एक सैनिक जिसने अकेले 300 चीनी सैनिक को मार गिराया
lance nayak jaswant singh who killed 300 chinese soldiers
अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में नूरांग में बाबा जसवंत सिंह ने वो ऐतिहासिक जंग लड़ी थी। वो 1962 की जंग का आखिरी दौर था।
चीनी सेना हर मोर्चे पर हावी हो रही थी। लिहाजा भारतीय सेना ने नूरांग में तैनात गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुलाने का आदेश दे दिया।
पूरी बटालियन लौट गई, लेकिन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसाईं नहीं लौटे। बाबा जसवंत ने पहले त्रिलोक और गोपाल
सिंह के साथ और फिर दो स्थानीय लड़कियों की मदद से चीनियों के साथ मोर्चा लेने की रणनीति तैयार की। बाबा जसवंत सिंह ने अलग अलग जगह पर
राईफल तैनात कीं और इस अंदाज में फायरिंग करते गए मानो उनके साथ बहुत सारे सैनिक वहां तैनात हैं। उनके साथ केवल दो स्थानीय लड़कियां थीं,
जिनके नाम थे, सेला और नूरा।
चीनी परेशान हो गए और तीन यानी 72 घंटे तक वो ये नहीं समझ पाए कि उनके साथ अकेले जसवंत सिंह मोर्चा लड़ा रहे हैं।
तीन दिन बाद जसवंत सिंह को रसद आपूर्ति करने वाली नूरा को चीनियों ने पकड़ लिया। इसके बाद उनकी मदद कर रही दूसरी लड़की सेला पर
चीनियों ने ग्रेनेड से हमला किया और वह शहीद हो गई, लेकिन वो जसवंत तक फिर भी नहीं पहुंच पाए। बाबा जसवंत ने खुद को गोली मार ली।
भारत माता का ये लाल नूरांग में शहीद हो गया।
बताया जाता है कि उस जंग में 300 चीनी सैनिक मारे गये लांस नायक जसवंत सिंह के द्वारा भले ही भारत उस जंग में हार गया हो लैकिन
चीनी सेना अकेले एक जसवंत सिंह से हार गयी
चीनी सेना भी सम्मान करती है शहीद जसवंत का
चीनी सैनिकों को जब पता चला कि उनके साथ तीन दिन से अकेले जसवंत सिंह लड़ रहे थे तो वे हैरान रह गए।
चीनी सैनिक उनका सिर काटकर अपने देश ले गए। 20 अक्टूबर 1962 को संघर्ष विराम की घोषणा हुई।
चीनी कमांडर ने जसवंत की बहादुरी की लोहा माना और सम्मान स्वरूप न केवल उनका कटा हुआ सिर वापस लौटाया बल्कि कांसे की मूर्ति भी भेंट की
उस शहीद के स्मारक पर भारतीय-चीनी झुकाते है सर
जिस जगह पर बाबा जसवंत ने चीनियों के दांत खट्टे किए थे उस जगह पर एक मंदिर बना दिया गया है। इस मंदिर में चीन की ओर से दी गई कांसे की वो मूर्ति भी लगी है। उधर से गुजरने वाला हर जनरल और जवान वहां सिर झुकाने के बाद ही आगे बढ़ता है। स्थानीय नागरिक और नूरांग फॉल जाने वाले पर्यटक भी बाबा से आर्शीवाद लेने के लिए जाते हैं। वो जानते हैं बाबा वहां हैं और देश की सीमा की सुरक्षा कर रहे हैं। वो जानते हैं बाबा शहीद हो चुके हैं, वो जानते हैं बाबा जिंदा हैं, बाबा अमर हैं।
1962 में शहीद भारतीय फौजी, जो आज भी दे रहा ड्यूटी
महावीर चक्र विजेता शहीद जसवंत सिंह रावत उनको सुबह तड़के साढ़े चार बजे बेड टी दी जाती है. उन्हें नौ बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना भी मिलता है.चौबीस घंटे उनकी सेवा में भारतीय सेना के पाँच जवान लगे रहते हैं. उनका बिस्तर लगाया जाता है, उनके जूतों की बाक़ायदा पॉलिश होती है और यूनिफ़ॉर्म भी प्रेस की जाती है,लोग जब सुबह उसे देखते थे तो ऐसा प्रतीत होता कि किसी व्यक्ति ने उन पोशाकों और जूतों का इस्तेमाल किया है।इतनी आरामतलब ज़िंदगी है बाबा जसवंत सिंह रावत की, लेकिन आपको ये जानकर अजीब लगेगा कि वे इस दुनिया में नहीं हैं. जसवंत सिंह लोहे की चादरों से बने जिन कमरों में रहा करते थे, वही स्मारक का मुख्य केंद्र बना.