यह अमूल्य मानव शरीर हमें परमपिता परमेश्वर की अपार कृपा से प्राप्त हुआ है। इसका सदुपयोग करने के लिए हमें ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप ही जीवन यापन करना चाहिए। सांसारिक कत्र्तव्यों को पूरा करते हुए हमें जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को उपेक्षित न करना चाहिए। जीवन में ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल आचरण करने से न केवल हमारा जीवन ही सुख, शांति और सफलता से व्यतीत हो सकता है, अपितु मृत्यु के उपरांत हम मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी भी बन सकते हैं। मनुष्य जीवन का उद्ïदेश्य पशुओं की तरह केवल खाना, पीना, सो जाना अथवा संतान पैदा करना ही नहीं है। शारीरिक और सामाजिक उन्नति के साथ-साथ आत्मा के स्तर को ऊ ँचा उठाना है कि मनुष्य पक्षपात रहित न्याय अर्थात धर्माचरण करता हुआ सांसारिक भौतिक वस्तुओं को साधन मात्र समझे। मनुष्य जीवन का उद्ïदेश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष जीवन का चरम लक्ष्य है। यदि मनुष्य जीवन पाकर भी मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न न किया जाए, तो जीवन व्यर्थ है। मोक्ष शब्द मुच् धातु से बना है, जिसका अर्थ है छूटना। किससे छूटना? दुखों से। यह जन्म-मरण रूप दारुण दु:ख ऐसा विचित्र दु:ख है कि मनुष्य अविद्या के कारण इसी को सुख आनंद समझता है। संसार के जितने भी भोग्य पदार्थ हैं, वे सब दु:ख मिश्रित हैं। धन सम्पत्ति, वैभव, पुत्र परिवार आदि सुख के साधन हैं, तो दुख के माध्यम भी हैं। संयोग के साथ वियोग है। सम्पन्नता के साथ विपन्नता भी है, परंतु अविद्या के कारण मनुष्य इन्ही भोगों की प्राप्ति के प्रयत्नों में अपना जीवन खपा देता है, पर उसकी तृष्णा कभी शांत नहीं होती।
आनंद स्वरूप परमेश्वर के आनंद के समक्ष ये भौतिक सुख-सुविधाएं कोई महत्त्व नहीं रखती। परमेश्वर के आनंद अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए चित्त की वृत्तियों को मोड़ देने की आवश्यकता पड़ती है। चित्त हमारे अंत:करण का एक भाग है, जिस पर हमारे जन्म-जन्मांतर के विचारों, कर्मों के संस्कार हैं। इनके कारण वह चंचलतापूर्वक उन-उन प्रवृत्तियों की ओर हमें अग्रसर करता है। ये चित्त की वृत्तियां बड़ी विचित्र हैं। इनको ऋषियों ने दो वर्गों में बांटा है- क्लिष्ट और अक्लिष्ट। क्लिष्ट अर्थात क्लेशों, दु:खों की ओर ले जाने वाली। अक्लिष्ट अर्थात् दु:खों से छुटकारा दिलाने वाली। इन दोनों प्रकार की वृत्तियों को निरुद्ध करने का नाम योग है। 'योगश्चित्त वृत्तिनिरोध:Ó। महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अंग बताए हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें से प्रथम दो अंग तो साधक की उच्च नैतिक स्थिति से संबंध रखते हैं। यम और नियम क्या हैं? ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग की अनिवार्य योग्यताएं हैं, जिनका पालन किए बिना साधक की ईश्वर प्राप्ति की ओर गति नहीं हो सकती। यम पांच हैं- तत्राहिंंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा: यमा:।। अहिंसा- अर्थात् किसी के प्रति मन में भी वैर भाव न रखना। सत्य- जो वस्तु जैसी है, उसके प्रति वैसा ही दृष्टिकोण रखना। अस्तेय- स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु का उपयोग न करना। ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्मप्राप्ति, विद्याप्राप्ति और वीर्यरक्षा। अपरिग्रह अर्थात अपनी आवश्यकता से अधिक संचय न करना। शौच- अंदर और बाहर की शुद्धि, संतोष अर्थात् पूर्ण पुरुषार्थ के पश्चात् ईश्वर कृपा से जो कुछ प्राप्त हो, उसमें संतुष्ट रहना, तप अर्थात- सुख-दु:ख, हानि लाभ, प्रतिकूल-अनुकूल परिस्थितियों में समान अवस्था में रहने का प्रयत्न करना। स्वाध्याय अर्थात् वेद-शास्त्रों और ऋषि मुनियों के बनाए हुए, आत्मा को ऊंचा उठाने वाले उत्तम ग्रंथों का अध्ययन करना, अपनी आंतरिक व व्यावहारिक स्थिति के बारे में चिंतन करते रहना। ईश्वर-प्रणिधान अर्थात् ईश्वर के प्रति समर्पण भाव। संसार में जितने भी भोग्य पदार्थ हैं, प्राप्त हुए हैं, वे सब परमेश्वर की अपार कृपा से ही प्राप्त हुए हैं, इस प्रकार की भावना रखते हुए सदा ईश्वर के प्रति धन्यवादी होना। ये यम और नियम मनुष्य के जीवन को सफल और सुखमय बनाते हैं और योग प्राप्ति का अधिकारी भी बनाते हैं। इनका यथावत् पालन करने से ही व्यक्ति योग के शेष अंगों की सिद्धि कर सकता है।
मनुष्य के सामने दो स्थितियां हैं- एक तो सांसारिक सुख, सुविधाओं, विषय-वासनाओं और कुप्रवृत्तियों का मार्ग है, जो देखने में अच्छा है, किंतु इसका परिणाम अत्यंत दुखदायी होता है। इसे प्रेय मार्ग कहते हैं। दूसरा मार्ग योग और मोक्ष का मार्ग है, जो कण्टकाकीर्ण और ऊबड़-खाबड़ दिखाई देता है, परंतु इसका परिणाम परमेश्वर के साक्षात्कार द्वारा मोक्ष के आनंद को प्राप्त करना है- इसे श्रेय मार्ग कहते हैं। श्रेय मार्ग ही परम-पुरुषार्थ है।
अब प्रश्र उठता है कि क्या सांसारिक सुख-सुविधा जुटाने और उनका उपयोग करने में पाप है? इसका समाधान भी वेद भगवान प्रस्तुत करते हैं- ''तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:ÓÓ (यजु.) अर्थात समस्या उपभोग की नहीं, समस्या आसक्ति की है। जब हम परमेश्वर की कृपा से प्राप्त साधनों का मालिक स्वयं को समझने लगते हैं, तो हमारी प्रवृत्तियां बिगड़ती हैं, इसलिए परमेश्वर का आदेश है कि तुम भोग तो करो पर त्याग भाव से भोग करो। एक तो यह समझें कि यह शरीर या भोग सदा रहने वाला नहीं है, दूसरे यह परमेश्वर ने अपनी अपार कृपा से हमें प्रदान किया है। इस प्रकार की भावना बनने पर इसके दुरुपयोग का प्रश्र ही उत्पन्न नहीं होता।
आनंद स्वरूप परमेश्वर के आनंद के समक्ष ये भौतिक सुख-सुविधाएं कोई महत्त्व नहीं रखती। परमेश्वर के आनंद अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए चित्त की वृत्तियों को मोड़ देने की आवश्यकता पड़ती है। चित्त हमारे अंत:करण का एक भाग है, जिस पर हमारे जन्म-जन्मांतर के विचारों, कर्मों के संस्कार हैं। इनके कारण वह चंचलतापूर्वक उन-उन प्रवृत्तियों की ओर हमें अग्रसर करता है। ये चित्त की वृत्तियां बड़ी विचित्र हैं। इनको ऋषियों ने दो वर्गों में बांटा है- क्लिष्ट और अक्लिष्ट। क्लिष्ट अर्थात क्लेशों, दु:खों की ओर ले जाने वाली। अक्लिष्ट अर्थात् दु:खों से छुटकारा दिलाने वाली। इन दोनों प्रकार की वृत्तियों को निरुद्ध करने का नाम योग है। 