पिछले दिनों हरियाणा मंे एक छोटी सी परन्तु बड़े ऐतिहासिक महत्त्व की घटना हुई। सरकार ने गुड़गाँव का नाम बदल कर गुरु ग्राम कर दिया। भाषा के दृष्टिकोण से गुड़गांव अशुद्ध है, अपभ्रंश है। निश्चय ही सरकार का उद्देश्य इसके ऐतिहासिक महत्त्व को उजागर करना भी रहा होगा। इस पर दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ सुनने को मिलीं। आधुनिक पढ़े लिखे युवाओं की प्रतिक्रिया थी- नाम बदलने से क्या रोजगार मिल जाएगा? नाम बदलने से क्या होता है? दूसरी प्रतिक्रिया यह थी- टेलीविजन पर एक परिचर्चा के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय की एक प्रोफेसर कह रही थीं- ठीक है, यह (महाभारत का इतिहास) एक साहित्य है, हम भी इसे पढ़ते हैं साहित्य के रूप में- यह कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है।
आधुनिक शिक्षा पद्धति से शिक्षित इतिहासकार इस पक्ष के हैं कि भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास एक मिथक मात्र है। रामायण और महाभारत को मिथक मानना इसी प्रवंचना का एक हिस्सा है। वाल्मीकीय रामायण भारतीय परम्परा में एक आर्ष ग्रंथ है, जिसे आप्त वचन के रूप में प्रमाण माना जाता है। यद्यपि इसमें समय समय पर अनेक प्रक्षेप हुए हैं, तथापि यह भारतीय इतिहास का एक प्रमुख स्रोत है। इसको मिथक कहना पाश्चात्य, यहूदी ईसाई पक्षपाती इतिहासकारों के लिए आवश्यक था। क्योंकि उन्हें अपनी यह बात मनवानी थी कि भारतवर्ष और इसकी संस्कृति उतनी प्राचीन नहीं है जितना भारत के लोग मानते हैं। और उन्हें इस तथ्य को भी दबाना था कि भारतवर्ष विद्या का आदि स्रोत है। पिछली दो पीढि़यों के आधुनिक शिक्षा पद्धति से शिक्षित इतिहासकारों ने वही सब पढ़ा है जो इन्हें आजादी के बाद पढ़ाया गया है। पश्चिमी लोगों ने भारत के लोगों को हमेशा के लिए गुलाम बनाए रखने के लिए जो षड्यंत्र रचा था, वह भारत के कम्युनिष्ट विचारधारा के लोगों के अनुकूल था, क्योंकि उनके संस्थापक ने कहा था कि ‘भारतवर्ष का अपना कोई इतिहास नहीं है।’ इस झूठ को प्रमाणित करने के लिए उन्हें पाश्चात्यों का पका पकाया माल मिल गया। ‘शत्रु का शत्रु मित्र होता है।’ इस नीति के अनुसार उन्होंने उन सब बातों को स्वीकार कर लिया जो भारतीय संस्कृति के मूल पर कुठाराघात करती थीं। यदि ये पक्षपात रहित होते और इन्हें विदेशियों की बात ही ज्यादा अच्छी लगती होती तो ये फ्रैंच विद्वान् लुई जैकेल्यो की बात भी मानते जिन्होंने वर्षों भारत में रहकर यहाँ की संस्कृति ओैर इतिहास का अध्ययन किया और इस भूमि को विश्व सभ्यता का पालना लिखा। (बाईबिल इन इण्डिया)
आश्चर्य तो इस बात का है कि 150-200 वर्ष पहले तक रामायण, महाभारत व इसके इतिहास को किसी ने काल्पनिक नहीं माना। राम का काल त्रेता और द्वापर की सन्धि में था। वर्तमान में अट्ठाईसवीं चतुर्युगी का कलयुग चल रहा है। यदि राम को इसी 28 वें त्रेता और द्वापर की सन्धि में हुआ माना जाए तो राम को कम से कम 864000 (आठ लाख चैंसठ हजार वर्ष) होते हैं। किन्तु यह तो दुर्जनतोष न्याय है। भारतीय इतिहास के अनुसार रामायण का काल करोड़ों वर्ष पूर्व का है। वायु पुराण 70/48 ‘त्रेतायुगे चतुर्विंशे--’ के अनुसार राम चैबीसवें त्रेतायुग में हुए हैं। इस प्रकार राम को एक करोड़, इक्यासी लाख, पचास हजार वर्ष ;1,81,50000 हो चुके हैं।
हमारे देश में, और इस देश से सैंकड़ों/सहस्रों वर्ष पूर्व जाकर दूसरे देशों में रहने वाले इस देश के लोगों के बीच में राम का जन्मदिन रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। इसी मास में हनुमान जयन्ती भी मनाई। क्या कभी किसी काल्पनिक उपन्यास के पात्रों का जन्मदिन भी मनाया जाता है। क्या कभी किसी ने शरत् के ‘देवदास’ प्रेमचन्द्र की ‘निर्मला’ या जंगल बुक के ‘मोगली’ या ‘हैरी पाॅटर’ का जन्मदिन भी मनाया है?