गुवाहाटी से तवांग जाने के रास्ते में लगभग 12,000 फीट की ऊंचाई पर बना जसवंत युद्ध स्मारक भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध में शहीद हुए महावीर चक्र विजेता सूबेदार जसवंत सिंह रावत के शौर्य व बलिदान की गाथा बयां करता है। उनकी शहादत की कहानी आज भी यहां पहुंचने वालों के रोंगटे खड़े करती है और उनसे जुड़ी किंवदंतियां हर राहगीर को रुकने और उन्हें नमन करने को मजबूर करती हैं। 1962 के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए जसवंत सिंह की शहादत से जुड़ी सच्चाई बहुत कम लोगों को पता हैं। उन्होंने अकेले 72 घंटे चीनी सैनिकों का मुकाबला किया और विभिन्न चौकियों से दुश्मनों पर लगातार हमले करते रहे। जब चीनी सैनिकों ने देखा कि एक अकेले सैनिक ने तीन दिनों तक उनकी नाक में दम कर रखा था तो इस खीझ में चीनियों ने जसवंत सिंह को बंधक बना लिया और जब कुछ न मिला तो टेलीफोन तार के सहारे उन्हें फांसी पर लटका दिया। फिर उनका सिर काटकर अपने साथ ले गए। जसवंत सिंह ने इस लड़ाई के दौरान कम से कम 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारा था। जसवंत सिंह की इस शहादत को संजोए रखने के लिए 19 गढ़वाल राइफल ने यह युद्ध स्मारक बनवाया। स्मारक के एक छोर पर एक जसवंत मंदिर भी बनाया गया है। जसवंत की शहादत के गवाह बने टेलीफोन के तार और वह पेड़ जिस पर उन्हें फांसी से लटकाया गया था, आज भी मौजूद है। यह जसवंत सिंह की वीरता ही थी कि भारत सरकार ने उनकी शहादत के बाद भी सेवानिवृत्ति की उम्र तक उन्हें उसी प्रकार से पदोन्नति दी, जैसा उन्हें जीवित होने पर दी जाती थी। भारतीय सेना में अपने आप में यह मिसाल है कि शहीद होने के बाद भी उन्हें समयवार पदोन्नति दी जाती रही। मतलब वह सिपाही के रूप में सेना से जुड़े और सूबेदार के पद पर रहते हुए शहीद हुए लेकिन सेवानिवृत्त लगभग 40 साल बाद हुए नमन ऐसी पुण्यात्मा को ”वन्दे मातरम्”
1962 में चीन ने भारत को करारी शिकस्त दी थी, लेकिन उस युद्ध में हमारे देश कई जांबाजों ने अपने लहू से गौरवगाथा लिखी थी। आज 1962 वॉर की 50वीं बरसी है और हम एक ऐसे शहीद की बात करेंगे, जिसका नाम आने पर न केवल भारतवासी बल्कि चीनी भी सम्मान से सिर झुका देते हैं। वो मोर्चे पर लड़े और ऐसे लड़े कि दुनिया हैरान रह गई, इससे भी ज्यादा हैरानी आपको ये जानकर होगी कि 1962 वॉर में शहीद हुआ भारत माता का वो सपूत आज भी ड्यूटी पर तैनात है।
आज भी होती है प्रमोशन
उनकी सेना की वर्दी हर रोज प्रेस होती है, हर रोज जूते पॉलिश किए जाते हैं। उनका खाना भी हर रोज भेजा जाता है और वो देश की सीमा की सुरक्षा आज भी करते हैं। सेना के रजिस्टर में उनकी ड्यूटी की एंट्री आज भी होती है और उन्हें प्रमोश भी मिलते हैं। अब वो कैप्टन बन चुके हैं। इनका नाम है- कैप्टन जसवंत सिंह रावत। महावीर चक्र से सम्मानित फौजी जसवंत सिंह को आज बाबा जसवंत सिंह के नाम से जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के जिस इलाके में जसवंत ने जंग लड़ी थी उस जगह वो आज भी ड्यूटी करते हैं और भूत प्रेत में यकीन न रखने वाली सेना और सरकार भी उनकी मौजूदगी को चुनौती देने का दम नहीं रखते। बाबा जसवंत सिंह का ये रुतबा सिर्फ भारत में नहीं बल्कि सीमा के उस पार चीन में भी है।
अब बनेगी फिल्म
दून के शहीद पर अब फिल्म बनने जा रही है। एंफीगौरी फिल्म बनाने के बाद अब मुंबई से लौटे अविनाश इसी प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। अविनाश ध्यानी ने बताया कि वे अपने पिता के मुंह से हमेशा से जसवंत सिंह के बहादुरी के किस्से सुनता रहा हूं यही वजह है कि मैंने इस पर फि ल्म बनने की सोची।
