आज से लाखों वर्ष पूर्व मानव ने चकमक पत्थर से आग जलाना सीख लिया था। पहले मानव पत्थरों का प्रयोग हथियारों के रूप में करता था, क्योंकि जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा के लिए उसे नैसर्गिक प्रस्तरखंड ही सहज रूप में उपलब्ध थे। इन प्रस्तरखंडो से जानवरों का शिकार कर उसने अपनी भोजन की समस्या का हल भी ढूंढ निकाला। उसने पत्थरों को धारदार बनाकर उन्हें चाकू व छूरी की तरह बनाया, ताकि शिकार करते में उसे आसानी रहे। ऐसी प्रस्तरयुगीन कई हथियार दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित हैं।
ताम्रयुगीन क्षेत्र
दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में ताम्रयुगीन मानवकृतिवाले हथियार और भालेवाले हथियार भी प्रदर्शित है। ये उत्तर प्रदेश के जिला बदायूं के निकट की सोत नदी और उत्तर प्रदेश के जिला शाहजहांपुर के पास की किसी नदी से मिलते है।
संसार की ताम्रयुगीन सभ्यताओं में कुल्ली, झोब, अमरीनल और केटा की सभ्यताएं अधिक विकसित और प्रसिद्ध रही है। भारत मंे उत्तर प्रदेश का रूहेलखंड क्षेत्र प्राचीनता की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रहा है। इस क्षेत्र से मानव के प्राचीनतम पुरावशेष लगभग छह हजार वर्ष पुराने, अब तक पुरान्वेषियों को मिल पाये है। छह हजार वर्ष पूर्व अर्थात् सिंधु सभ्यता से पूर्व की सभ्यता जिसे ‘ताम्रयुगीन सभ्यता’ भी कहते हैं, किसी समय इस क्षेत्र में विकसित थी। प्रमाणस्वरूप ताम्रयुगीन सभ्यता के पुरावशेषों में वे भालेनुमा हथियार और तांबे की मानव आकृतियां महत्वपूर्ण हैं, जो गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारों से मिली हैं।
सोत नदी के तट से प्राप्त एक ताम्रयुगीन हथियार मथुरा के राजकी पुरातत्व संग्रहालय को चंदौसी पुरातत्व ‘ग्रहालय ने अभी हाल में ही भेंट किया है। यह हथियार वहां विशेष महत्व के साथ प्रदर्शित है। इसका आकार लगभग नौ इंच है और इसकी बनावट इतनी परिष्कृत है कि देखकर आश्चर्य होता है। ऐसे हथियार बिसौली के समीप से भी मिले है।
इस हथियार अथवा भालफलक का तांबा इतना शुद्ध है कि परातत्ववेता अचंभित है। यह हथियार चंदौसी संग्रहालय के संस्थापक सुरेन्द्र मोहन मिश्र को एक ग्रामीण द्वारा दिया गया था। उसे वह नदी के किनारे खेत की जुताई के दौरान मिला था और उसके फावड़े की चोट से खंडित हो गया था। अतः वर्तमान स्थिति में वह शस्त्र दो भागों में है।
जनश्रुतियों का करिश्मा
इस हथियार के समाचार जब समाचार-पत्रों में छपे तो आम जनता में कौतुहल जागा, क्योंकि संवाददाताओं ने जनश्रुतियों के आधार पर इसे भगवान राम का बाण घोषित किया था। संसद में इस पर बहस हुई और स्पष्टीकरण के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से जानकारी लेने को कहा गया। पुरातत्व विभाग ने चंदौसी संग्रहालय से इसका विवरण तार द्वारा मांगा।
कानपुर के पास बिठुर नामक स्थान पर आज भी एक मंदिर में तांबे के इन शस्त्रों की पूजा भगवान राम के बाणों के रूप में होती चली आ रही है। एक जनश्रुिित के अनुसार, ये हजारों वर्षे पहले छोडे गये भगवान राम के ही बाण है। हजारों वर्षो से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही ये मान्यताएं भारत के प्रायः उन सभी स्थानों पर प्रचलित है, जहां पर इस तरह के हथियार मिलते रहे हैं। लेखक द्वारा ताम्रयुगीन ध्वंसावशेषों की शोध के दौरान इस क्षेत्रों के ग्रामीणों ने जो जानकारियां दी हैं, उनके अनुसार उन्हें काफी पहले यहां पांच-पांच फुट बड़े शस्त्र और मानव आकृतियां मिली थी। जिन्हें उन्होंने बर्तन-विक्रेताओं को गलने के लिए दे दिया। जिन बर्तन-विक्रेताओं ने इन्हें खरीदा था, उन्होंने भी इस तथ्य की पुष्टि की है।
