सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (1501 से 1556) मध्यकाल के भारतीय सम्राट थे। वह अकेले ऐसे हिन्दु योद्धा थे, जो मध्यकाल में दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान हुए। उन्होंने उत्तर भारत में बंगाल से पंजाब तक, अफगान विद्रोहियों के खिलाफ 20 युद्ध तथा अकबर के मजबूत ठिकानें आगरा व दिल्ली में अक्टूबर 1553 से 1556 तक 2 युद्ध लड़े और सबमें विजय प्राप्त की। इस लगातार विजय के कारण उनको सम्राट की उपाधि से अलंकृत किया गया।
उनका जन्म राजस्थान में जिला अलवर के मछेरी गांव के राय पूर्ण दास के यहाँ हुआ। जो पुरोहित का काम करते थे। राय पूर्ण दास 1516 में व्यापार करने के लिए मछेरी से रेवाडी आ गये। हेमू ने रेवाड़ी में ही हिन्दी, संस्कृत फारसी व अरबी में शिक्षा ग्रहण की। उनका पालन पोषण सांस्कृतिक व धार्मिक वातावरण में हुआ। उनका परिवार वल्लभी संप्रदाय का अनुयायी था।
विलक्षण प्रतिभा का परिचय देते हुए हेमू ने शेरशाह सूरी की सेना को कई प्रकार के साजो सामान की आपूर्ति प्रारंभ की। शेरशाह सूरी ने बाबर के पुत्र हुमायूं को 1540 में हरा कर उसको भारत से भागने पर विवश कर दिया था। अफगान वंश में शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात् 1540 में उनका पुत्र इस्लाम शाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उस समय हेमू न केवल रसद का, बल्कि शोरे का एक बड़ा व्यापारी बन गया था। ये शोरा वह पूर्तगालियों से आयात करता था, जो तोप के बारूद में इस्तेमाल होता था। इस व्यापार के साथ-साथ हेमू ने रेवाड़ी में प्रमुख हथियार पीतल की तोप को बनाने के लिए पीतल की ढलाई का उद्योग प्रारंभ किया।
इस्लाम शाह, जो उस समय उत्तर भारत का शासक था, ने हेमू की योग्यताओं को पहचान कर उसको सबसे बड़ा संगायी बाजार अर्थात बाजार अधीक्षक नियुक्त किया और बाजार अधीक्षक के साथ आंतरिक सुरक्षा का मुखिया अधिकारी भी नियुक्त किया। जो पद वजीर के बराबर होता था। इस्लाम शाह के बाद 1553 में उत्तर भारत में आदिलशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा और उसने हेतू को अपना प्रधानमंत्री एवं सेनानायक नियुक्त किया। ताकि उत्तर भारत के अनेक प्रदेशों में हो रहे विद्रोह को समाप्त किया जा सके। इस काल में उत्तर व पूर्वी भारत में हेमू ने अफगान विद्रोहियों के और अकबर के विरूद्ध 22 युद्ध लडे और सबमें विजय प्राप्त की। उन्होंने अपने शौर्य, साहस व युद्ध कौशल्य के कारण हिन्दु व अफगान सेनाओं में अपने प्रति अत्यंत सम्मान का स्थान प्राप्त किया। दिसंबर 1555 में हुमायूं की मृत्यु के समय हेतू बंगाल में थे और उन्होंने वहां के शासक मोहम्मद शाह को हरा दिया था। हुमायूं की मृत्यु पर उन्होंने दिल्ली का शासन बनने का विचार किया और इस विचार से अपने अफगान व राजपूत सेनानायकों को अवगर कराया तथा बंगाल से दिल्ली की ओर कूच किया। मार्ग में बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के कुछ भाग पर विजय प्राप्त की। हेमू की अनुपस्थिति में हुमायूं आगरा पर अधिकार कर चुका था और उस समय अकबर वहां गद्दी पर था। अकबर की सेना का नेतृत्व