प्राचीन काल से ऋषि कश्यप की धरती के रूप में प्रसिद्ध कश्मीर आज मुस्लिम बहुल विवादित प्रान्त के रूप में जाना जाता है। धरती पर जन्नत सी शांति के लिए प्रसिद्ध यह प्रान्त 1947 के बाद कभी शांत नहीं रहा। इसका मुख्य कारण पिछले 700 वर्षों में घटित कुछ घटनाएँ हैं। कश्मीर में सबसे पहले इस्लाम स्वीकार करने वाला राजा रिंचन था। 1301 ई0 में कश्मीर के राजसिंहासन पर सूहदेव नामक शासक विराजमान हुआ। कश्मीर में बाहरी तत्त्वों ने जिस प्रकार अस्त व्यस्तता फैला रखी थी, उसे रोकने में सूहदेव पूर्णतः असफल रहा। इसी समय कश्मीर में लद्दाख का राजकुमार रिंचन आया, वह अपने पैतृक राज्य से विद्रोही होकर यहाँ आया था। यह संयोग की बात थी कि इसी समय यहाँ एक मुस्लिम सरदार शाहमीर स्वात (तुर्किस्तान) से आया था। कश्मीर के राजा सूहदेव ने बिना विचार किये और बिना उनकी सत्यनिष्ठा की परीक्षा लिए इन दोनों विदेशियों को प्रशासन में महत्त्वपूर्ण दायित्त्व सौंप दिये। यह सूहदेव की अदूरदर्शिता थी, जिसके परिणाम आगे चलकर उसी के लिए घातक सिद्ध हुए। तातार सेनापति डुलचू ने 70,000 शक्तिशाली सैनिकों सहित कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। अपने राज्य को क्रूर आक्रामक की दया पर छोड़कर सूहदेव किश्तवाड़ की ओर भाग गया। डुलचू ने हत्याकांड का आदेश दे दिया। हजारों लोग मार डाले गये। राजा की अकर्मण्यता और प्रमाद के कारण हजारों की संख्या में हिंदू लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ गया। जनता की स्थिति दयनीय थी। राजतरंगिणी में उल्लेख है-‘जब डुलचू वहाँ से चला गया, तो गिरफ्तारी से बचे कश्मीरी लोग अपने गुप्त स्थानों से इस प्रकार बाहर निकले, जैसे चूहे अपने बिलों से बाहर आते हैं। जब डुलचू द्वारा फैलाई गयी हिंसा रुकी तो पुत्र को पिता न मिला, पिता को पुत्र से वंचित होना पड़ा, भाई भाई से न मिल पाया। कश्मीर सृष्टि से पहले वाला क्षेत्र बन गया। ऐसा विस्तृत क्षेत्र जहाँ घास ही घास थी और खाद्य सामग्री न थी।
इस अराजकता का सूहदेव के मंत्री रामचंद्र ने लाभ उठाया और वह शासक बन बैठा। रिंचन भी इस अवसर का लाभ उठाने से नही चूका। (श्री वचनेश त्रिपाठी के अनुसार रामचन्द्र लहरकोट का स्वतंत्र शासक था और सूहदेव का प्रतिस्पर्धी; रिंचन ने इन दोनों को अलग अलग पराजित किया।- सं0) जिस स्वामी ने उसे शरण दी थी उसके राज्य को हड़पने का दानव उसके हृदय में भी उभर आया और भारी उत्पात मचाने लगा। रिंचन जब अपने घर से ही बागी होकर आया था, तो उससे दूसरे के घर शांत बैठे रहने की अपेक्षा भला कैसे की जा सकती थी? उसके मस्तिष्क में विद्रोह का परंपरागत कीटाणु उभर आया, उसने रामचंद्र के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। रामचंद्र ने जब देखा कि रिंचन के हृदय में पाप हिलोरें मार रहा है, और उसके कारण अब उसके स्वयं के जीवन को भी संकट है तो वह राजधानी छोड़कर लोहर के दुर्ग में जा छिपा। रिंचन को पता था कि शत्रु को जीवित छोडना कितना घातक