Condition of Hindi in India
आज राष्ट्रभारती की उन्नति का मार्ग कंटकाकीर्ण ही नहीं, चारों ओर से अवरूद्ध है।
हम सब Hindi सेवी लोग वि शृंखलित हैं। सब अपनी-अपनी ढपली और अपने-अपने राग में व्यस्त हैं। आवश्यकता यह है कि हम अपना और अपनी संस्थाओं का अस्तित्व बनाये रखते हुए-देश में हिन्दी की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़ जायंे और एकजुट होकर इतना कठोर कदम उठाएँ कि इस गूँगी-बहरी सरकार को मुस्तफा कमाल पाशा के शब्दांे में यह कहना पडे़ कि देश का सब राजकाल कल से पूर्ण रूप से अपनी राष्ट्रभाषा में ही किया जाये।
सरकारों में हिन्दी हितैषी हैं नहीं- सब के सब अंगे्रजीदां हैं। लगता ऐसा है कि उन्हें इस देश की धरती से, साँस्कृतिक रीति रिवाजों से, भारतीय भाषाओं और देश के साधारण लोगों से कोई लगाव नहीं। वे प्रत्येक क्षेत्र में अंगे्रजी का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं। देश की जनता उसे समझे या न समझे, इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं। केन्द्रीय सरकार का प्रत्येक दफ्तर अंग्रेजियत से ओतप्रोत है- बिना आंग्ल भाषा की समझ के, कोई व्यक्ति वहाँ से अपना कार्य नहीं करा सकता। वहाँ तो हिन्दी दिवस भी ‘हिन्दी डे’ के रूप में आयोजित होता है।
दूसरे वे लोग हैं जो गीत तो हिन्दी के गाते हैं, रात को किसी सभा में भाषण देकर माँ भारती के लिए आँसू बहाते हैं किन्तु प्रातः काल उठते ही अपने नौनिहालों को अँग्रेजी स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं। रोटी खाते हैं हिन्दी की और बाजा बजाते है अंग्रेजी का। इस दोहरे चरित्र वाले लोगों के आचरण ने हिन्दी का पर्याप्त नुकसान किया है-इसे हमें ठीक करना होगा।
राजधानी में रहकर अनेक विशिष्टों हिन्दी सेवियों ने सरकार की दासता स्वीकार कर ली है। सरकार ने उनके लिए- हिन्दी के उन्नयन के नाम पर अनेक संस्थाएँ गढ़ दी हैं। वे बड़े आराम से उनमें बिराजतें हैं, हिन्दी प्रचार-प्रसार का सारा कार्य अंग्रेजी में करते हैं।
बडे़-बडे़ मठाधीश बन कर विदेशों की यात्राएँ करते है और हिन्दी उत्थान के नाम पर अंग्रेजी और अंग्रेजियत को बढ़ाते रहते है। अब इन मठाधीशों को हटाना आसान नहीं है किन्तु हमें उनसे भी तालमेल बिठा कर हिन्दी प्रचार की स्थिति को ठीक करना होगा।
आज सारे देश में आँग्ल विद्यालय सहस्त्रों की तादाद में खुलते जा रहे हैं। सभी लोग इस तथ्य से परिचित हो गये हैं कि बिना अंग्रेजी ज्ञान के सरकारी नौकरी मिलना संभव नहीं है। अतः मध्यम वर्ग ही नहीं निम्न आयु वर्ग के लोग भी चलाचल सम्पत्ति बेचकर अपने बालकों का अंग्रेजी विद्यालयों में दाखिला करा रहें हैं। परिणाम क्या होगा-भविष्य के गर्भ में है। हमंे इस पर भी विचार करना होगा।