'योगश्चित्त वृत्तिनिरोध:Ó। महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अंग बताए हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें से प्रथम दो अंग तो साधक की उच्च नैतिक स्थिति से संबंध रखते हैं। यम और नियम क्या हैं? ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग की अनिवार्य योग्यताएं हैं, जिनका पालन किए बिना साधक की ईश्वर प्राप्ति की ओर गति नहीं हो सकती। यम पांच हैं- तत्राहिंंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा: यमा:।। अहिंसा- अर्थात् किसी के प्रति मन में भी वैर भाव न रखना। सत्य- जो वस्तु जैसी है, उसके प्रति वैसा ही दृष्टिकोण रखना। अस्तेय- स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु का उपयोग न करना। ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्मप्राप्ति, विद्याप्राप्ति और वीर्यरक्षा। अपरिग्रह अर्थात अपनी आवश्यकता से अधिक संचय न करना। शौच- अंदर और बाहर की शुद्धि, संतोष अर्थात् पूर्ण पुरुषार्थ के पश्चात् ईश्वर कृपा से जो कुछ प्राप्त हो, उसमें संतुष्ट रहना, तप अर्थात- सुख-दु:ख, हानि लाभ, प्रतिकूल-अनुकूल परिस्थितियों में समान अवस्था में रहने का प्रयत्न करना। स्वाध्याय अर्थात् वेद-शास्त्रों और ऋषि मुनियों के बनाए हुए, आत्मा को ऊंचा उठाने वाले उत्तम ग्रंथों का अध्ययन करना, अपनी आंतरिक व व्यावहारिक स्थिति के बारे में चिंतन करते रहना। ईश्वर-प्रणिधान अर्थात् ईश्वर के प्रति समर्पण भाव। संसार में जितने भी भोग्य पदार्थ हैं, प्राप्त हुए हैं, वे सब परमेश्वर की अपार कृपा से ही प्राप्त हुए हैं, इस प्रकार की भावना रखते हुए सदा ईश्वर के प्रति धन्यवादी होना। ये यम और नियम मनुष्य के जीवन को सफल और सुखमय बनाते हैं और योग प्राप्ति का अधिकारी भी बनाते हैं। इनका यथावत् पालन करने से ही व्यक्ति योग के शेष अंगों की सिद्धि कर सकता है।
मनुष्य के सामने दो स्थितियां हैं- एक तो सांसारिक सुख, सुविधाओं, विषय-वासनाओं और कुप्रवृत्तियों का मार्ग है, जो देखने में अच्छा है, किंतु इसका परिणाम अत्यंत दुखदायी होता है। इसे प्रेय मार्ग कहते हैं। दूसरा मार्ग योग और मोक्ष का मार्ग है, जो कण्टकाकीर्ण और ऊबड़-खाबड़ दिखाई देता है, परंतु इसका परिणाम परमेश्वर के साक्षात्कार द्वारा मोक्ष के आनंद को प्राप्त करना है- इसे श्रेय मार्ग कहते हैं। श्रेय मार्ग ही परम-पुरुषार्थ है।
अब प्रश्र उठता है कि क्या सांसारिक सुख-सुविधा जुटाने और उनका उपयोग करने में पाप है? इसका समाधान भी वेद भगवान प्रस्तुत करते हैं- ''तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:ÓÓ (यजु.) अर्थात समस्या उपभोग की नहीं, समस्या आसक्ति की है। जब हम परमेश्वर की कृपा से प्राप्त साधनों का मालिक स्वयं को समझने लगते हैं, तो हमारी प्रवृत्तियां बिगड़ती हैं, इसलिए परमेश्वर का आदेश है कि तुम भोग तो करो पर त्याग भाव से भोग करो। एक तो यह समझें कि यह शरीर या भोग सदा रहने वाला नहीं है, दूसरे यह परमेश्वर ने अपनी अपार कृपा से हमें प्रदान किया है। इस प्रकार की भावना बनने पर इसके दुरुपयोग का प्रश्र ही उत्पन्न नहीं होता।
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