों को अपवित्र कर दिया था। जोधपुर का मोटा राजा उदय सिंह लगभग 16 वर्ष से अकबर की सेवा में था, पर 1587 ई0 में जब उसने अपनी बेटी मानमती (जोधाबाई) का विवाह अकबर के बेटे जहांगीर के साथ किया, तभी उसे एक हजार का मनसब दिया गया था। एक तरफ तो ये पिता पुत्र अपने हरमों को औरतों से भरने में जुटे थे, दूसरी तरफ अपनी बेटियों को जीवन भर अविवाहित रख रहे थे। अकबर की बेटी आरामबानो, जहांगीर की बेटी सुल्तुन्नीसा (मानसिंह की भांजी) शाहजहां की बेटी जहांआरा जीवन भर अविवाहित रहकर मरी थी। रोशनआरा को लगभग 40 वर्ष की अवस्था मंें ओरंगजेब ने विवाह की अनुमति दी थी। सोचिए, क्या अपनी बेटियों को यूं तड़पाने वाले महान थे?
अकबर की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता व उदारता का गुणगान करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हल्दी घाटी की लड़ाई (1576 ई0) में उसके सैनिकों ने दोनों ओर के (प्रताप व मानसिंह) के राजपूतों को समान भाव से मारा था। उस युद्ध में पकड़े गए राणा प्रताप के हाथी ‘रामप्रसाद’ को भी अकबर ने ‘पीर प्रसाद’ बना दिया था। हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ प्रयागराज का भी इस्लामीकरण कर 1583 ई0 में ‘इलाहाबाद’ बना दिया गया था। इसी से तो संदेह पैदा होता है कि फतेहपुर सिकरी का निर्माता कोई और ही था अकबर ने उसका भी इस्लामीकरण किया होगा। अपनी राज्य लिप्सा में इस ‘महान सम्राट्’ ने जीवन भर रक्त स्नान किया।
पाठकवृन्द! इतिहासकार तो कुछ भी कहें पर आप स्वयं निर्णय कीजिए की महान कौन था- खोया राज्य जीतने वाले अपने संरक्षक बैरम खां को मार्ग से हटाकर व उसकी हत्या करवाकर उसकी पत्नी को अपनी पत्नी बनाने वाला अकबर या उसी बैरम खां के पुत्र रहीम खाँ की युद्ध में बंदी बनाई गई पत्नी को सम्मान सहित वापिस भेजने वाला प्रताप? अपनी शक्ति के घमंड में दूसरों के राज्य व स्त्रियों के अपहरण करने वाला अकबर या अपनी स्वतंत्रता, धर्म व बहु बेटियों की रक्षा के लिए आक्रमणकारी से युद्ध करने वाला प्रताप? अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने वालों के सिर कटवाकर उनकी मीनारें बनवाने वालों का वंशज अकबर या मालवा व गुजरात के चिर शत्रुओं को भी शरण देने व बंदी बनाकर भी उनसे अतिथियों जैसा व्यवहार कर छोड़ने की उदारता दिखाने वालों का वंशज महाराणा प्रताप?