lance nayak jaswant singh who killed 300 chinese soldiers
अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में नूरांग में बाबा जसवंत सिंह ने वो ऐतिहासिक जंग लड़ी थी। वो 1962 की जंग का आखिरी दौर था।
चीनी सेना हर मोर्चे पर हावी हो रही थी। लिहाजा भारतीय सेना ने नूरांग में तैनात गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुलाने का आदेश दे दिया।
पूरी बटालियन लौट गई, लेकिन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसाईं नहीं लौटे। बाबा जसवंत ने पहले त्रिलोक और गोपाल
सिंह के साथ और फिर दो स्थानीय लड़कियों की मदद से चीनियों के साथ मोर्चा लेने की रणनीति तैयार की। बाबा जसवंत सिंह ने अलग अलग जगह पर
राईफल तैनात कीं और इस अंदाज में फायरिंग करते गए मानो उनके साथ बहुत सारे सैनिक वहां तैनात हैं। उनके साथ केवल दो स्थानीय लड़कियां थीं,
जिनके नाम थे, सेला और नूरा।
चीनी परेशान हो गए और तीन यानी 72 घंटे तक वो ये नहीं समझ पाए कि उनके साथ अकेले जसवंत सिंह मोर्चा लड़ा रहे हैं।
तीन दिन बाद जसवंत सिंह को रसद आपूर्ति करने वाली नूरा को चीनियों ने पकड़ लिया। इसके बाद उनकी मदद कर रही दूसरी लड़की सेला पर
चीनियों ने ग्रेनेड से हमला किया और वह शहीद हो गई, लेकिन वो जसवंत तक फिर भी नहीं पहुंच पाए। बाबा जसवंत ने खुद को गोली मार ली।
भारत माता का ये लाल नूरांग में शहीद हो गया।
बताया जाता है कि उस जंग में 300 चीनी सैनिक मारे गये लांस नायक जसवंत सिंह के द्वारा भले ही भारत उस जंग में हार गया हो लैकिन
चीनी सेना अकेले एक जसवंत सिंह से हार गयी
चीनी सेना भी सम्मान करती है शहीद जसवंत का
चीनी सैनिकों को जब पता चला कि उनके साथ तीन दिन से अकेले जसवंत सिंह लड़ रहे थे तो वे हैरान रह गए।
चीनी सैनिक उनका सिर काटकर अपने देश ले गए। 20 अक्टूबर 1962 को संघर्ष विराम की घोषणा हुई।
चीनी कमांडर ने जसवंत की बहादुरी की लोहा माना और सम्मान स्वरूप न केवल उनका कटा हुआ सिर वापस लौटाया बल्कि कांसे की मूर्ति भी भेंट की
उस शहीद के स्मारक पर भारतीय-चीनी झुकाते है सर
जिस जगह पर बाबा जसवंत ने चीनियों के दांत खट्टे किए थे उस जगह पर एक मंदिर बना दिया गया है। इस मंदिर में चीन की ओर से दी गई कांसे की वो मूर्ति भी लगी है। उधर से गुजरने वाला हर जनरल और जवान वहां सिर झुकाने के बाद ही आगे बढ़ता है। स्थानीय नागरिक और नूरांग फॉल जाने वाले पर्यटक भी बाबा से आर्शीवाद लेने के लिए जाते हैं। वो जानते हैं बाबा वहां हैं और देश की सीमा की सुरक्षा कर रहे हैं। वो जानते हैं बाबा शहीद हो चुके हैं, वो जानते हैं बाबा जिंदा हैं, बाबा अमर हैं।
1962 में शहीद भारतीय फौजी, जो आज भी दे रहा ड्यूटी
महावीर चक्र विजेता शहीद जसवंत सिंह रावत उनको सुबह तड़के साढ़े चार बजे बेड टी दी जाती है. उन्हें नौ बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना भी मिलता है.चौबीस घंटे उनकी सेवा में भारतीय सेना के पाँच जवान लगे रहते हैं. उनका बिस्तर लगाया जाता है, उनके जूतों की बाक़ायदा पॉलिश होती है और यूनिफ़ॉर्म भी प्रेस की जाती है,लोग जब सुबह उसे देखते थे तो ऐसा प्रतीत होता कि किसी व्यक्ति ने उन पोशाकों और जूतों का इस्तेमाल किया है।इतनी आरामतलब ज़िंदगी है बाबा जसवंत सिंह रावत की, लेकिन आपको ये जानकर अजीब लगेगा कि वे इस दुनिया में नहीं हैं. जसवंत सिंह लोहे की चादरों से बने जिन कमरों में रहा करते थे, वही स्मारक का मुख्य केंद्र बना.