क्या ज्योतिसर ही गीता-उपदेश स्थली है?


    रामशरण युयुत्सु
    पिछले दिनों यह सुखद अवसर मिला, जब हरियाणा सरकार द्वारा ‘कुरूक्षेत्र महोत्सव व गीता जयन्ती समारोह’ के साथ-साथ हरियाणा के सभी जिलों में भी पहली बार जिला स्तरीय गीता जयन्ती समारोह का आयोजन किया गया। इन सभी समारोहों में भारतीय संस्कृति के साथ-साथ हरियाणा के इतिहास, संस्कृति, जनजीवन और अन्य विभिन्न गतिविधियों से भी अवगत कराया गया। इस उपक्रम से हरियाणा तथा भारत का गौरव बढ़ा है। वास्तव में इस सफल आयोजन के प्रति हरियाणा सरकार तथा कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड साधुवाद के पात्र है।
    इस अनुष्ठान से जहां जितना गौरव गर्व व सम्मान बढ़ा है, उतनी ही गति से एक सुषुप्त पड़े प्रश्न को पुर्न-जागृत कर दिया है। महाभारत जैसे विशालग्रंथ के लेखन के साथ ही इस प्रश्न ने जन्म ले लिया था कि -भगवान श्री कृष्ण ने महारथी  अर्जुन को गीता का उपदेश कहा दिया गया था; कौरव-पाण्डवों की सेना के मध्य में अर्थात 48 कोस की युद्ध भूमि कुरूक्षेत्र के एक कोने (तरन्तुक यक्ष के समीपवर्ती स्थान, वर्तमान के ज्योतिसर) में
एकलव्य की तरह शापित एवं अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए कितने ही विद्वानों ने प्रयास किये होंगे, यह उद्घाटित करना जितना असंभव है, उतना ही सुगम भी नहीं है।
    अपुष्ट जानकारी के अनुसार हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री चै. भजनलाल ने गीता उपदेश स्थली की खोज करने के लिए एक बुद्धिमता पूर्ण प्रयास किया था। उन्होंने सरकारी घोषणा की थी कि - ‘जो विद्वान अपने शोध कार्य व लेखन से यह सिद्ध कर देगा, कि भगवान श्री कृष्ण ने मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश किस स्थान पर खड़े रहकर दिया था?  निर्णय हो जाने पर उस विद्वान को ‘हरियाण का राज-पण्डित’ का सम्मानोपाधि से सम्मानित किया जायेगा। सम्मानित सामग्री के साथ उसे एक लाख रूपये की नकद धन-राशि भी भेंट की जाएगी।’
    ज्ञात हुआ था कि- तत्कालीन मुख्यमंत्री चै0 भजनलाल जी की इस घोषणा के प्रत्युत्तर में अनेक विद्वानों ने अपने शोध लेख हरियाणा सरकार को सौंपा गये थे। परन्तु यह प्रयास कुरूक्षेत्र के कुण् विद्वानों की राजनीति के भेन्ट चढ गया। वह सभी शोध-लेख अब किसी अंधेरी कोठरी में धूल-चाट रहे होंगे?
    ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, माऊट आबू (राज.) द्वारा प्रकाशित ‘ज्ञानमृत’ मासिक पत्रिका में भी कई प्रश्न उठाये गये हैं। ज्योतिसर में स्थित अक्षय वट पर प्रश्न किया है कि ‘‘कुरूक्षेत्र में एक सरोवर है, जिसे ‘ज्योतिसर’ कहा जाता है। यां एक वट वृक्ष है, जिसे लोग बहुत पवित्र मानते हैं। कुरूक्षेत्र का महात्मय बताते हुए पण्डे लोग कहते हैं कि भगवान कृष्ण ने यहां अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। वे इस वृक्ष को उस उपदेश का साक्षी बताते हैं और इसे ‘अक्षय (अविनाशी) वट’ अर्थात श्रीकृष्ण के समय से यहीं खड़ा हुआ वृक्ष मानते हैं। इसी वृक्ष के आसपास एक चबूतरा बना हुआ है, जिसके दोनों ओर के स्तम्भों पर लिखा है- ‘गीता मण्डप’ । इस वृक्ष को देखने से कोई सामान्य व्यक्ति भी कहेगा कि यह इतना पुराना नहीं है। चाहे तो किसी वनस्पति विज्ञानवेत्ता से इसकी आयु का निर्णय करा लें। इससे तो कलकता के बोटनीकल गार्डन का वट वृक्ष बहुत पुराना है। परन्तु अन्ध-श्रद्धा का क्या कहना?