ताम्रयुगीन काल की कुछ तांबे की मानव सदृश आकृतियां भी संग्रहालयों को मिली है, जिनके उपयोग के विषय में अभी मतभेद है। कुछ पुराविद् इन मानवकृतियों को पूजा के उद्येश्य से बनाया गया बताते हैं, तो कुछ विद्वान इन्हें ‘बुमैरंग’ किस्म का हथियार बताते है। यह हथियार शत्रु पर प्रहार करने के बाद शिकारी के पास वापस आ जाता था। दूसरा मत सत्यता के कुछ अधिक समीप लगता है, क्योंकि इस मानव आकृति के शीर्ष भाग को विशेष रूप से मोटा बनाया गया है, ताकि संतुलन और गति इसके उद्येश्य को पूर्ण कर सकें। ऐसे हथियारों में कुल्हाड़ी की तरह का शस्त्र भी प्राप्त हुआ है।
रूहेलखंड की नदियों के तट से प्राप्त ये शस्त्र इस बात के द्योतक है कि यहां आज से छह-सात हजार वर्ष पूर्व एक ऐसी सभ्यता विकसित हो रही थी, जिसे इस क्षेत्र की प्राचीनतम सभ्यता कहा जा सकता है।
इन हथियारों का प्रयोग करने वाले लोगों का रहन-सहन और खानपान कैसा था, यह ज्ञात करने के लिए जहां इन पुरावशेषों का सहारा लेना पड़ेगा, वहीं इन शस्त्रों के प्राप्ति-स्थान का भी सर्वे करना जरूरी होगा। प्रस्तर युग के किसी भी प्रकार के चिन्ह इस क्षेत्र से अब तक मिल सके हैं। यही कारण है कि रूहेलखंड के प्राचीन इतिहास को ताम्रयुग से ही प्रारंभ हुआ माना जाता है।
यदि भारतीय पुरातत्व विभाग उन ऐतिहासिक स्थानों की गंभीरता से खोजबीन करें, जहां ताम्रयुगीन हथियार मिले हैं, तो हो सकता है कि भारत का ताम्रयुगीन इतिहास अमरीनल, झोब, केटा और कुल्ली सभ्यताओं से भी विशाल बन सकें।
ताम्रयुगीन क्षेत्र
दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में ताम्रयुगीन मानवकृतिवाले हथियार और भालेवाले हथियार भी प्रदर्शित है। ये उत्तर प्रदेश के जिला बदायूं के निकट की सोत नदी और उत्तर प्रदेश के जिला शाहजहांपुर के पास की किसी नदी से मिलते है।
संसार की ताम्रयुगीन सभ्यताओं में कुल्ली, झोब, अमरीनल और केटा की सभ्यताएं अधिक विकसित और प्रसिद्ध रही है। भारत मंे उत्तर प्रदेश का रूहेलखंड क्षेत्र प्राचीनता की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रहा है। इस क्षेत्र से मानव के प्राचीनतम पुरावशेष लगभग छह हजार वर्ष पुराने, अब तक पुरान्वेषियों को मिल पाये है। छह हजार वर्ष पूर्व अर्थात् सिंधु सभ्यता से पूर्व की सभ्यता जिसे ‘ताम्रयुगीन सभ्यता’ भी कहते हैं, किसी समय इस क्षेत्र में विकसित थी। प्रमाणस्वरूप ताम्रयुगीन सभ्यता के पुरावशेषों में वे भालेनुमा हथियार और तांबे की मानव आकृतियां महत्वपूर्ण हैं, जो गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारों से मिली हैं।
सोत नदी के तट से प्राप्त एक ताम्रयुगीन हथियार मथुरा के राजकी पुरातत्व संग्रहालय को चंदौसी पुरातत्व ‘ग्रहालय ने अभी हाल में ही भेंट किया है। यह हथियार वहां विशेष महत्व के साथ प्रदर्शित है। इसका आकार लगभग नौ इंच है और इसकी बनावट इतनी परिष्कृत है कि देखकर आश्चर्य होता है। ऐसे हथियार बिसौली के समीप से भी मिले है।
