भारतवर्ष का इतिहास ही वास्तव में विश्व का इतिहास है। सृष्टि की आदि से कुछ काल पश्चात् आर्यलोग इसी भूमि पर आकर बसे थे। बाद में संख्या अधिक होने या अन्य कारणों से अन्य स्थानों पर जा बसे थे। यह मान्यता सभी प्राचीन इतिहास ग्रंथों से सम्मत और स्वीकृत है। इस वास्तविक सूत्र को जाने बिना जब मानव जाति के इतिहास को संकलित करने की कोशिश की जाती है तो अनेक विरोद्दाभास सामने आते हैं। कभी मिश्र, कभी यूरोप और कभी सिन्धु घाटी में मानव इतिहास का भ्रमपूर्ण मूल खोजा जाता है। ‘किसी संस्कृत ग्रंथ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आए और यहाँ के जंगलियों को लड़कर, जय पाके निकाल के इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है?’ (महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश: अष्टम् समुल्लास) विडम्बना तो यह है कि चाटुकार इतिहासकारों को तो मान्यता प्रदान की जाती है, लेकिन इस देश में शताब्दियों से प्रचलित और मान्यताप्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों और प्रमाणों पर विचार ही नहीं किया जाता। इसका सबसे बड़ा कारण हमारी लम्बे समय तक की पराद्दीनता और स्वकीय इतिहास के प्रति हद दर्जें की उपेक्षा और जागरूकता का अभाव है।
संस्कृतविद्यानिष्णात महर्षि दयानन्द सरस्वती का इतिहास संबंधी दृष्टिकोण पूर्णतया इस देश के स्वकीय प्रमाणों और तथ्यों पर आधारित है। ‘‘सृष्टि से ले के पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देश में मांडलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे।-- सुनो! चीन का भगदत्त, अमरीका का बब्रुवाहन, यूरोप देश का विडालाक्ष,-- यवन जिसको यूनान कह आए और ईरान का शल्य आदि सब राजा राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्ध में सब आज्ञानुसार आए थे। जब रघुगण यहाँ के राजा थे तब रावण भी यहाँ के आधीन था। जब रामचन्द्र के समय में विरुद्ध हो गया तो उसको रामचन्द्र ने दण्ड देकर राज्य से नष्ट कर उसके भाई विभीषण को राज्य दिया था।-- स्वायंभुव राजा से लेकर पाण्डवपर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा।’’
मैत्र्युपनिषद् का प्रमाण देते हुए ऋषि कहते हैं कि सृष्टि से लेके महाभारत पर्यन्त चक्रवर्ती सार्वभौम राजा आर्यकुल में ही हुए थे। -- यहाँ सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्रîश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, ननक्तु, सर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत्त और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं। वैसे स्वायंभुवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति महाभारत आदि ग्रंथों में लिखे हैं। इसको मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।
इस विश्व साम्राज्य के क्षय के कुछ प्रमुख कारण महर्षि दयानन्द ने आपस का विरोध, धन के अत्यधिक बढ़ने से आलस्य पुरुषार्थ रहितता, ईर्ष्या-द्वेष, विषयासक्ति और प्रमाद; युद्धविभाग में युद्धकौशल और सेना बढ़ने से कि जिसका सामना करने वाला संसार में कोई न हो, तो पक्षपात, अभिमान और अन्याय का बढ़ जाना आदि बताए हैं। ‘‘अब इनके संतानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाक्रांत हो रहे हैं।’’