ऐतिहासिक प्रमाणों के संदर्भ में इस प्रकार के इतिहासकारों को स्वामी दयानन्द ने मुंह तोड़ उत्तर दिया है। आर्यों के इस देश पर आक्रमण के झूठ के संदर्भ में वे लिखते हैं- किसी संस्कृत ग्रंथ में नहीं लिखा-- पुनः विदेशियों की बात कैसे माननीय हो सकती है।’ भारतीय इतिहास के अपने संदर्भ हैं और वे कुछ हद तक अब भी सुरक्षित हैं। गैर भारतीय संदर्भों से भारतीय इतिहास को समझने का प्रयास करना ऐसा ही है जैसे साईकिल पर बैठकर चांद पर पहुंचने का प्रयास करना। जब आर्यावत्र्त इतिहास बना रहा था, तब तक तो उनको लिखना भी नहीं आता था, और उन्होंने एक स्थान पर घर बनाकर रहना भी नहीं सीखा था।
ये पूर्वाग्रही इतिहासकार इतिहास की ‘वैज्ञानिक दृष्टि’ का बड़ा नाम लेते हैं, उस पर विचार कर लिया जाए कि वह वैज्ञानिक दृष्टि क्या है? भारतीय साहित्य में प्राप्त सहस्रों उल्लेखों को मिथक मानने वाले पाश्चात्य और माक्र्सवादी विचार के लोग स्वयं ही अवैज्ञानिक और दुराग्रही सिद्ध होते हैं। उनकी दृष्टि विदेशी लेखकों के लिखे गए 5-10 ग्रंथों से बाहर नहीं जा पाती। पक्षपात दोष से भरे हुए उन विदेशी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को विकृत करने के लिए जो षड्यंत्र और प्रयत्न किए उनसे नई पीढ़ी के अधिकांश भारतीय अपरिचित ही हैं। 19 वीं शताब्दी के लगभग मध्य में (2 फरवरी 1835 को) लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद् में भारत को गुलाम बनाने में आने वाली बाद्दाओं का उल्लेख करते हुए कहा था - ‘हम भारतीयों को तब तक गुलाम बनाने में समर्थ नहीं हो सकते जब तक हम उस देश की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रीढ़ तोड़ न दें। इसलिए मैं प्राचीन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शिक्षा हटाने का सुझाव देता हूँ। जब भारतीय सोचने लगेंगे कि विदेशी सामान और अंग्रेजी भाषा उनसे श्रेष्ठ है, तब वह देश अपना आत्मसम्मान और संस्कृति खो देगा और वह वैसा बन जाएगा जैसा अद्दीनस्थ देश हमें चाहिए।’
यहूदी वस्तुतः प्राचीन आर्यों के वंशज थे। जब उनमें अविद्या फैली तो वे अपना मूल भूल गए। वे अपने आप को सर्वश्रेष्ठ जाति मानते थे। वे लोग मानने लगे थे कि ईसा से 4004 वर्ष पूर्व आदम का जन्म हुआ था। इसके लिए लाटपादरी अशर ने संसार के इतिहास का तिथिक्रम निश्चित किया था। जब उन्होंने भारतीय इतिहास की प्राचीनता के बारे में सुना तो तो उन्हें लगा कि बाईबिल की मीनार गिर पडेगी। ¼Freder Bodmer The loom of Lan guage, NewYork-1944, p-174)