    चाहे कोई विद्वान हो या अन्य मानव ने अपने स्वार्थवश हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी ज्ञान को अपने अनुकूल बना लिया है। वह श्लोकों के अर्थ व प्रयोग अपने अनुकूल दिशा की ओर लें जाते हैं। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित महाभारत में उल्लेख है कि प्रारंभ के उपलब्ध ग्रंथ में 8800 (आठ हजार आठ सौ) ऐसे श्लोक हैं, जो स्पष्ट है, जिसका अर्थ शुक देव जी समझते हैं। शेष इतने गुथे हुए है कि आज भी उनका रहस्य भेदन नहीं किया जा सकता।
    अष्टौ श्लोक सहस्राणि अष्टौ श्लोक शतानिच।
    अहं वेदिन शुकोवेत्ति संजयोवेत्ति वा न वा।।81।।
    तच्छलोक कूट मद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने।
    भेत्तुंन शक्यतेर्थस्य गूढत्वात् प्रश्रितस्यच।।82।।
    महाभारत आदि पर्व अ. श्लोक 81-82 इस ग्रंथ में आठ हजार आठ सौ श्लोक ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं सन्देह है।
    मुनिवर! दे कुट श्लोक इतने गुथे हुए और गंभीर!र्थक है कि आज भी उनका रहस्य भेद न नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढ़वृत्ति आदि रचनावैचित्र के कारण गम्भीर है।
    इसी रहस्य और गूढ़ता का लाभ उठाकर कुछ अवसरवादी विद्वान अपनी सुविधानुसार किसी भी ज्योतिसर को कहीं भी स्थापित कर लेते हैं।
    गीता का उपदेश किस स्थान पर दिया गया प्रश्न का उत्तर खोजने से पूर्व ‘कुरूक्षेत्र’ शब्द नगर तथा भूमि का परिचय खोजना जरूरी है। वास्तव में वर्तमान के कुरूक्षेत्र की पहचान एवं प्रसिद्धि यहां पर स्थित ‘कुरूक्षेत्र जंक्शन’ रेलवे स्टेशन से प्रारंभ होती है। यहां पर रेलवे स्टेशन बनने से पूर्व, इसके समीपवर्ती नगर का नाम इतिहास प्रसिद्ध स्थाणेश्वर (स्थानेश्वर) स्थानीय उच्चारण में थानेसर ही था। स्पष्ट तथ्य (सत्य) है कि यहाँ रेलवे स्टेशन बनने से पूर्व कुरूक्षेत्र नाम का कहीं भी, कोई भी गांव, नगर अथवा जनपद नही था। अंग्रेज सरकार ने इतिहास को खण्डित, भ्रमित करने की अपनी दूर दृष्टि योजना के अन्तर्गत एक ‘कुरूक्षेत्र’ नाम से रेलवे स्टेशन का निर्माण किया गया। महाभारत कालीन इतिहास में ‘कुरूक्षेत्र’ किसी नगर जनपद का नाम न होकर राजा कुरू द्वारा यहां की भूमि पर चलाए गये हल के कारण तथा 48 कोस की परिधि वाले उस क्षेत्र (भूमि) का नाम है; जहाँ कौरव-पांडवों के बीच महायुद्ध लड़ा गया था। इस भूमि का गीता, महाभारत आदि ग्रंथो में ‘धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र’ की संज्ञा दी गई।
    कुरूक्षेत्र के नाम पर जहाँ भी, जितना भी लिखा गया, उसके 48 कोस की सीमा (परिधि) में आने वाले दक्षिण भाग को उपेक्षित ही रखा गया। इस उपेक्षित क्षेत्र, जो अधिकतर जीन्द जनपद में आता है, को हम यहां इस आलेख में ‘दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र’ का नाम तथा परिचय के रूप में चर्चा करेंगे।
    महाभारत-युद्ध से पूर्व आदि काल में इस क्षेत्र में (कुरूक्षेत्र) की पहचान जीन्द नगर के दक्षिण में स्थित रामहृद (रामराय ) के नाम पर भी रही है।
    आद्यैषा ब्रह्मणों वेदिस्ततो रामहृदः स्मृतः।
    करूणा च यतः कृष्टं कुरूक्षेत्रं ततः स्मृतम्।।
    तरन्तुकारन्तुकपोर्य दन्तर
    यदन्तरं रामहृदाच्चतुर्मुखम्।
    एतत्कुरूक्षेत्रसमन्त पंचकं
    पिता महस्योत्तरवेदिरूच्यते।।