महाभारत के पश्चात् भी मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य, और हर्ष के साम्राज्य इस देश में बने और बिगड़े। समय आया कि विदेशी आक्रमणकारी लुटेरे जहाँ तहाँ से इस सुवर्णभूमि में लूटमार मचाने के उद्देश्य से आने लगे। इस कालखंड का इतिहास जितना लोमहर्षक और मार्मिक है, उतनी ही विडम्बना इससे यह जुड़ी हुई है कि यह प्रायः उन्हीं लुटेरों या उनके अंधभक्तों द्वारा लिखा गया है। इस काल में शक, यवन, हूण आदि जातियों के आक्रमण इस देश पर हुए। उन के संबंध में प्रायः यही पढ़ने को मिलता है कि उन्होंने यहाँ के निवासियों को किस प्रकार रौंदा और कितने समय तक गुलाम बनाए रखा। आज भारतवर्ष में विद्यार्थियों को पढ़ाए जाने वाले इतिहास का सार मात्र इतना है कि किसने, कब, किस तरह हमारे ऊपर गुलामी का पट्टा रखा और कितने दिन तक रखे रहे। भारतवर्ष पर हूणों के आक्रमण के पश्चात् भारतवासियों द्वारा किए गए उनके प्रतिकार का प्रायः वर्णन नहीं किया जाता। जिन पक्षपात रहित इतिहासकारों ने इस तथ्य को देखा तो विस्मित और अभिभूत हुए बिना न रह सके। वीर सावरकर ‘भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ’ द्वितीय भाग के दूसरे अध्याय में इतिहासकार स्मिथ का उद्धरण देते हैं- ‘हिन्दुओं के हाथों मिहिरगुल की पराजय तथा हूण शक्ति के पूर्ण विनाश होने के उपरांत लगभग पांच शताब्दी तक भारत ने विदेशी आक्रमणों से मुक्ति का अनुभव किया।’ ‘-ऐतिहासिक सत्य यह है कि हूणों का पतन करने के पश्चात् अर्थात् साधारणतः सन् 550 के बाद हिन्दू राजाओं ने सिन्धु नदी को विभिन्न मार्गों से लांघकर, आज जिन्हें सिंध, बिलोचिस्तान, अफगानिस्तान, हिरात, हिन्दुकुश, गिलगित, कश्मीर आदि कहा जाता है --वे सिन्धु नदी के समस्त भारतीय साम्राज्य के प्रदेश उन सभी म्लेच्छ शत्रुओं को ध्वस्त करते हुए वैदिक हिन्दुओं ने उस समय फिर से जीत लिए। अनेक इतिहासकारों के अनुसार गजनी में भी राजा शिलादित्य राज करते थे। ’’
711 ईस्वी सन् में मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण को पहला आक्रमण मानकर उसके सफलतापूर्वक आगे बढ़ने का ही प्रायः वर्णन किया जाता है, जबकि ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार तो उससे पचासों वर्ष पूर्व जो संगठित और सुनियोजित आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिकार किया जाता रहा, उसका वर्णन नहीं किया जाता है। मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का वीरतापूर्वक प्रतिकार करने वाले वैदिक धर्माभिमानी ब्राह्मण राजकुल के महाराज दाहिर का तात्कालीन बौद्धों के राष्ट्रद्रोह के कारण और सेना में सम्मिलित मुस्लिम टुकडि़यों के कारण पराजय हुआ और वे वीरगति को प्राप्त हुए। वीर सावरकर ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। कहा जाता है कि महाराजा दाहिर की एक वीरांगना महारानी ने भी महाराजा के बाद इस युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ते हुए अपना बलिदान दिया। महाराजा की दो कुमारियाँ सूर्या और परमाल के अपहरण और फिर उनके अनुपम त्याग व बलिदान की गौरव गाथा भी इसी काल से जुड़ी हुई है।