सिंकदर खां उज्बैक ने किया। सिकंदर खां उज्बैक हेमू से हराकर भाग गया और आगरा, काल्पी व बयाना क्षेत्रों पर हेमू का अधिकार हो गया। तत्पश्चात् हेमू ने 7 अक्तूबर 1556 को दिल्ली की ओर कूच किया। मात्र एक दिन की लड़ाई के पश्चात अकबर के सेनापति तरदीबेग खान ने दिल्ली को छोड़ दिया। हेमू ने पूरे राजकीय ठाट-बाट के साथ दिल्ली में प्रवेश किया और वहां पुराना किला में अफगान व राजपूत सेनानायकों की उपस्थिति में धार्मिक विधि अनुसार उनका राज्य अभिषेक हुआ और उन्होंने शताब्दियों से विदेशी शासन की गुलामी से जकड़े भारत को मुक्त कराकर विक्रमादित्य वंश को पनः स्थापित किया। उन्होंने सिक्के ढलवाये और सेना का पुर्नगठन किया तथा बिना किसी अफगान सेनानायक को हटाये हिदु अधिकारियों को निुक्त किया।
यह सब समाचार बैरम खां व अकबर, जो उस समय पंजाब मंे थे, के लिए चिंताजनक थे। उनके सेनानायकों ने उनको परामर्श दिया कि व हेमू की शक्ति का सामना नहीं कर सकते, इसलिए काबुल लौट जायें। परंतु बैरम खां ने एक मौका और लेने की जिद्द की और युद्ध की तैयारियां आरंभ हुई। 5 नवंबर 1556, को पानीपत के मैदान में युद्ध हुआ, जिसमें बैरम खां व अकबर ने भाग नहीं लिया और वे युद्ध क्षेत्र से 5 कोस अर्थात् 9 मील दूर रहें। हेमू ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्य किया। प्रारंभिक सफलताओं से ऐसा लग रहा था कि मुगल सेना भाग जायेगी कि अचानक दुर्भाग्यवश एक तीर हेमू की आंख में लगा। हेमू ने तीर निकाल दिया और लड़ना जारी रखा। परंतु धीरे-धीरे वह बेहोश हो गये और लड़ाई हार गये। उनको बेहोशों की हालत में बंदी बना लिया गया और बैरम खां के सामने पेश किया गया। अकबर ने बैरम खां के सुझाव पर गाजी बनने के लिए बेहोशी की हालम में ही हेमू का सिर काट दिया।
हेमू का सिर अफगानों को दिखाने के लिए कि वो मर चुका है काबुल भेजा गया और उनका धड़ दिल्ली में पुराना किला के सामने लटका दिया गया, जहां उन्होंने अपना राज्य अभिषेक किया था। किसी अन्य शासक ने अपने विरोधी सजा के साथ इतना बर्बरता पूर्ण व्यवहार नहीं किया जैसा अबकर ने हेमू के साथ किया। इस प्रकार एक साधारण हिन्दु की गौरवपूर्ण जीवन यात्रा समाप्त हुई। जिसने अपनी योग्यता के आधार पर न केवल मुगल साम्राज्य को उखाड़ दिया, बल्कि वह सारे हिन्दु समाज के लिए एक उदाहरण बन गया कि किस प्रकार से जीवन में अपने परिश्रम, दूरदृष्टि व कौशल्य के आधार पर कठिन से कठिन लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
हेमू की मृत्यु के पश्चात हेमू की वंश, समर्थकों एवम् संप्रदाय का दमन प्रारंभ हुआ। हजारों के सिर काट दिये गये और मृतकों की खोपडियों के मीनार बनाये गये। ये मीनार उनकी हत्याओं के 50-60 वर्ष बाद तक दिखाई देते रहे और एक विदेशी पर्यटक श्री पीटर मुण्डी जो अकबर के पुत्र जहांगीर के काल में भारत भ्रमण कर रहा था, ने अपने यात्रा संस्मरणों में उनका उल्लेख किया है। उन्होंने मीनारों केे छायाचित्र दिये हैं। इन मीनारों के चित्र दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में एवं हरियाणा के पानीपत के सेना संग्रहालय में आज भी उपलब्ध हैं। अकबर ने अपने राज्य का विस्तार व संगठन इन मीनारों की छाया में किया, जो क्रुरता व बर्बरता का भयावह चिह्न है।