वामन पुराण अ. 22 श्लोक 58-59 आदि में यह ‘ब्रह्मवेदी’ कहा गया था, किन्तु आगे चलकर इसका नाम ‘रामहृद’ हुआ। उसके बाद राजर्षि कुरूद्वारा जोते जाने से इसका नाम ‘कुरूक्षेत्र’ पड़ा। तरन्तुक एवं अरन्तुक नाम के स्थानों का मध्य तथा रामहृद एवं चर्तुमुख (मचक्रुक) का मध्य भाग समन्त पंचक है, जो कुरूक्षेत्र कहा जाता है। इसे पितामह की उत्तरवेदी भी कहते हैं।
    उपरोक्त में कहीं भी कुरूक्षेत्र नगर का संदर्भ नहीं कुरूक्षेत्र रेलवे स्टेशन से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर, पेहवा  राजमार्ग पर सरस्वती नदी के किनारे वर्तमान में ‘ज्योतिसर’ नामक स्थान; ज्योतिसर अर्थात प्रकाश (ज्ञान) का सरोवर। कुछ विद्वानों के द्वारा स्थापित (प्रचारित) लोक मान्यता के अनुसार ज्योतिसर वह भूमि है जहां पर भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के प्रारंभ होने से पूर्व मोहग्रस्त एवं विषादपूर्ण अर्जुन को गीता का दिव्य ज्ञान देकर, उसके कत्र्तव्य की ओर पे्रेरित किया था। इस समय इसके तट पर एक अक्षय वट स्थित हैै। इसके समीप में ही श्वेत संगमरमरसे निर्मित कृष्ण-अर्जुन का रथ सुशोभित है।
    ज्योतिसर के गीता उपदेश स्थली होने का कोई प्रचानी प्रमाण नही है। प्राचीन साहित्य में भी इस का कोई संदर्भ नहीं देखा गया। यह केवल कुछ विद्वानों द्वारा प्रचारित (स्थापित) लोक मान्यता ही है।
    48 कोस की परिधि वाली युद्धभूमि कुरूक्षेत्र के एक कोने में खड़ा होकर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता-उपदेश दिये जाने पर अनेक विद्वानों ने संदेह प्रकट किए हैं। इतना विशाल कार्य एक कोने में खड़ा होकर सम्पन्न कैसे किया जा सकता है? इस घटना का राजनीतिकरण भी हो गया है।
    यह स्थान विद्वानों तथा स्थानीय जनमानस की दृष्टि में विशेष रूप में तब आया, जब सर्वप्रथम आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व कश्मीर के महाराजा, जो कुरूक्षेत्र भ्रमण के लिए यहां पधारे थे, ने यहाँ एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। 1967 में काम कोटि पीठ के शंकराचार्य जी के प्रयास से कृष्ण-अर्जुन रथ तथा आदि शंकराचार्य जी के मंदिर का निर्माण हुआ।
    इस तीर्थ के जीर्णोद्धार में कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड के प्रयास भी सराहनीय रहे हैं। बोर्ड तीर्थ के पुननिर्माण एवं इसे अधिक विकसित स्वरूप देकर आकर्षित बनाने की दिशा में निरन्तर प्रयासरत है। हरियाणा पर्यटन विभाग ने ज्योतिसर में पेहवा राजमार्ग पर जल-पानगृह के साथ-साथ यात्रियों की सुविधा के लिए एक विश्राम गृह का भी निर्माण किया है। अब यह स्थान पर्यटन-स्थल अधिक उचित लगता है; क्योंकि लोक-आस्था के साथ-साथ वर्तमान में ज्योतिसर एक आकर्षक पर्यटन-स्थल बनकर उभरा है।
    48 कोस की कुरूक्षेत्र भूमि के उत्तरी भाग स्थाणेश्वर (अब कुरूक्षेत्र) को विद्वानों ने बहुत महिमामंडित किया है, इसके दक्षिण भाग (दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र) के लिए तो उतना भी नहीं लिखा गया, जितना का वह अधिकारी था अथवा उसकी महिमा रही है। यह लगभग सदैव से उपेक्षित जैसा ही रखा गया है।