इन दिनों चारों ओर ऐसे संस्थान-प्रतिष्ठान खुल गये हैं जो अपने को कहते तो हैं हिन्दी के हामी उनका उद्देश्य सरकारी सहायता प्राप्त कर मौंजे मारना ही रह जाता है। हिन्दी व्याकरण, कोश वैज्ञानिक कोश, आर्थिक कोश, जैविक आदि निर्माण के लिए ढेर सारा धन मिलता है, होता कुछ नहीं उन लोगों के पेट-पीठ दोनों मिल कर एक हो जाते हैं। बड़े अधिकारियों और नेताओं को बुलाना और उनका सम्मान कर अपना आभार जताना ही उनका एकमात्र उद्देश्य रह गया है।
आज देश वास्तविक हिन्दी सेवियों की न्यूनता दृष्टिगत होती जा रही है। हिन्दी सेवा के नाम उन्होंने ऐसे चोंचले खड़े कर दिए हैं कि वे अपने प्रचार-प्रसार में लगे रहते हैं। स्वयं को बहुत बड़ा हिन्दी सेवी मानने वाले लोग हिन्दी सेवा के नाम पर स्वयं भ्रमित हैं, चकित हैं और दूसरों को मूर्ख बना कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं।
आज हिन्दी सेवी कम किन्तु साहित्यकार और कवि बहुसंख्यक हो गये, वे केवल सम्मान चाहते हैं। साहित्य सृजन अलग बात है- हिन्दी सेवा अलग। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अलख जगाना पड़ता है- उससे कोई प्राप्ति नहीं होती, सारा व्यय स्वयं के सिर ओढ़ना पड़ता है। किन्तु जो आनन्द हिन्दी सेवा में है, वह अन्यत्र संभव नहीं।
संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा घोषित किया था किन्तु अनेक हिन्दी नेताओं के विरोध के बावजूद श्री नेहरू ने हिन्दी को पन्द्रह वर्ष के लिए वनवास दे दिया। बाद में अलग-अलग समय अलग-अलग राजभाषा पद मिलना दूभर होता गया।
हम लोगों की धृतराष्ट्रोन्मुखी मानसिकता एवं भीष्म पितामह खामोशी के कारण हिन्दी की वर्तमान स्थिति को हमें स्वीकार करना पड़ा। हम चाहते हैं कि अब भी केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी अपना अधिक से अधिक काम हिन्दी में करें। राजभाषा हिन्दी को अधिनियमों और नियमों से मुक्त करें। इसमें हिन्दी सर्वथा मुक्त होकर विकास के नये आयाम स्थापित करेगी।
आज देश के छोटे-बडे़ कई नगरों में हिन्दी के नाम पर कई संस्थान या प्रतिष्ठान खुल गये हैं। वे रूपये लेकर कई नामों से सम्मान पत्र बाँटते हैं। इससे सच्चे हिन्दी सेवी अपने को आहत अनुभव करते हैं, क्योंकि हिन्दी सेवा के लिए तो कठोर परिश्रम करना पड़ता है, जीवन-मरण का खेल खेलना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति पैसे देकर सम्मान पत्र प्राप्त करने में अपना अपमान महसूस करते हैं। हमें चाहिए कि हम सब लोग हिन्दी के सच्चे हितेषी बनें और ऐसे प्रपंचों से दूर रहें।
राज्य सरकारों ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया है। उन्होंने आंग्ल विद्यालयों का सामना करने के लिए राजकीय विद्यालयों में भी पहली कक्षा से अंग्रेजी के अध्ययन की व्यवस्था की गई है। पूरे देश की सम्पूर्ण हिन्दी सेवी संस्थाओं ने इन राज्यादेशों का घोर विरोध किया है किन्तु सरकारों के कान पर जूँ नहीं रेंगी सो नहीं रेंगी। हिन्दी सेवी तथा हिन्दी सेवी संस्थाएँ सरकार के इन प्रयत्नों से हताश नहीं है व और सम्पूर्ण दृढ़ता से हिन्दी की पुनप्र्रतिष्ठा के लिए कटिबद्ध हो गये है- प्रतिबद्ध हो गये हैं।