उनका जन्म राजस्थान में जिला अलवर के मछेरी गांव के राय पूर्ण दास के यहाँ हुआ। जो पुरोहित का काम करते थे। राय पूर्ण दास 1516 में व्यापार करने के लिए मछेरी से रेवाडी आ गये। हेमू ने रेवाड़ी में ही हिन्दी, संस्कृत फारसी व अरबी में शिक्षा ग्रहण की। उनका पालन पोषण सांस्कृतिक व धार्मिक वातावरण में हुआ। उनका परिवार वल्लभी संप्रदाय का अनुयायी था।
विलक्षण प्रतिभा का परिचय देते हुए हेमू ने शेरशाह सूरी की सेना को कई प्रकार के साजो सामान की आपूर्ति प्रारंभ की। शेरशाह सूरी ने बाबर के पुत्र हुमायूं को 1540 में हरा कर उसको भारत से भागने पर विवश कर दिया था। अफगान वंश में शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात् 1540 में उनका पुत्र इस्लाम शाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उस समय हेमू न केवल रसद का, बल्कि शोरे का एक बड़ा व्यापारी बन गया था। ये शोरा वह पूर्तगालियों से आयात करता था, जो तोप के बारूद में इस्तेमाल होता था। इस व्यापार के साथ-साथ हेमू ने रेवाड़ी में प्रमुख हथियार पीतल की तोप को बनाने के लिए पीतल की ढलाई का उद्योग प्रारंभ किया।
इस्लाम शाह, जो उस समय उत्तर भारत का शासक था, ने हेमू की योग्यताओं को पहचान कर उसको सबसे बड़ा संगायी बाजार अर्थात बाजार अधीक्षक नियुक्त किया और बाजार अधीक्षक के साथ आंतरिक सुरक्षा का मुखिया अधिकारी भी नियुक्त किया। जो पद वजीर के बराबर होता था। इस्लाम शाह के बाद 1553 में उत्तर भारत में आदिलशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा और उसने हेतू को अपना प्रधानमंत्री एवं सेनानायक नियुक्त किया। ताकि उत्तर भारत के अनेक प्रदेशों में हो रहे विद्रोह को समाप्त किया जा सके। इस काल में उत्तर व पूर्वी भारत में हेमू ने अफगान विद्रोहियों के और अकबर के विरूद्ध 22 युद्ध लडे और सबमें विजय प्राप्त की। उन्होंने अपने शौर्य, साहस व युद्ध कौशल्य के कारण हिन्दु व अफगान सेनाओं में अपने प्रति अत्यंत सम्मान का स्थान प्राप्त किया। दिसंबर 1555 में हुमायूं की मृत्यु के समय हेतू बंगाल में थे और उन्होंने वहां के शासक मोहम्मद शाह को हरा दिया था। हुमायूं की मृत्यु पर उन्होंने दिल्ली का शासन बनने का विचार किया और इस विचार से अपने अफगान व राजपूत सेनानायकों को अवगर कराया तथा बंगाल से दिल्ली की ओर कूच किया। मार्ग में बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के कुछ भाग पर विजय प्राप्त की। हेमू की अनुपस्थिति में हुमायूं आगरा पर अधिकार कर चुका था और उस समय अकबर वहां गद्दी पर था। अकबर की सेना का नेतृत्व सिंकदर खां उज्बैक ने किया। सिकंदर खां उज्बैक हेमू से हराकर भाग गया और आगरा, काल्पी व बयाना क्षेत्रों पर हेमू का अधिकार हो गया। तत्पश्चात् हेमू ने 7 अक्तूबर 1556 को दिल्ली की ओर कूच किया। मात्र एक दिन की लड़ाई के पश्चात अकबर के सेनापति तरदीबेग खान ने दिल्ली को छोड़ दिया। हेमू ने पूरे राजकीय ठाट-बाट के साथ दिल्ली में प्रवेश किया और वहां पुराना किला में अफगान व राजपूत सेनानायकों की उपस्थिति में धार्मिक विधि अनुसार उनका राज्य अभिषेक हुआ और उन्होंने शताब्दियों से विदेशी शासन की गुलामी से जकड़े भारत को मुक्त कराकर विक्रमादित्य वंश को पनः स्थापित किया। उन्होंने सिक्के ढलवाये और सेना का पुर्नगठन किया तथा बिना किसी अफगान सेनानायक को हटाये हिदु अधिकारियों को निुक्त किया।