इस हथियार अथवा भालफलक का तांबा इतना शुद्ध है कि परातत्ववेता अचंभित है। यह हथियार चंदौसी संग्रहालय के संस्थापक सुरेन्द्र मोहन मिश्र को एक ग्रामीण द्वारा दिया गया था। उसे वह नदी के किनारे खेत की जुताई के दौरान मिला था और उसके फावड़े की चोट से खंडित हो गया था। अतः वर्तमान स्थिति में वह शस्त्र दो भागों में है।
जनश्रुतियों का करिश्मा
इस हथियार के समाचार जब समाचार-पत्रों में छपे तो आम जनता में कौतुहल जागा, क्योंकि संवाददाताओं ने जनश्रुतियों के आधार पर इसे भगवान राम का बाण घोषित किया था। संसद में इस पर बहस हुई और स्पष्टीकरण के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से जानकारी लेने को कहा गया। पुरातत्व विभाग ने चंदौसी संग्रहालय से इसका विवरण तार द्वारा मांगा।
कानपुर के पास बिठुर नामक स्थान पर आज भी एक मंदिर में तांबे के इन शस्त्रों की पूजा भगवान राम के बाणों के रूप में होती चली आ रही है। एक जनश्रुिित के अनुसार, ये हजारों वर्षे पहले छोडे गये भगवान राम के ही बाण है। हजारों वर्षो से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही ये मान्यताएं भारत के प्रायः उन सभी स्थानों पर प्रचलित है, जहां पर इस तरह के हथियार मिलते रहे हैं। लेखक द्वारा ताम्रयुगीन ध्वंसावशेषों की शोध के दौरान इस क्षेत्रों के ग्रामीणों ने जो जानकारियां दी हैं, उनके अनुसार उन्हें काफी पहले यहां पांच-पांच फुट बड़े शस्त्र और मानव आकृतियां मिली थी। जिन्हें उन्होंने बर्तन-विक्रेताओं को गलने के लिए दे दिया। जिन बर्तन-विक्रेताओं ने इन्हें खरीदा था, उन्होंने भी इस तथ्य की पुष्टि की है।
ताम्रयुगीन काल की कुछ तांबे की मानव सदृश आकृतियां भी संग्रहालयों को मिली है, जिनके उपयोग के विषय में अभी मतभेद है। कुछ पुराविद् इन मानवकृतियों को पूजा के उद्येश्य से बनाया गया बताते हैं, तो कुछ विद्वान इन्हें ‘बुमैरंग’ किस्म का हथियार बताते है। यह हथियार शत्रु पर प्रहार करने के बाद शिकारी के पास वापस आ जाता था। दूसरा मत सत्यता के कुछ अधिक समीप लगता है, क्योंकि इस मानव आकृति के शीर्ष भाग को विशेष रूप से मोटा बनाया गया है, ताकि संतुलन और गति इसके उद्येश्य को पूर्ण कर सकें। ऐसे हथियारों में कुल्हाड़ी की तरह का शस्त्र भी प्राप्त हुआ है।
रूहेलखंड की नदियों के तट से प्राप्त ये शस्त्र इस बात के द्योतक है कि यहां आज से छह-सात हजार वर्ष पूर्व एक ऐसी सभ्यता विकसित हो रही थी, जिसे इस क्षेत्र की प्राचीनतम सभ्यता कहा जा सकता है।
इन हथियारों का प्रयोग करने वाले लोगों का रहन-सहन और खानपान कैसा था, यह ज्ञात करने के लिए जहां इन पुरावशेषों का सहारा लेना पड़ेगा, वहीं इन शस्त्रों के प्राप्ति-स्थान का भी सर्वे करना जरूरी होगा। प्रस्तर युग के किसी भी प्रकार के चिन्ह इस क्षेत्र से अब तक मिल सके हैं। यही कारण है कि रूहेलखंड के प्राचीन इतिहास को ताम्रयुग से ही प्रारंभ हुआ माना जाता है।
यदि भारतीय पुरातत्व विभाग उन ऐतिहासिक स्थानों की गंभीरता से खोजबीन करें, जहां ताम्रयुगीन हथियार मिले हैं, तो हो सकता है कि भारत का ताम्रयुगीन इतिहास अमरीनल, झोब, केटा और कुल्ली सभ्यताओं से भी विशाल बन सकें।
अतुल मिश्र
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