आज हमारे समक्ष राजनेताओं ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ उलझनें और उपस्थित कर दी है, उन्होंने प्रांतीय बोलियों की राज्यों की राजभाषा बनाने और वहाँ ये हिन्दी के निष्कासन के प्रयत्न प्रारंभ किये हैं किन्तु देशवासी, मुझे विश्वास है, इन अनुचित हथकंडो को स्वीकार नहीं करेंगे और हिन्दी का रथ तीव्र गति से आगे बढ़ता रहेगा।
निश्चित ही वर्तमान में हिन्दी के विकास में अनेक व्यवधान उपस्थित किये जा रहे हैं किन्तु यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि इस शताब्दी में हिन्दी का भविष्य उज्जवल है। हमें चाहिए कि अब तक जो भी त्रुटियाँ हमने की हैं, उन्हें सुधारें । हिन्दी की उसी स्थिति को पुन लाएँ जो देश को जोड़ती थी, भावनात्मक एकता पैदा करती थी और सब को साथ लेकर चलती थी। निश्चित ही हम हिन्दी के गतिशील प्रवाह के लिए अपनी त्रुटियाँ दूर करनी होंगी और उसके अवरूद्ध प्रवाह को निर्बन्ध आगे बढ़ाना होगा।
आज तक हिन्दी ने अनेक दबाव सहे हैं किन्तु वह अनवरत आगे बढ़ती जा रही है। सम्पूर्ण विश्व हिन्दी सम्मेलन हो चुके हंै जिनमंे हिन्दी के वैश्विक प्रचार-प्रसार को पर्याप्त शक्ति मिली है। नवीनतम भाषायी सर्वेक्षणों, विद्वानों के निष्कर्षो आदि से सिद्ध होने जा रहा है कि हिन्दी विश्व पर प्रथम भाषा के रूप में शीघ्र ही प्रतिष्ठित होगी।
आज वैज्ञानिक युग है। हिन्दी को विज्ञान सम्मत भाषा बनाने में हमें अनन्त प्रयत्न करने होंगे। आज सर्वत्र कम्प्यूटर का बोलबाला है जो 0 और 1 की ही भाषा समझता है। अगर हम इससे हिन्दी फोंट लगा लें तो हिन्दी का कार्य भी सरलता से किया जा सकता है। इधर एक कम्पनी ने हिन्दी का प्रिन्टर केस विकसित किया है तथा कुछ अन्य कम्पनियों ने भारतीय भाषाओं के किट तथा पी0सी0 डाॅस विकसित किये हैं।
इस प्रकार केरेक्टर सेटों के प्रतिमान एवं अनूकूलन क्षमता तय की जा चुकी हैं। इससे कम्प्यूटर से हिन्दी में कार्य करना सरल हो जायेगा। आज बाजार में हिन्दी के अनेक साफ्टवेयर उपलब्ध हैं। कई कम्प्यूटर अनुवाद उपकरण विकसित किये जा चुके हैं।
इन सबसे हिन्दी शीघ्र ही वैश्विक धरातल पर अपना स्थान बनायेगी। दुनिया के अनेक बड़े देशों ने अपनी-अपनी भाषा में अत्याधुनिक कम्प्यूटर विकसित किये हैं। उन्होंने वहाँ भाषायी विकास में अंग्रेजी की कतई जरूरत नहीं समझी- तो फिर हमें भी हिन्दी के द्वारा ही अत्याधुनिक कम्प्यूटर विकसित करने में क्या कष्ट है।
आज उच्च शिक्षा का माध्यम अंगे्रजी है। हमें चाहिए कि शिक्षा पाठ्यक्रमांे में मैकाले के अवशेषों को तिलाजंलि दें एवं विद्यालयों महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को नवीन रूप दे कर हिन्दी माध्यम को मजबूज करें।