आक्सफोर्ड में कर्नल बोडन द्वारा संस्कृत के लिए चेयर स्थापित की गई। इसमें कर्नल ने बहुत धन दान किया। इसने 1811 ई0 में अपने वसीयतनामे में लिखा कि उसका इस चेयर के लिए इतना अधिक धन खर्च करने का उद्देश्य यह था कि ईसाई धर्मग्रंथों का संस्कृत में अनुवाद किया जाए जिससे भारतीयों को ईसाई बनाने के कार्य में अंग्रेज आगे बढ़ें। (संस्कृत अंग्रेजी कोष- By Sir Monier Williams, Preface-1899) इस चेयर से संबंधित जिन इतिहासकारों को आज पाश्चात्य रंग में रंगे भारतीय इतिहासकार वैज्ञानिक दृष्टि वाले मानते हैं वे सब ईसाई मत के पक्षपाती थे और उनका एकमात्र उद्देश्य पारसी यहूदियों के साथ साथ भारतीय इतिहास और संस्कृति को विकृत करना था। विल्सन ने ‘हिन्दुओं की धार्मिक और दार्शनिक पद्धति’ पुस्तक में अपने अल्प ज्ञान के आधार पर भारतीय मान्यताओं का मजाक उड़ाया था। इसी प्रकार रोथ ने संवत् 1903 में वैदिक साहित्य और वेद का इतिहास नामक झूठा जाल ग्रंथ लिखा था। जान मूर का ग्रंथ The Oriental Studies उसके प्रकाशकों के अनुसार ईसाई पादरियों के लिए अत्यंत उपयोगी था।
मैक्समूलर मैकाले से प्रभावित और कृतज्ञ था। यह वही व्यक्ति है जिसने ईसाई पक्षपात के कारण वेदों को गडरियों के गीत कहा था। हालांकि बाद में स्वामी दयानन्द के प्रभाव से निरुत्तर होने के कारण इसको अपने कथन में परिवर्तन करना पड़ा था, पर इसके ईसाई पक्षपात में कोई कमी नहीं आई थी। फ्रांस के विद्वान् लुई जैकोल्यो ने संवत् 1926 में एक ग्रंथ लिखा La Bible Dans L' inde ‘भारत में बाईबिल’ जैकोल्यो ने इस ग्रंथ में (डाॅ0 भवानीलाल भारतीय द्वारा संपादित इसका संक्षिप्त संस्करण घूड़मल ट्रस्ट हिण्डौन सिटी से प्राप्य है।) यह सिद्ध किया कि भारतवर्ष ही सब देशों की विद्या और संस्कृति का मूल है। जैकोल्यो ने भारतीय ब्राह्मणों के संपर्क में भारतीय इतिहास का गंभीर अध्ययन किया था। मैक्समूलर को यह सच्चाई सहन नहीं हुई। उसने कहा-‘जैकोल्यो अवश्य ही ब्राह्मणों के धोखे में आया है।’ मैक्समूलर के अनेक पत्रव्यवहार इस बात की पुष्टि करते हैं कि वह हठी, पक्षपाती, विद्याशून्य और ईसाई मिशनरी था।
वैबर भी इसी प्रकार का पक्षपाती स्काॅलर था। हम्बोल्ट ने गीता की प्रशंसा की। वैबर के लिए यह असह्य था। उसने गीता और महाभारत को बाईबिल के बाद का सिद्ध करने के लिए कहा- ‘गीता और महाभारत पर ईसाई सिद्धान्तों का प्रभाव है।’ (The History of SKT. Literature -1914 ) लोरिंशर और हाॅपकिन्स ने भी इसी कारण महाभारत को ईसा के बाद का सिद्ध करने के लिए घोर परिश्रम किया। बंगाल के लेखक बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय लिखते हैं- ‘भारत के लिए वह अशुभ घड़ी थी, जब वैबर ने संस्कृत का अध्ययन आरम्भ किया। जर्मन लेखक यह नहीं मान सकते थे कि ईसा के जन्म से सदियों पूर्व महाभारत रचा गया।’ (कृष्णचरित, तृतीय परिच्छेद)
