अतीत के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है जैसे लोग क्या खाते थे, कैसे कपडे पहनते थे, किस तरह के घरो में रहते थे? हम उस समय के कृषकों व्यापारियों, पुरोहितों, शिल्पकारों या फिर वैज्ञानिकों के जीवन के बारे में जानकारियाँ प्राप्त कर सकते हैं। पुरातत्वविद्य पत्थर और ईंट से बनी इमारतों के अवशेषों चित्रों तथा मूर्तियों का अध्ययन करते हैं। वे औजारों हथियारों, बर्तनों, आभूषणों तथा सिक्को की प्राप्ति के लिए छान-बीन तथा खुदाई भी करते हैं।
पुरातत्वविदों एवं इतिहासकारों के निर्णयों के अनुसार कृषि का आरंभ 8000 वर्ष पूर्व, सिंधु सभ्यता के प्रथम नगर का निर्माण 700 वर्ष पूर्व, गंगाघाटी के नगर, निर्माण मगध का बड़ा राज्य 2500 वर्ष पूर्व तथा वर्तमान लगभग 2000 वर्ष पूर्व आंका गया है। प्रमाण मिलते हैं, लोहे का प्रयोग आदिकाल से हो रहा है। उत्तर पाषाण काल में कब्रों में लोहे के औजार और अन्य वस्तुएं बडी संख्या में मिली हैं। पहले भी लोहे के औजारों के बढ़ते उपयोग का प्रमाण मिलत है। इनमें जंगलो को साफ करने के लिए कुल्हाडियाँ और जुताई के लिए हलो के फाल तथा फावड़े आदि सम्मिलित हैं। उस समय भी अधिकांश गांवो में लोहार, बढ़ई, कुम्हार तथा बुनकर जैसे कुछ शिल्पकार भी होते होंगे?
लोहे का प्रयोग आज एक आम बात है। लोहे की चीजें हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा बन गई हैं। इतिहासकारों के अनुसार इस उपमहाद्वीप (भारत) में लोहे का प्रयोग लगभग 3000 वर्ष पूर्व शुरू हुआ। महापाषाण कब्रों में लोहे के औजार और हथियार बड़ी संख्या में मिले हैं। परन्तु इससे भी पूर्व महाभारत काल में धातुओं से बने हथियार तथा रथ और रामायण काल में धतु से बना पुष्पक विमान के निर्माण के प्रमाण हमारे साहित्य में उपलब्ध हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इतिहास कारों की काल गणना तथा वैदिक साहित्य के उल्लेख आपस में कहीं भी मेल नहीं खाते हैं। यह अलग से शोध का विषय है। हडप्पा नगरों में ऐसे लोग रहते होंगे, जो नगर की खास इमारतें बनाने की योजना में जुटे रहते थे। ये सम्भवतः यहां के शासक थे। इसके अतिरिक्त नगरों में शिल्पकार स्त्री-पुरूष भी रहते थे, जो अपने घरों या किसी उद्योग-स्थल पर तरह-तरह की चीजें बनाते होंगे? इतिहासकारों के मतानुसार हड़प्पा के नगरों का विकास लगभग 2700 से 1900 ई. पूर्व के बीच में हुआ।
लोग नगरों के अतिरिक्त गांवों में भी रहते थे। वे अनाज उगाते थे और जानवर पालते थे। जमीन की जुताई के लिए हल का प्रयोग एक नई बात थी। हल प्रायः लकड़ी से बनाए जाते थे, हल के आकार के खिलौने (खुदाई में) मिले हैं।
युग (2500 वर्ष पूर्व) में कृषि के क्षेत्र में दो बड़े परिवर्तन आए। हल के फाल अब लोहे के बनने लगे। अब कठोर जमीन को लकड़ी के फाल की तुलना में लोहे के फाल से आसानी से जोता जा सकता था। इससे फसलों की उपज बढ़ गई। इसे उस समय की ‘‘हरित-क्रांति’’ कहा जा सकता है।
शिल्पकारों की कुशलता के नमूने-स्तूपों जैसी कुछ इमारतों में देखने को मिलते हैं। स्तूप का अर्थ शाब्दिक टीला होता है। प्रायः सभी स्तूपों के भी तर एक छोटा सा डिब्बा रखा रहता है।
इन डिब्बों में बुद्ध या उसके अनुयायीयों के शरीर के अवशेष या उनके द्वारा प्रयुक्त कोई चीज या कोई कीमती पत्थर अथवा सिक्के रखे रहते हैं। इसे धातु-मंजुषा कहते हैं। प्रांरभिक स्तूप, धातु-मंजुषा के उपर रखा मिट्टी काटीला होता था। बाद में टीले को ईंटो से ढक दिया गया और बाद काल में उस गुम्बदनुमा ढांचे को तराशे हुए पत्थरों से ढक दिया गया।
महरौली (दिल्ली) में कुतुबमीनार के परिसर में खडा लौह स्तम्भ भारतीय शिल्पकारों की कुशलता का एक अद्भुत उदाहरण है। इससकी उंचाई 7.2 मीटर और वजर 3 टन से भी ज्यादा है। इसका निर्माण लगभग 1500 वर्ष पूर्व हुआ। इसके निर्माण काल की जानकारी इस पर खुदे ओम लेख से मिलती है। आश्चर्य की बात यह है कि इतने वर्षो के पश्चात तभी इसमें जंग नही लगी है।
प्राचीन काल से ही पहाडियों को काटकर बनावटी गुफा है बनाई जाती थी। इस तरह की कई गुफाओं की मूर्तियों तथा चित्रोद्वारा सजाया जाता था। समय-समय पर हिन्दु मंदिरों का भी निर्माण किया गया। इस विषय पर अलग से विस्तार पूर्वक चर्चा की जा सकती है।
रामशरण युयुत्सु
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