यह प्रसन्नता की बात है कि सम्पूर्ण विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के ‘पठन-पाठन’ की उचित व्यवस्था हो रही है। वहाँ हिन्दी की उच्च कोटि की पुस्तकों का उनकी भाषा में रूपान्तर भी हो रहा है। इस प्रकार विभिन्न देशों में हिन्दी की पर्याप्त रूप से प्रविष्ठि हो चुकी है।
जहाँ तक हमारे देश का सवाल है, सारा देश हिन्दीमय है। सब प्रदेशों में हिन्दी प्यार से पढ़ी जाती है और सम्मान से बोली जाती है। कुछ सिरफिरे राजनीतिबाजों को छोड़ कर दक्षिणात्य प्रदेशों में भी हिन्दी का कोई विरोध नहीं है।
आज वहाँ वहीं के बड़े-बड़े साहित्यकारों हिन्दी ग्रंथांे का धड़ल्ले से उनकी भाषा में अनुवाद कर रहे है और उनके शाश्वत साहित्य को अनुवादित कर राष्ट्रभाषा हिन्दी को भेंट कर रहे हैं। इसलिए निर्विवाद सत्य है कि हिन्दी को सम्पूर्ण देश ने पर्याप्त प्रेम प्रदान किया है।
अब हिन्दी किसी क्षेत्र विशेष की ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा है। सरकार की जो कुदृष्टि इस पर पड़ी हुई है, वह दिन दूर नहीं जब सरकारें घुटने टेक कर हिन्दी को आधिपत्य को स्वीकार करेंगी क्योंकि हिन्दी का काम सारे देश को जोड़ना है। अन्य प्रांतीय भाषाएँ उसकी बहनें हैं । वह उन सबसे शब्द शैली और साहित्य-शैली देकर पारस्परिक सौहार्द बनाएगी और एक हृदय हो भारत जननी नारे को सार्थक करेगी।
अन्तिम बात यह है कि हिन्दी में संस्कृत और संस्कृति की विचारशीलता है, सम्पूर्ण विश्व को साथ रखने की दृष्टि है। देश और काल से बाहर जाकर अपनी क्षमता को प्रर्दशित करने की क्षमता है तथा उसके पास अपसंस्कृति के विरूद्ध संघर्ष करने का अपूर्व साहस है।
अतः ऐसी प्यारी हिन्दी के सम्पूर्ण विकास के लिए हम यह संकल्प लें कि जब तक यह शरीर है, तन मन धन से सम्पूर्ण आस्था, निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास से राष्ट्रभाषा हिन्दी के रथ को आगे बढ़ाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहेंगे।
मैं हिन्दी के संदर्भ में एक ऐतिहासक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। अल्लाउदीन खिलजी ने चित्तोैड़ पर भयंकर आक्रमण किये। रावल रत्नसिंह चित्तौड़ की रक्षा करते हुए अपने सहस्त्रों सैनिकांें के साथ युद्ध भूमि मंे शहीद हो गये। नृपतविहीन गदद्ी पर शिशोदा के लक्ष्मणसिंह सिसोदिया को राणा लक्ष्मण सिंह ने शेष युद्ध को अद्भूत शूरवीरता से लड़ा किन्तु पराजय का समय सन्निकट दिखाई दे रहा था।
एक रात वे किले में जागते हुए अर्द्ध निद्रित से सो रहे थे। दीपक की मद्धिम लौ में से चित्तौड़ की अधिष्ठावी देवी माँ कालिका प्रकट होकर बोली- मैं भूखी हूं। राणा हड़बड़ा कर उठ बैठे और प्रमाणित होकर बोले- माँ।
तू सहस्त्रों वीरों का रक्त पी चुकी है, फिर तेरी क्षुधा कैसी?