यह सब समाचार बैरम खां व अकबर, जो उस समय पंजाब मंे थे, के लिए चिंताजनक थे। उनके सेनानायकों ने उनको परामर्श दिया कि व हेमू की शक्ति का सामना नहीं कर सकते, इसलिए काबुल लौट जायें। परंतु बैरम खां ने एक मौका और लेने की जिद्द की और युद्ध की तैयारियां आरंभ हुई। 5 नवंबर 1556, को पानीपत के मैदान में युद्ध हुआ, जिसमें बैरम खां व अकबर ने भाग नहीं लिया और वे युद्ध क्षेत्र से 5 कोस अर्थात् 9 मील दूर रहें। हेमू ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्य किया। प्रारंभिक सफलताओं से ऐसा लग रहा था कि मुगल सेना भाग जायेगी कि अचानक दुर्भाग्यवश एक तीर हेमू की आंख में लगा। हेमू ने तीर निकाल दिया और लड़ना जारी रखा। परंतु धीरे-धीरे वह बेहोश हो गये और लड़ाई हार गये। उनको बेहोशों की हालत में बंदी बना लिया गया और बैरम खां के सामने पेश किया गया। अकबर ने बैरम खां के सुझाव पर गाजी बनने के लिए बेहोशी की हालम में ही हेमू का सिर काट दिया।
हेमू का सिर अफगानों को दिखाने के लिए कि वो मर चुका है काबुल भेजा गया और उनका धड़ दिल्ली में पुराना किला के सामने लटका दिया गया, जहां उन्होंने अपना राज्य अभिषेक किया था। किसी अन्य शासक ने अपने विरोधी सजा के साथ इतना बर्बरता पूर्ण व्यवहार नहीं किया जैसा अबकर ने हेमू के साथ किया। इस प्रकार एक साधारण हिन्दु की गौरवपूर्ण जीवन यात्रा समाप्त हुई। जिसने अपनी योग्यता के आधार पर न केवल मुगल साम्राज्य को उखाड़ दिया, बल्कि वह सारे हिन्दु समाज के लिए एक उदाहरण बन गया कि किस प्रकार से जीवन में अपने परिश्रम, दूरदृष्टि व कौशल्य के आधार पर कठिन से कठिन लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
हेमू की मृत्यु के पश्चात हेमू की वंश, समर्थकों एवम् संप्रदाय का दमन प्रारंभ हुआ। हजारों के सिर काट दिये गये और मृतकों की खोपडियों के मीनार बनाये गये। ये मीनार उनकी हत्याओं के 50-60 वर्ष बाद तक दिखाई देते रहे और एक विदेशी पर्यटक श्री पीटर मुण्डी जो अकबर के पुत्र जहांगीर के काल में भारत भ्रमण कर रहा था, ने अपने यात्रा संस्मरणों में उनका उल्लेख किया है। उन्होंने मीनारों केे छायाचित्र दिये हैं। इन मीनारों के चित्र दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में एवं हरियाणा के पानीपत के सेना संग्रहालय में आज भी उपलब्ध हैं। अकबर ने अपने राज्य का विस्तार व संगठन इन मीनारों की छाया में किया, जो क्रुरता व बर्बरता का भयावह चिह्न है।
सुधीर भार्गव
लेखक हेमू विक्रमादित्य फाऊंडेशन, रेवाड़ी, भारत के अध्यक्ष हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)
लेखक हेमू विक्रमादित्य फाऊंडेशन, रेवाड़ी, भारत के अध्यक्ष हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)
0 Comments