यहूदी अध्यापक गोल्डस्टुकर ने वैबर और विहटलिंग के संस्कृत कोश में की गई अशुद्धियों की आलोचना की तो वैबर गालियों पर उतर आया। उसने लिखा कि ‘गोल्डस्टुकर का दिमाग पूरी तरह खराब हो गया है।’ गोल्डस्टुकर ने इस रहस्य को उजागर किया कि राथ, वैबर, बिहटलिंग, कूहन आदि लेखक कृतसंकल्प हैं कि भारत का प्राचीन गौरव नष्ट किया जाए। (पाणिनी का संस्कृत साहित्य में स्थान) मोनियर विलियम्स, रुडल्फ हर्नलि, विण्टरनिट्ज आदि संस्कृत के कथित विद्वान् न तो संस्कृत विद्या से परिचित थे और न पक्षपातशून्य। स्वामी दयानन्द तो कहते हैं कि वे लोग संस्कृत पत्रों का भी ठीक से अर्थ नहीं जान सकते हैं। उनके ग्रंथों के आधार पर संस्कृत साहित्य व इतिहास का अध्ययन करने वाले भारतीय यह कैसे जान सकते हैं कि इसके पीछे कितना बड़ा षड्यंत्र काम कर रहा था। स्वामी दयानन्द ने बूहलर, मोनियर विलियम्स, रुडल्फ हर्नलि और थीबो जैसे ‘विद्वानों’ के पूर्वाग्रह को पहचान लिया था। मद्रास विश्वविद्यालय के श्री नीलकण्ठ शास्त्री भी उनके षड्यंत्र को जान गए थे। भारत सरकार के लिपि विशेषज्ञ रहे सी0 आर0 कृष्णामाचार्लु ने भी इस षड्यंत्र का संकेत प्राप्त कर लिया था।
इस प्रकार के अल्प शिक्षित, पक्षपाती, दुराग्रही, वेदज्ञान शून्य ईसाई लेखकों के प्रभाव में आकर भारतवर्ष के सत्य इतिहास को मिथक या कल्पना कहने वाले मिथ्या अभिमानी लोग अपने आप को वैज्ञानिक दृष्टि वाला मानते हैं। भारत की आजादी के बाद भी यह ऐतिहासिक द्दोखाद्दड़ी निर्बाध जारी रही।
राष्ट्रवादियों के लिए यह गंभीर चिंतन का समय है। प्रश्न केवल राम या गुरुग्राम का नहीं है। यह प्रश्न भारतवर्ष के पूरे अस्तित्त्व का है। स्वामी दयानन्द ने वेदों के यथार्थ भाष्य पंजाब विवि में लागू करने का प्रयास किया, उसे सिरे नहीं चढ़ने दिया गया। इतिहासकार पं0 भगवद्दत्त ने पं0 नेहरू से इतिहास की धूर्तता की पोल खोलने के लिए पाश्चात्य प्रभाव से ग्रसित इतिहासकारों से खुली बहस करवाने की चुनौती दी, वह भी नहीं हो सका। आज यह स्थिति हो गई कि हमारे आदर्श पुरुष राम और कृष्ण भी काल्पनिक हो गए। संस्कृत के अध्ययन का निरन्तर हतोत्साहन इसी का हिस्सा है। यही कारण है कि आज की पीढ़ी कहती है कि नाम बदलने से क्या रोटी मिल जायेगी? स्वामी दयानन्द ने कहा था- कर्महीन तो हुए, नामहीन भी क्यों होते हो? भारत के लिए उसके अतीत का प्रश्न उसके भविष्य का प्रश्न भी है।
आधार
पं0 भगवद्दत्त: भारतवर्ष का बृहद् इतिहास
वैदिक वाङ्मय का इतिहास।
पण्डित लेखराम: सृष्टि का इतिहास
स्वामी दयानन्द: सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
पं0 रघुनन्दन शर्मा: वैदिक सम्पत्ति
स्वामी जगदीश्वरानन्द: वाल्मीकीय रामायण
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