‘‘मैं राजसीरक्त चाहती हूँ।’’ महादेवी ने कहा।
‘ऐसा ही होगा माँ,’ राणा ने कहा- ‘कल से मेरे पुत्र एक के बाद एक राज सिंहासन पर बैठेंगे और खिलजी की सेना से युद्ध करंेगे।’
ऐसा ही किया गया। नौ राजकुमार क्रमशः राणा बनकर एक के बाद एक देश पर बलिदान हो गए। अन्त में राणा लक्ष्मण सिंह भी युद्ध में मारे गये।
हमारी हिन्दी पर भी काले अंग्रेजो ने आधिपत्य जमा रखा है।
उसकी रक्षा के लिए आज राजरक्त की आवश्यकता है। आज संस्थाओं के उच्च पदस्थ व्यक्ति ही राजरक्त के अन्तर्गत आते हैं। यदि हिन्दी कोे सिंहासनसीन करनी है तो किसी को बलिदान देना होगा
आज राष्ट्रभारती की उन्नति का मार्ग कंटकाकीर्ण ही नहीं, चारों ओर से अवरूद्ध है।
हम सब Hindi सेवी लोग वि शृंखलित हैं। सब अपनी-अपनी ढपली और अपने-अपने राग में व्यस्त हैं। आवश्यकता यह है कि हम अपना और अपनी संस्थाओं का अस्तित्व बनाये रखते हुए-देश में हिन्दी की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़ जायंे और एकजुट होकर इतना कठोर कदम उठाएँ कि इस गूँगी-बहरी सरकार को मुस्तफा कमाल पाशा के शब्दांे में यह कहना पडे़ कि देश का सब राजकाल कल से पूर्ण रूप से अपनी राष्ट्रभाषा में ही किया जाये।
सरकारों में हिन्दी हितैषी हैं नहीं- सब के सब अंगे्रजीदां हैं। लगता ऐसा है कि उन्हें इस देश की धरती से, साँस्कृतिक रीति रिवाजों से, भारतीय भाषाओं और देश के साधारण लोगों से कोई लगाव नहीं। वे प्रत्येक क्षेत्र में अंगे्रजी का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं। देश की जनता उसे समझे या न समझे, इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं। केन्द्रीय सरकार का प्रत्येक दफ्तर अंग्रेजियत से ओतप्रोत है- बिना आंग्ल भाषा की समझ के, कोई व्यक्ति वहाँ से अपना कार्य नहीं करा सकता। वहाँ तो हिन्दी दिवस भी ‘हिन्दी डे’ के रूप में आयोजित होता है।
दूसरे वे लोग हैं जो गीत तो हिन्दी के गाते हैं, रात को किसी सभा में भाषण देकर माँ भारती के लिए आँसू बहाते हैं किन्तु प्रातः काल उठते ही अपने नौनिहालों को अँग्रेजी स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं। रोटी खाते हैं हिन्दी की और बाजा बजाते है अंग्रेजी का। इस दोहरे चरित्र वाले लोगों के आचरण ने हिन्दी का पर्याप्त नुकसान किया है-इसे हमें ठीक करना होगा।
राजधानी में रहकर अनेक विशिष्टों हिन्दी सेवियों ने सरकार की दासता स्वीकार कर ली है। सरकार ने उनके लिए- हिन्दी के उन्नयन के नाम पर अनेक संस्थाएँ गढ़ दी हैं। वे बड़े आराम से उनमें बिराजतें हैं, हिन्दी प्रचार-प्रसार का सारा कार्य अंग्रेजी में करते हैं।
बडे़-बडे़ मठाधीश बन कर विदेशों की यात्राएँ करते है और हिन्दी उत्थान के नाम पर अंग्रेजी और अंग्रेजियत को बढ़ाते रहते है। अब इन मठाधीशों को हटाना आसान नहीं है किन्तु हमें उनसे भी तालमेल बिठा कर हिन्दी प्रचार की स्थिति को ठीक करना होगा।
आज सारे देश में आँग्ल विद्यालय सहस्त्रों की तादाद में खुलते जा रहे हैं। सभी लोग इस तथ्य से परिचित हो गये हैं कि बिना अंग्रेजी ज्ञान के सरकारी नौकरी मिलना संभव नहीं है। अतः मध्यम वर्ग ही नहीं निम्न आयु वर्ग के लोग भी चलाचल सम्पत्ति बेचकर अपने बालकों का अंग्रेजी विद्यालयों में दाखिला करा रहें हैं। परिणाम क्या होगा-भविष्य के गर्भ में है। हमंे इस पर भी विचार करना होगा।