गुवाहाटी से तवांग जाने के रास्ते में लगभग 12,000 फीट की ऊंचाई पर बना जसवंत युद्ध स्मारक भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध में शहीद हुए महावीर चक्र विजेता सूबेदार जसवंत सिंह रावत के शौर्य व बलिदान की गाथा बयां करता है। उनकी शहादत की कहानी आज भी यहां पहुंचने वालों के रोंगटे खड़े करती है और उनसे जुड़ी किंवदंतियां हर राहगीर को रुकने और उन्हें नमन करने को मजबूर करती हैं। 1962 के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए जसवंत सिंह की शहादत से जुड़ी सच्चाई बहुत कम लोगों को पता हैं। उन्होंने अकेले 72 घंटे चीनी सैनिकों का मुकाबला किया और विभिन्न चौकियों से दुश्मनों पर लगातार हमले करते रहे। जब चीनी सैनिकों ने देखा कि एक अकेले सैनिक ने तीन दिनों तक उनकी नाक में दम कर रखा था तो इस खीझ में चीनियों ने जसवंत सिंह को बंधक बना लिया और जब कुछ न मिला तो टेलीफोन तार के सहारे उन्हें फांसी पर लटका दिया। फिर उनका सिर काटकर अपने साथ ले गए। जसवंत सिंह ने इस लड़ाई के दौरान कम से कम 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारा था। जसवंत सिंह की इस शहादत को संजोए रखने के लिए 19 गढ़वाल राइफल ने यह युद्ध स्मारक बनवाया। स्मारक के एक छोर पर एक जसवंत मंदिर भी बनाया गया है। जसवंत की शहादत के गवाह बने टेलीफोन के तार और वह पेड़ जिस पर उन्हें फांसी से लटकाया गया था, आज भी मौजूद है। यह जसवंत सिंह की वीरता ही थी कि भारत सरकार ने उनकी शहादत के बाद भी सेवानिवृत्ति की उम्र तक उन्हें उसी प्रकार से पदोन्नति दी, जैसा उन्हें जीवित होने पर दी जाती थी। भारतीय सेना में अपने आप में यह मिसाल है कि शहीद होने के बाद भी उन्हें समयवार पदोन्नति दी जाती रही। मतलब वह सिपाही के रूप में सेना से जुड़े और सूबेदार के पद पर रहते हुए शहीद हुए लेकिन सेवानिवृत्त लगभग 40 साल बाद हुए नमन ऐसी पुण्यात्मा को ”वन्दे मातरम्”
1962 में चीन ने भारत को करारी शिकस्त दी थी, लेकिन उस युद्ध में हमारे देश कई जांबाजों ने अपने लहू से गौरवगाथा लिखी थी। आज 1962 वॉर की 50वीं बरसी है और हम एक ऐसे शहीद की बात करेंगे, जिसका नाम आने पर न केवल भारतवासी बल्कि चीनी भी सम्मान से सिर झुका देते हैं। वो मोर्चे पर लड़े और ऐसे लड़े कि दुनिया हैरान रह गई, इससे भी ज्यादा हैरानी आपको ये जानकर होगी कि 1962 वॉर में शहीद हुआ भारत माता का वो सपूत आज भी ड्यूटी पर तैनात है।
आज भी होती है प्रमोशन
उनकी सेना की वर्दी हर रोज प्रेस होती है, हर रोज जूते पॉलिश किए जाते हैं। उनका खाना भी हर रोज भेजा जाता है और वो देश की सीमा की सुरक्षा आज भी करते हैं। सेना के रजिस्टर में उनकी ड्यूटी की एंट्री आज भी होती है और उन्हें प्रमोश भी मिलते हैं। अब वो कैप्टन बन चुके हैं। इनका नाम है- कैप्टन जसवंत सिंह रावत। महावीर चक्र से सम्मानित फौजी जसवंत सिंह को आज बाबा जसवंत सिंह के नाम से जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के जिस इलाके में जसवंत ने जंग लड़ी थी उस जगह वो आज भी ड्यूटी करते हैं और भूत प्रेत में यकीन न रखने वाली सेना और सरकार भी उनकी मौजूदगी को चुनौती देने का दम नहीं रखते। बाबा जसवंत सिंह का ये रुतबा सिर्फ भारत में नहीं बल्कि सीमा के उस पार चीन में भी है।
अब बनेगी फिल्म
दून के शहीद पर अब फिल्म बनने जा रही है। एंफीगौरी फिल्म बनाने के बाद अब मुंबई से लौटे अविनाश इसी प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। अविनाश ध्यानी ने बताया कि वे अपने पिता के मुंह से हमेशा से जसवंत सिंह के बहादुरी के किस्से सुनता रहा हूं यही वजह है कि मैंने इस पर फि ल्म बनने की सोची।
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