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पुस्तक प्रेमी बनने से तो अच्छा था किसी फिल्मी कलाकार की प्रेमिका बन जाती जिससे अपने आप प्रसिद्धि मिलती। खैर अभी कुछ बिगड़ा नहीं है प्रयास करने पर सफलता जरूर हाथ लगेगी। प्रेमिका बनने पर निश्चित ही किस्मत खुलेगी। अब इन पुस्त्कों में पुरानी बातों के अलावा रखा ही क्या है। आज के इस अत्याधिक आधुनिक युग में सदा नवीन चाहिए। प्रेमी भी सुन्दर, सुशील और हसीन चाहिए। फटी पुरानी पुस्तकें पढऩे से भला क्या हासिल होगा। नये प्यार को पाने का प्रयत्न भी करना चाहिए। हमारी ज्ञानवर्धक बातें पड़ोसन के मन में मस्तिषक में भला कैसे बैठती उसमें तो पहले से ही जमाने भर का कचरा भरा है। पुस्तक पढऩे की लत में इसकी मत भी मारी गई। प्रत्येक पुस्तक को अपने पास संजोकर रखने वाली सर्वश्रेष्ठ पाठिका बिल्कुल श्रीकृष्ण की राधिका जैसी लगती है। जबकि राधा-कृष्ण का प्रेम अनूठा था मगर पडोसन का प्यार आधा सच्चा, आधा झूठा है। यदि सच्चा प्यार होता तो घर में एक बच्चा भी होता। बाल बच्चे को छोडिये बेचारे पतिदेव की परवाह भी नही की।
पुस्तक के पूरे पाठ तो कभी पढेे नहीं सिर्फ शीर्षक पढऩे से सम्पूर्ण सबक का ज्ञान कहां से प्राप्त होता फिर भी पुस्तक प्रेमी पड़ोसन जबरन अपना नाम गिनीज बुक में लिखाने को तुली है। अब सरकार भी क्या करे वह स्वयं मिलीजुली है। पुस्तक प्रेमी का सर्वोच्च सम्मान पाने को आतुर पड़ोसन ने पिछली बार को सरकार को गिराने की ठाल ली थी। बाद में बहुत सी बेकार की बातें मान ली थी। जिससे सरकार बच गई वरना कब की बदल जाती। वैसे भी पड़ोसन का प्रभाव आम जनता पर कम अपने पति पर ज्यादा पड़ता है। तभी तो बेचारा हर फरमाईश पूरी करता है। करवा चौथ को सैकड़ो पुस्तकें अपनी पत्नि को सौप कर यही सोचते रहा कि पुस्तक रूपी सौत मेरी पत्नि की जगह मेरे जीवन में न जाने कहां से आ गई। कितनी भी घटिया किताब क्यों न हो किन्तु इसके मन को सहज की भा गई। अब मैं क्या करूं कुछ समझ नहीं आता। पत्निव्रत को भलीभांति निभाते हुए पड़ोसी वीरगति को प्राप्त हुआ पर पड़ोसन में कोई परिवर्तन नही। पुस्तक के पीछे पागल होते जा रही है ऊसर से मोहल्ले वालो का दिमाग खा रही है। हमें क्या फर्क पडेगा हमने तो इसे स्वतन्त्र छोड़ रखा है जिसने कुछ भला हमारा भी हो सके। दिन-रात पुस्तक पढऩे से हमारा यही फायदा है कि इन्हें लडऩे झगडऩे का अवसर नहीं मिल पाता वरना बिना लडाई झगडैे के कोई पड़ोसन आज तक कभी चुपचाप बैठी है। भला हो भगवान का जो ऐसी भाग्यवान, ज्ञानवान पडोसन प्रदान की जो कम से कम मौन व्रत का पालन तो करती है। लड़ती है न झगडती है सिर्फ पुस्तक पढ़ती है। पढे लिखे होने का गर्व हमें कभी महसूस नहीं हुआ परन्तु पड़ोसन पर अभिमान जरूर होता है। जबकि हर इन्सान अच्छी पड़ोसन को पाने के चक्कर में अवश्य पीटता है। कुछ लिखता भी है तो कोई पढ़ता नहीं पढऩे वाली पुस्तक प्रेमी पड़ोसन बड़े भाग्य से मिलती है। यदि मिल जाए तो समझ लेना खुल गई किस्मत। किस्मत के धनी मेरे जैसे लोग शायद ही कही मिले इसलिए मिलने का समय निर्धारित कर दिया है। सुबह 8 से 10, शाम 7 से 9। रात्रि नौ के बाद नौ दो ग्यारह हो जाते हैं फिर नजर किसी को नही आते हैं। शायद पड़ोसन से इश्क फरमाते हैं।
रामचरण यादव =याददाश्त=
बैतूल
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