इन दिनों चारों ओर ऐसे संस्थान-प्रतिष्ठान खुल गये हैं जो अपने को कहते तो हैं हिन्दी के हामी उनका उद्देश्य सरकारी सहायता प्राप्त कर मौंजे मारना ही रह जाता है। हिन्दी व्याकरण, कोश वैज्ञानिक कोश, आर्थिक कोश, जैविक आदि निर्माण के लिए ढेर सारा धन मिलता है, होता कुछ नहीं उन लोगों के पेट-पीठ दोनों मिल कर एक हो जाते हैं। बड़े अधिकारियों और नेताओं को बुलाना और उनका सम्मान कर अपना आभार जताना ही उनका एकमात्र उद्देश्य रह गया है।
आज देश वास्तविक हिन्दी सेवियों की न्यूनता दृष्टिगत होती जा रही है। हिन्दी सेवा के नाम उन्होंने ऐसे चोंचले खड़े कर दिए हैं कि वे अपने प्रचार-प्रसार में लगे रहते हैं। स्वयं को बहुत बड़ा हिन्दी सेवी मानने वाले लोग हिन्दी सेवा के नाम पर स्वयं भ्रमित हैं, चकित हैं और दूसरों को मूर्ख बना कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं।
आज हिन्दी सेवी कम किन्तु साहित्यकार और कवि बहुसंख्यक हो गये, वे केवल सम्मान चाहते हैं। साहित्य सृजन अलग बात है- हिन्दी सेवा अलग। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अलख जगाना पड़ता है- उससे कोई प्राप्ति नहीं होती, सारा व्यय स्वयं के सिर ओढ़ना पड़ता है। किन्तु जो आनन्द हिन्दी सेवा में है, वह अन्यत्र संभव नहीं।
संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा घोषित किया था किन्तु अनेक हिन्दी नेताओं के विरोध के बावजूद श्री नेहरू ने हिन्दी को पन्द्रह वर्ष के लिए वनवास दे दिया। बाद में अलग-अलग समय अलग-अलग राजभाषा पद मिलना दूभर होता गया।
हम लोगों की धृतराष्ट्रोन्मुखी मानसिकता एवं भीष्म पितामह खामोशी के कारण हिन्दी की वर्तमान स्थिति को हमें स्वीकार करना पड़ा। हम चाहते हैं कि अब भी केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी अपना अधिक से अधिक काम हिन्दी में करें। राजभाषा हिन्दी को अधिनियमों और नियमों से मुक्त करें। इसमें हिन्दी सर्वथा मुक्त होकर विकास के नये आयाम स्थापित करेगी।
आज देश के छोटे-बडे़ कई नगरों में हिन्दी के नाम पर कई संस्थान या प्रतिष्ठान खुल गये हैं। वे रूपये लेकर कई नामों से सम्मान पत्र बाँटते हैं। इससे सच्चे हिन्दी सेवी अपने को आहत अनुभव करते हैं, क्योंकि हिन्दी सेवा के लिए तो कठोर परिश्रम करना पड़ता है, जीवन-मरण का खेल खेलना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति पैसे देकर सम्मान पत्र प्राप्त करने में अपना अपमान महसूस करते हैं। हमें चाहिए कि हम सब लोग हिन्दी के सच्चे हितेषी बनें और ऐसे प्रपंचों से दूर रहें।
राज्य सरकारों ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया है। उन्होंने आंग्ल विद्यालयों का सामना करने के लिए राजकीय विद्यालयों में भी पहली कक्षा से अंग्रेजी के अध्ययन की व्यवस्था की गई है। पूरे देश की सम्पूर्ण हिन्दी सेवी संस्थाओं ने इन राज्यादेशों का घोर विरोध किया है किन्तु सरकारों के कान पर जूँ नहीं रेंगी सो नहीं रेंगी। हिन्दी सेवी तथा हिन्दी सेवी संस्थाएँ सरकार के इन प्रयत्नों से हताश नहीं है व और सम्पूर्ण दृढ़ता से हिन्दी की पुनप्र्रतिष्ठा के लिए कटिबद्ध हो गये है- प्रतिबद्ध हो गये हैं।