711 ई0 में अरबों द्वारा सिंध विजय के बाद दूसरे बड़े आक्रमण का उल्लेख 1000 ई0 में महमूद गजनवी के आक्रमण का मिलता है। भारतीयों के शौर्य और बलिदान को और प्रबल प्रतिकार को छुपाने के लिए अथवा प्रकाश में न आने देने के लिए बीच के कालखंड का उल्लेख इतिहास पुस्तकों में प्रायः नहीं मिलता। अरबों द्वारा इस कालखंड में विजय प्राप्त करने के बाद भी आगे न बढ़ना अकारण तो नहीं हो सकता। हारीत मुनि और उनके शिष्य बाप्पा रावल का शौर्य इतिहास की गहराईयों में छुपाए नहीं छुप सकता। महमूद गजनवी के पिता सुबुक्तगीन के समय राजा जयपाल ने अनेक हिन्दू राजाओं के सहयोग से उसका मुकाबला किया, लेकिन उसके संयुक्त उपक्रम को विजय नहीं प्राप्त हो सकी। महमूद के आक्रमण के समय फिर राजा जयपाल ने अपने अत्यल्प साधनों से प्रतिकार किया लेकिन देशाभिमान को त्यागना स्वीकार न किया। राजा जयपाल के पश्चात् उनके सुपुत्र अनंगपाल ने दो बार वापस भागने के लिए विवश कर दिया। तीसरे युद्ध में एकाकी अनंगपाल लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
इतिहास के पन्नों में शौर्य और बलिदान के इस प्रकार के अनेक प्रसंग छुपे हुए हैं, जो प्रकाश में नहीं लाए जा सके और केवल उन्हीं बातों को बढ़ाचढ़ाकर प्रचारित किया जाता रहा जिनसे नई पीढि़यों के आत्मगौरव व स्वाभिमान को चोट पहुंचाई जा सके। इसी प्रकार का प्रसंग देश के स्वाभिमान के प्रतीक मेवाड़ का है। जिस सर्वशक्तिमान सत्ता के सामने बड़े बड़े शक्तिशाली शासक झुक गए, उसके सामने मेवाड़ के रूप में देश की गौरव पताका स्वाभिमान के साथ लहराती रही। कितना त्याग, कितना बलिदान!! एक बहुत लम्बे चलने वाले संघर्ष में किया गया। पीढि़यों तक अपने आदर्शों के लिए सर धड़ की बाजी लगाई जाती रही, और पक्षपाती इतिहासकारों ने उनको भी कायर कहने में संकोच नहीं किया। इसी गौरव गाथा को लेखक ने इस लघु पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें लेखक कितना सफल हुआ है, यह तो प्रबुद्ध पाठक स्वयं ही निर्णय करेंगे, लेकिन इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाए कि न तो यह कोई पाठ्यपुस्तक है और न ही कोई शोधग्रंथ। यह तो इस भारत वर्ष देश के विस्तृत गौरवशाली अतीत के एक बहुत ही छोटे से कालखंड का सिंहावलोकन मात्र है। इतिहास का संकलन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। फिर इस क्षेत्र में तो बहुत कुछ कार्य होना शेष है। यदि अपने पूर्वजों से प्रेरणा लेकर सैकड़ों वर्ष पूर्व मर चुके पीरों की मजारों और पत्थरों में सर पटकने वाले नौजवान अपनी क्लीवता और कायरता को त्यागकर वीरता के भावों को धारण कर अपने पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास की खोज करने को प्रेरित होंगे और देश के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन कर उसके पुनर्निर्माण में प्रवृत्त होने को अग्रसर होंगे तो लेखक का सम्पूर्ण प्रयास सफल होगा। वह दिन कब आएगा जब अश्लीलता और चारित्रिक विनाश के किस्सों कहानियों को भुलाकर इस देश के नौजवानों के हृदय देशभक्तों के बलिदानों और गौरव के तरानों से गूंज उठेंगे। जब अर्जुन, भीष्म, राम-कृष्ण, बाप्पा रावल, दाहिरसेन, पृथ्वीराज चौहान, गुरुगोविन्द सिंह, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, दुर्गादास राठौर, महाराजा रणजीतसिंह जैसे नरपुंगवों को आदर्श मानकर उनके चिन्तन के अनुसार नई पीढ़ी का निर्माण किया जाएगा तभी यह देश वास्तविक भारतवर्ष होगा।
चन्द्रभानु आर्योपदेशक
सम्पादक शांतिधर्मी मासिक
756/3, आदर्श नगर, सुभाष चौक, जींद-126102
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