सिद्ध हो सकता है? इसलिए उसने बड़ी सावधानी से काम किया और अपने कुछ सैनिकों को गुप्त वेश में रामचंद्र को ढूंढने के लिए भेजा। जब रामचंद्र मिल गया तो उसने समझौते और वात्र्तालाप के बहाने छल करते हुए रामचंद्र की हत्या करा दी। इस प्रकार कश्मीर पर रिंचन का अद्दिकार हो गया। यह घटना 1320 की है। उसने रामचंद्र की पुत्री कोटा रानी (वचनेश त्रिपाठी ने रामचन्द्र की विधवा लिखा है) से विवाह कर लिया था। इस प्रकार वह कश्मीर का राजा बनकर अपना राज्य कार्य चलाने लगा। कहते हैं कि अपने हत्यारे से विवाह करने के पीछे कोटा रानी का मुख्य उद्देश्य उसके विचार परिवर्तन कर कश्मीर की रक्षा करना था। धीरे धीरे रिंचन उदास रहने लगा। उसे लगा कि उसने जो किया वह ठीक नहीं था। उसके कश्मीर के शैवों के सबसे बड़े द्दर्मगुरु देव स्वामी के समक्ष हिन्दू बनने का आग्रह किया। देव स्वामी ने इतिहास की सबसे भयंकर भूल की और बुद्ध मत से सम्बंधित भोट रिंचन को हिन्दू समाज का अंग बनाने से मना कर दियाख्पपप,। रिंचन के लिए पाखण्डी पंडितों ने जो परिस्थितियां उत्पन्न की थी वे बहुत ही अपमानजनक थी। उसे असीम वेदना और संताप ने घेर लिया। देवास्वामी की अदूरदर्शिता ने शाहमीर को मौका दे दिया। उसने रिंचन को सलाह दी कि अगले दिन प्रातः आपको जो भी धर्मगुरु मिले, आप उसका मत स्वीकार कर लेना। अगले दिन रिंचन जैसे ही सैर को निकला, उसे मुस्लिम सूफी बुलबुल शाह अजान देते मिला। रिंचन को अंततः अपनी दुविधा का समाधान मिल गया। वह उससे इस्लाम में दीक्षित होने का आग्रह करने लगा। बुलबुल शाह ने गर्म लोहा देखकर तुरंत चोट मारी और एक घायल पक्षी को सहला कर अपने यहां आश्रय दे दिया। रिंचन ने भी बुलबुल शाह का हृदय से स्वागत किया। इस घटना के पश्चात् कश्मीर का इस्लामीकरण आरम्भ हुआ जो लगातार 500 वर्षों तक चलता रहा।
यह अपच का रोग यहीं नहीं रुका। कालांतर में महाराज गुलाब सिंह के पुत्र महाराज रणबीर सिंह गद्दी पर बैठे। रणबीर सिंह द्वारा धर्मार्थ ट्रस्ट की स्थापना कर हिन्दू संस्कृति को प्रोत्साहन दिया गया। राजा के विचारों से प्रभावित होकर राजौरी पुंछ के राजपूत मुसलमान और कश्मीर के कुछ मुसलमान राजा के समक्ष आवदेन करने आये कि उन्हें मूल हिन्दू धर्म में फिर से स्वीकार कर लिया जाये। राजा ने अपने पण्डितों से उन्हें वापिस मिलाने के लिया पूछा तो उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया। एक पण्डित तो राजा के विरोद्द में यह कहकर झेलम में कूद गया कि राजा ने अगर उसकी बात नहीं मानी तो वह आत्मदाह कर लेगा। राजा को ब्रह्महत्या का दोष लगेगा। राजा को मजबूरी वश अपने निर्णय को वापिस लेना पड़ा। जिन संकीर्ण सोच वाले पण्डितों ने रिंचन को स्वीकार न करके कश्मीर को 500 वर्षों तक इस्लामिक शासकों के पैरों तले रुंदवाया था, उन्हीं ने बाकी बचे हिन्दू कश्मीरियों को रुंदवाने के लिए छोड़ दिया। इसका परिणाम आज तक कश्मीरी भुगत रहे हैं
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