आज हमारे समक्ष राजनेताओं ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ उलझनें और उपस्थित कर दी है, उन्होंने प्रांतीय बोलियों की राज्यों की राजभाषा बनाने और वहाँ ये हिन्दी के निष्कासन के प्रयत्न प्रारंभ किये हैं किन्तु देशवासी, मुझे विश्वास है, इन अनुचित हथकंडो को स्वीकार नहीं करेंगे और हिन्दी का रथ तीव्र गति से आगे बढ़ता रहेगा।
निश्चित ही वर्तमान में हिन्दी के विकास में अनेक व्यवधान उपस्थित किये जा रहे हैं किन्तु यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि इस शताब्दी में हिन्दी का भविष्य उज्जवल है। हमें चाहिए कि अब तक जो भी त्रुटियाँ हमने की हैं, उन्हें सुधारें । हिन्दी की उसी स्थिति को पुन लाएँ जो देश को जोड़ती थी, भावनात्मक एकता पैदा करती थी और सब को साथ लेकर चलती थी। निश्चित ही हम हिन्दी के गतिशील प्रवाह के लिए अपनी त्रुटियाँ दूर करनी होंगी और उसके अवरूद्ध प्रवाह को निर्बन्ध आगे बढ़ाना होगा।
आज तक हिन्दी ने अनेक दबाव सहे हैं किन्तु वह अनवरत आगे बढ़ती जा रही है। सम्पूर्ण विश्व हिन्दी सम्मेलन हो चुके हंै जिनमंे हिन्दी के वैश्विक प्रचार-प्रसार को पर्याप्त शक्ति मिली है। नवीनतम भाषायी सर्वेक्षणों, विद्वानों के निष्कर्षो आदि से सिद्ध होने जा रहा है कि हिन्दी विश्व पर प्रथम भाषा के रूप में शीघ्र ही प्रतिष्ठित होगी।
आज वैज्ञानिक युग है। हिन्दी को विज्ञान सम्मत भाषा बनाने में हमें अनन्त प्रयत्न करने होंगे। आज सर्वत्र कम्प्यूटर का बोलबाला है जो 0 और 1 की ही भाषा समझता है। अगर हम इससे हिन्दी फोंट लगा लें तो हिन्दी का कार्य भी सरलता से किया जा सकता है। इधर एक कम्पनी ने हिन्दी का प्रिन्टर केस विकसित किया है तथा कुछ अन्य कम्पनियों ने भारतीय भाषाओं के किट तथा पी0सी0 डाॅस विकसित किये हैं।
इस प्रकार केरेक्टर सेटों के प्रतिमान एवं अनूकूलन क्षमता तय की जा चुकी हैं। इससे कम्प्यूटर से हिन्दी में कार्य करना सरल हो जायेगा। आज बाजार में हिन्दी के अनेक साफ्टवेयर उपलब्ध हैं। कई कम्प्यूटर अनुवाद उपकरण विकसित किये जा चुके हैं।
इन सबसे हिन्दी शीघ्र ही वैश्विक धरातल पर अपना स्थान बनायेगी। दुनिया के अनेक बड़े देशों ने अपनी-अपनी भाषा में अत्याधुनिक कम्प्यूटर विकसित किये हैं। उन्होंने वहाँ भाषायी विकास में अंग्रेजी की कतई जरूरत नहीं समझी- तो फिर हमें भी हिन्दी के द्वारा ही अत्याधुनिक कम्प्यूटर विकसित करने में क्या कष्ट है।
आज उच्च शिक्षा का माध्यम अंगे्रजी है। हमें चाहिए कि शिक्षा पाठ्यक्रमांे में मैकाले के अवशेषों को तिलाजंलि दें एवं विद्यालयों महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को नवीन रूप दे कर हिन्दी माध्यम को मजबूज करें।
यह प्रसन्नता की बात है कि सम्पूर्ण विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के ‘पठन-पाठन’ की उचित व्यवस्था हो रही है। वहाँ हिन्दी की उच्च कोटि की पुस्तकों का उनकी भाषा में रूपान्तर भी हो रहा है। इस प्रकार विभिन्न देशों में हिन्दी की पर्याप्त रूप से प्रविष्ठि हो चुकी है।