कुछ इतिहासकार भले ही हल्दी घाटी में महाराणा की हार का वर्णन करते हैं, पर यह सत्य है कि उस समर में दिखाई प्रताप की वीरता ने उसे अमर बना दिया और अकबर की मुगल सेना का अजेय होने का भ्रम तोड़ दिया। जीतने के बाद भी मुगल सेना में राणा का पीछा करने की हिम्मत नहीं हुई । 4 मास तक गोगुन्दा में रहकर भी मानसिंह न तो राणा को पकड़ सका, न मार सका, न झुका सका। इस जीत (?) से नाराज होकर अकबर ने उसे वापस बुला लिया वह अजमेर पहुँचा, तो उसे कई दिन तक दरबार में आने की अनुमति नहीं दी गई। यही नहीं, इसके बाद मेवाड़ पर कई आक्रमण हुए, लेकिन मानसिंह को कभी सेनापति नहीं बनाया और जब वह शाहबाज के अधीन आगे चलकर मेवाड़ पर चढ़ाई करने आया, तब सेनापति ने उसे रास्ते से ही लौटा दिया।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हल्दी घाटी में महाराणा के संघर्ष का प्रारंभ था, अंत नहीं। विद्यालय पाठयक्रमों में लेखक प्रायः महाराणा की हार लिखकर चुप हो जाते हैं, जबकि यह संघर्ष लगभग 9 वर्ष तक लगातार चला था। अकबर मानसिंह की असफलता से नाराज हो स्वयं गोगून्दा पहुंचा था। बाद में विशाल सेना भेजी गई। इसके बाद तीन बार शाहबाज खां के नेतृत्व में हमले हुए। रहीम खां और जगन्नाथ के नेतृत्व में राणा को मारने, पकड़ने या झुकाने के प्रयास किए गए, पर राणा ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली अपनाकर मुगल सेना को छकाया। 1585 ई0 तक चले इस कडे़ संघर्ष में अकबर के हाथ कुछ नहीं आया। राणा प्रताप ने उसके किए को एक वर्ष में ही उलट दिया। केवल चित्तौड़, माण्डलगढ़ और उनको अजमेर से जोड़ने वाला मार्ग ही मुगलों के हाथ में बचा। शेष सारा मेवाड़ पुनः स्वतंत्र हो गया।
राणा प्रताप के राज्यारोहण के समय मेवाड़ का भूगोल इतना ही था। शेष लगभग 12 वर्ष राणा ने मेवाड़ की समृद्धि में लगाए, तब अकबर शांत बैठा रहा। राणा की मृत्यु (जनवरी 1597 ई0) के बाद सितंबर 1599 ई0 और अक्टूबर 1603 ई0 में अकबर ने जहांगीर के नेतृत्व में मानसिंह व जगन्नाथ आदि के साथ विशाल सेना मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजी, पर उसे असफलता ही हाथ लगी। 1605 ई0 में पुनः जहांगीर के बेटे खुसरो ने सागर (राणा प्रताप का सौतेला भाई) आदि 60 अधिकारियों सहित मेवाड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी की, पर 15 अक्टूबर को अकबर कब्र में चला गया।
नवम्बर 1605 में जहांगीर ने विशाल सेना राणा अमरसिंह के विरुद्ध भेजी। पुनः 1608 में महावत खां के नेतृत्व में मेवाड़ पर चढ़ाई की गई। अगले ही वर्ष अबदुल्लाह खां के नेतृत्व में सेना भेजी गई। राणा ने गुरिल्ला युद्ध करके हर बार मुगल सेना को निराश कर दिया, पर मेवाड़ भी बार-बार के हमलों से तबाह हो चुका था। 1612 ई0 में राजा बासू को पुनः मेवाड़ भेजा गया, पर वापस बुला लिया और अगले वर्ष जहांगीर ने पूरी मुगल ताकत मेवाड़ को नष्ट करने के लिए झोंक दी। सारे देशद्रोही राजपूत जहांगीर के शिकारी कुत्ते बनकर मेवाड़ पर झपट पड़े। राणा अमर सिंह अपने पूर्वजों के प्रण को याद कर डटा हुआ था, पर चारों तरफ प्रलय देखकर मेवाड़ के सरदारों ने सन्धि का प्रस्ताव रखा, जो विवश होकर राणा को स्वीकार करना पड़ा। 1615 ई0 के आरम्भ में हुई यह सन्धि यद्यपि सम्मानजनक थी, पर राणा अमर सिंह आत्मग्लानि से भर गया और शाहजादा खुर्रम के पास जाने से पहले ही उसने राजसत्ता का त्याग कर दिया। इसके बाद अपनी मृत्यु (30 अक्टूबर 1620 ई0) तक उसने एकांतवास किया।
आश्चर्य है ऐसे प्रजा-वत्सल योद्धा को कुछ इतिहास लेखक आलसी, विलासी व आरामपरस्त लिखते हैं, जबकि दूसरों की हत्या करवाकर उनकी स्त्रियों से जबरदस्ती विवाह करने वाले क्रूर राजा को न्याय की जंजीर का बादशाह लिखते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि लार्ड-मैकाले के मानस पुत्रों द्वारा धर्मनिरपेक्षता (मुस्लिम तुष्टिकरण) की मदिरा पिलाकर देश को मदहोश किया जा रहा है। देश इस मदहोशी को कब त्यागेगा!
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