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महापुराण के अंर्तगत महर्षि वेद व्यास जी ने लिखा ‘‘सत्यम्् परम धीमहि’’ उन्होंने परमात्मा को सत्य शब्द से सम्बोधित किया। वह हमें समझा रहे हैं कि परमात्मा एक ही है जिसके विषय में संतो, महापुरूषों ने कहा-‘एकं सद्विप्रा: बहुध वदन्ति’ वह एक ही शक्ति है जिसे विद्वानों ने अलग-अलग नामोंं से संबोधित किया हैं। आज परमात्मा को अनेकों नामों से पुकारा जाता है परंतु वास्तव में वह एक ही तो शक्ति। वही शक्ति सब में प्रकाश रूप में विद्यामान है। एक शक्तिपरमात्मा जो सत्य है सबमें प्रकाश रूप में विद्यमान है और उस प्रकाश स्वरूप परमात्मा का प्राक्ट्य जब भीतर होता है तो आंतरिक अंधकार दूर हो जाता है। यह पांच विकार, दु:ख-क्लेश, अशांति, अधीरता, चौरासी का भव-बंधन ये सब इसी अंधेरे की ही दी हुई सौगातें हैं। ईश्वर अंतर्जगत का भुवन भास्कार है। वेदों के ऋषियों ने कहा-‘आदित्यवर्णंतमस: परस्ताम्’ ज्योति की ज्योतिपरम-ज्योति है। वहाँ न तो चक्षु पहुँच सकते हैं, न ही वाणी, न मन ही, न तो बुद्धि से जान सकते हैं, न ही दूसरों को सुना सकते हैं। उस प्रकाशस्वरूप परमात्मा का दर्शन तो मात्र दिव्य दृष्टि के माध्यम से ही किया जा सकता है। जैसे इस लौकिक संसार को देखने के लिए दो आंखे दी हैं वैसे ही इस संसार के रचनाकार को देखने के लिए भी अलौकिक आंख दी है।
जिस प्रकार से आप अपनी चर्म चक्षु के द्वारा दर्पण के माध्यम से अपने आपको निहारते हैं वैसे ही अपने अंत: स्थईश्वरीय प्रकाश और उसके अनंत वैभव का दर्शन दिव्य-दृष्टि के द्वारा कर सकते हैं। समस्त ग्रंथों व महापुरुषों ने उस सत्य स्वरूप परमात्मा को, ईश्वरीय प्रकाश को देखने का सशक्त साधन दिव्य-दृष्टि ही माना है। यह दिव्य-दृष्टि आध्यात्मिक व अति सूक्ष्म दृष्टि है इसे खोलने के लिए स्थूल साधनों या बाहरी ऑपरेशनों से जागृत नहीं हो सकती। यह मात्र शुद्ध आध्यात्मिक ऊर्जा से ही खुल सकती है। इस अलौकिक उर्जा के स्रोत केवल और केवल एक पूर्णगुरु, एक तत्त्ववेत्ता महापुरूष ही होते हैं। मात्र उनमें ही इसके उन्मूलन की सामथ्र्य हैं।
साध्वी जी ने बताया कि परीक्षित कलयुग के प्रभाव के कारण ऋषि से शापित हो जाते हैं। उसी के पश्चाताप में वह शुकदेव जी के पास जाते हैं। आज परीक्षित भी शुकदेव जी के श्री चरणों में बैठकर उस जगदीश्वर को जान लेना चाहते हैं। परीक्षित जी के मन में आज अनेकों ही प्रश्न हैं किन्तु जितने प्रश्न उसके मन में थे उतने ही नारद जी के मन में थे। नारद जी को समाधान मिला ब्रह्माजी से और परीक्षित की जिज्ञासा शुकदेव जी से शान्त हुई। गुरु और शिष्य की परम्परा शुरु से ही चलती आ रही है। सुश्रीसाध्वी कालिंदी भारती जी ने कहा कि अगर आप भी उस परमात्मा को जानना चाहते हैं तो आपको भी ऐसा ही मार्गदर्शक चाहिए। यह तो सर्वविदित है कि सूर्य प्रकाशमय तत्त्व है और चन्द्रमा भी प्रकाशमय है, किन्तु चन्द्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं है। जब सूर्य सुबह प्रकाशित होता है तब उसी के ही प्रकाश से ही चन्द्रमा तपता रहता है और रात को वो ही ताप शीतल होकर शीतलता प्रदान करता है। ऐसे ही गुरु भी सूर्य के समान हैं तथा चन्द्रमा एक शिष्य के समान। गुरु रूपी सूर्य के प्रकाश में तप कर ही शिष्य दुनिया को शीतलता प्रदान करने वाला ज्ञान आगे फैलाता है। कबीर जी को प्रकाशित करने वाले सूर्य रूपी गुरु रामानंद जी थे, नरेन्द्र को विवेकानंद बनाने वालेश्रेष्ठ गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी थे, शिवाजी मराठा के अपरिमित बल के पीछे समर्थ गुरु रामदासजी की असीम शक्ति व प्रेरणा कार्यरत थी। अत: गुरु के बिना हम भी उस परमात्मा तक कदापि नहीं पहुँच सकते। यही सन्देश स्वयं प्रकृति भी हमें देती है।
इस अवसर पर संस्थान के विषय में जानकारी प्रदान करते हुए साध्वी कांलिदी भारती जी ने कहा कि पंजाब में सर्वश्री आशुतोष जी महाराज ने उस समय संस्थान की शुरुआत की जब चारों और आतंकवाद की घोर कालिमा थी। उस समय चंद लोगों को लेकर शुरु हुआ यह संस्थान आज विश्व स्तरीय ख्याति प्राप्त कर चुका है जिसके करोड़ों की संख्या में अनुयाई हैं। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान का उद्देश्य धर्म को व्यवसाय बनाना नहीं बल्कि ब्रह्मज्ञान के माध्यम से धर्म को जन-जन में प्रचारित करना है क्योंकि धर्म प्रदर्शन नहीं अपितु दर्शन का विषय है। संस्थान द्वारा अनेकों आध्यात्मिक व सामाजिक कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में चेतना का संचार किया जा रहा है जो अपने आप मेंअद्वितीय मिसाल है।
आध्यात्मिक व सामाजिक तथ्यों से परिपूर्ण इस विलक्षण व रोचक कथा को श्रवण कर भक्तगण आनंद विभोर हो उठे। कथा के समापन पर पूर्णाहुति व हवन यज्ञ का भी अयोजन किया गया।
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