जहाँ तक हमारे देश का सवाल है, सारा देश हिन्दीमय है। सब प्रदेशों में हिन्दी प्यार से पढ़ी जाती है और सम्मान से बोली जाती है। कुछ सिरफिरे राजनीतिबाजों को छोड़ कर दक्षिणात्य प्रदेशों में भी हिन्दी का कोई विरोध नहीं है।
आज वहाँ वहीं के बड़े-बड़े साहित्यकारों हिन्दी ग्रंथांे का धड़ल्ले से उनकी भाषा में अनुवाद कर रहे है और उनके शाश्वत साहित्य को अनुवादित कर राष्ट्रभाषा हिन्दी को भेंट कर रहे हैं। इसलिए निर्विवाद सत्य है कि हिन्दी को सम्पूर्ण देश ने पर्याप्त प्रेम प्रदान किया है।
अब हिन्दी किसी क्षेत्र विशेष की ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा है। सरकार की जो कुदृष्टि इस पर पड़ी हुई है, वह दिन दूर नहीं जब सरकारें घुटने टेक कर हिन्दी को आधिपत्य को स्वीकार करेंगी क्योंकि हिन्दी का काम सारे देश को जोड़ना है। अन्य प्रांतीय भाषाएँ उसकी बहनें हैं । वह उन सबसे शब्द शैली और साहित्य-शैली देकर पारस्परिक सौहार्द बनाएगी और एक हृदय हो भारत जननी नारे को सार्थक करेगी।
अन्तिम बात यह है कि हिन्दी में संस्कृत और संस्कृति की विचारशीलता है, सम्पूर्ण विश्व को साथ रखने की दृष्टि है। देश और काल से बाहर जाकर अपनी क्षमता को प्रर्दशित करने की क्षमता है तथा उसके पास अपसंस्कृति के विरूद्ध संघर्ष करने का अपूर्व साहस है।
अतः ऐसी प्यारी हिन्दी के सम्पूर्ण विकास के लिए हम यह संकल्प लें कि जब तक यह शरीर है, तन मन धन से सम्पूर्ण आस्था, निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास से राष्ट्रभाषा हिन्दी के रथ को आगे बढ़ाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहेंगे।
मैं हिन्दी के संदर्भ में एक ऐतिहासक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। अल्लाउदीन खिलजी ने चित्तोैड़ पर भयंकर आक्रमण किये। रावल रत्नसिंह चित्तौड़ की रक्षा करते हुए अपने सहस्त्रों सैनिकांें के साथ युद्ध भूमि मंे शहीद हो गये। नृपतविहीन गदद्ी पर शिशोदा के लक्ष्मणसिंह सिसोदिया को राणा लक्ष्मण सिंह ने शेष युद्ध को अद्भूत शूरवीरता से लड़ा किन्तु पराजय का समय सन्निकट दिखाई दे रहा था।
एक रात वे किले में जागते हुए अर्द्ध निद्रित से सो रहे थे। दीपक की मद्धिम लौ में से चित्तौड़ की अधिष्ठावी देवी माँ कालिका प्रकट होकर बोली- मैं भूखी हूं। राणा हड़बड़ा कर उठ बैठे और प्रमाणित होकर बोले- माँ।
तू सहस्त्रों वीरों का रक्त पी चुकी है, फिर तेरी क्षुधा कैसी?
‘‘मैं राजसीरक्त चाहती हूँ।’’ महादेवी ने कहा।
‘ऐसा ही होगा माँ,’ राणा ने कहा- ‘कल से मेरे पुत्र एक के बाद एक राज सिंहासन पर बैठेंगे और खिलजी की सेना से युद्ध करंेगे।’
ऐसा ही किया गया। नौ राजकुमार क्रमशः राणा बनकर एक के बाद एक देश पर बलिदान हो गए। अन्त में राणा लक्ष्मण सिंह भी युद्ध में मारे गये।
हमारी हिन्दी पर भी काले अंग्रेजो ने आधिपत्य जमा रखा है।
उसकी रक्षा के लिए आज राजरक्त की आवश्यकता है। आज संस्थाओं के उच्च पदस्थ व्यक्ति ही राजरक्त के अन्तर्गत आते हैं। यदि हिन्दी कोे सिंहासनसीन करनी है तो किसी को बलिदान देना होगा
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