यह एक 74 साल की महिला की कहानी है जो 57 साल से नेहरू की पत्नी होने के आरोप में समाज के बहिष्कार और गांव निकाले की सजा भुगत रही है। लोग उसे देखकर ताने मारते थे….हंसते थे। दर-दर की ठोकरे खा चुकी ये महिला अब अकेले रहती है। पहली बार इसने अपनी पुरी कहानी बताई।
बात 6 दिसंबर 1959 की है। नेहरूजी जब पश्चिम बंगाल के एक गावं मंे बांध का उद्घाटन करने आए थे। नेहरू के आग्रह पर बांध का उद्घाटन 17 साल की बुधनी से कराया गया था। वो भारत की पहली मजदूर थी, जिसके हाथों से किसी प्र्रोजेक्ट का उद्घाटन हुआ था। कार्यक्रम के दौरान नेहरूजी ने बुधनी के हाथों में स्वागत के लिए लाया गया हार दे दिया। बस, ये पल बुधनी की जिंदगी में तूफान ले आया। रात में गांव में संथाली समाज की पंचायत बैठी। बुधनी को कहा गया कि पंडित नेहरू ने उसे माला दी है, इसलिए आदिवासी परंपरा के मुताबिक वो उनकी पत्नि हो गई है। क्योंकि पंडित नेहरू आदिवासी नही थे, इसलिए एक गैर आदिवासी से शादी रचाने के आरोप में सथाली समाज ने उसे जाति और गांव से बाहर निकालने का फैसला सुना दिया। वो समय समय दामोदर वैली कॉरपोरेशन (डीवीसी) में मजदूरी करती थी। कुछ समय वो वहीं नौकरी करती रही, लेकिन 1962 में उसे वहां से निकाल दिया। इसके बाद वो बंगाल छोडकर बिहार (अब झारखंड) आ गई। सात सालों तक भटकती रही। फिर एक दिन सुधीर दत्ता साहब मिले। वे परियोजना में अधिकारी थे। सुधीर साहब ने उन्हें अपनाया और उन्हे मझियाइन से दत्ता बनाया। लेकिन समाज के डर से औपचारिक शादी नही हुई। अब वो तीन बच्चों की मां है। 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बुधनी-नेहरू किस्से की जानकारी मिली। बुधनी ने बताया राजीव गांधी के बुलावे पर वो उनसे मिलने ओडिशा गई थी। इसके बाद डीवीसी ने उन्हें फिर से नौकरी पर रख लिया। अब वो रिटायर हो चुकी हैं। उसने बताया कि गांव से निकाले जाने के कई सालों बाद वो अपने घर गई थी। परिवार से मिली थी और चली आई थी। अब पर्व-त्यौहार पर ही गांव जाती है। पर परिवार के सदस्यों को छोड अन्य किसी से बात नही होती। उन्हें आज भी समाज के आंखो में अपने लिए सम्मान का इंतजार है। वो कहती है, ‘‘मैं चाहती हूं कि कोई राहूल गांधी से कहकर मेरे लिए घर बनवा दे। मेरे बेटे को नौकरी दिलवा दे ताकि बची जिंदगी आराम से गुजर जाए।’
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