    इस भू-भाग को चर्चित तथा विकसित करवाने की दृष्टि से इस आलेख को लेखक (रामशरण युयुत्सु) ने अपनी विभागीय सेवानिवृत्ति के पश्चात ‘दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र विकास समिति जीन्द का निर्माण करके उसके मंच पर जीन्द के विद्वानों की प्रतिष्ठित चिन्तक, लेखक दोरड़ गांव निवासी वनमालीदत्त शर्मा की अध्यक्षता मंे एक बैठक बुलाई थी। इसी संस्था के लैटर हैड पर हरियाणा के राज्यपाल, मुख्यमंत्री तथा पूर्व वित्तमंत्री श्री मांगेराम गुप्ता को प्रस्ताव रूप में मांग-पत्र प्रस्तुत किए थे। इस मांग-पत्र के प्रति क्रिया स्वरूप रानी तालाब के विकास कार्य को प्रारंभ तो जरूर किया गया; परन्तु अन्य विषय लोप ही रहे। कुछ समय पश्चात विशेष सहयोगी वनमाली दत्त शर्मा के स्वर्गवास हो जाने तथा मेरे (रामशरण युयुत्सु को कैन्सर, हृदयाघात जैसे रोगों द्वारा जकड़ लिए जाने से यह सभी प्रयास शांत हो गये।
    कुरूक्षेत्र की 48 कोस की परिधि के दक्षिण में स्थित जीन्द का क्षेत्र, जिसको दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र का नाम दिया जा सकता है, सदैव ही केवल उपेक्षा का शिकार ही नहीं रहा, अपितु इस की पहचान भी धूमिल रही है।
    भगवान वराह एवं भगवान परशुराम की अवतार स्थली तथा इन्द्रसुत जयन्त व भगवान श्री कृष्ण की कर्मस्थली जयन्तपुरी क्षेत्र को सबसे बड़े दो आघात तब लगे, जब रामहृद (रामराय)के प्राचीन तीर्थ ‘सन्निहित’ को यहाँ से परिवर्तित करके स्थाणेश्वर की सीमा (वर्तमान का कुरूक्षेत्र) में स्थापित किया गया। जिससे सभी विद्वानों, लेखकों, इतिहासकारों के केन्द्र बिन्दू कुरूक्षेत्र बन गया।
    दक्षिणांचल क्षेत्र को सबसे बड़ा आघात तब मिला, जब गीता उपदेश की स्थली स्थाणेशवर (कुरूक्षेत्र) की सीमा के उत्तरी भाग को गीता-स्थली बनाकर महिमा-मण्डित कर दिया गया।
    गीता-उपदेश स्थली के ऐतिहासिक भूगोल को इस कदर भ्रमित किया जा सकता है, यह हर स्थिति में विश्वास से परे की बात है। महाभारत की युद्ध भूमि की उत्तरी सीमा के एक कोने मंे आखरी सीमा रेखा पर स्थित यक्ष के आसपास खड़े होकर भगवान श्री कृष्ण ने गीता का इतना विशाल एवं गूढ़ उपदेश कौरव सेना शिविर में जाकर कैसे दे दिया।
    महाभारत-युद्ध के आरंभ होने से पूर्व महारथी अर्जुन ने अपने अन्तरंग मित्र एवं सारथी श्रीकृष्ण से कहा कि-युद्ध की इच्छा रखने वाली दोनों सेनाओं के बीच में मुझे ले चलो।
    सेन योरूभयोर्मध्ये रथ स्थापय मेच्युत।
    यावदेता निरीक्षेहं यौद्धकामनवास्थितान्।।
    कैर्मया सहयोद्धव्यमस्मिन्रणस मुद्य में।।
    गीता अ. 1 श्लोक 21-22
    हे अच्युच! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलो जिससे मैं यहां उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शास्त्रों की इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ।
    यह प्रकाशित है कि- इस युद्धभूमि के उत्तर दिशा में दुर्योधन का कौरव सेना तथा दक्षिणीभाग में युद्धिष्ठिर की पाण्डव सेना तैनात थी; और दोनों सेनाओं के बीच मे व्यूह रचना की दृष्टि से संधि के अन्तर्गत कुछ भाग (क्षेत्र) को खाली रखा गया था।
    विश्वसनीय तर्क है कि इसी खाली क्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ लाकर खड़ा किया था; और इसी स्थान पर ही अर्जुन ने दोनों सेनाओं का अवलोकर करते हुए अपने पूर्वजों (परिवारजनों) बन्धु-बाँधवों को देखा था। इसी स्थान पर ही अर्जुन को अपनों का मोह हो गया था। दोनों सेनाओं के आमने-सामने खडे़ होने पर, मध्य का भाग (क्षेत्र) पुण्डरी तथा राजौन्द के मध्य का क्षेत्र बनता है। यहीं श्री कृष्ण ने विषाद ग्रस्त अर्जुन को गीता का गूढ़ उपदेश देकर, अपना विराट् रूप दिखाया था।
    48 कोस की परिधि वाली कुरूक्षेत्र की युद्धभूमि में पाण्डव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण को दिशा दक्षिण दिशा (दक्षिणांचल या यों कहें जीन्द का क्षेत्र) में होने प्रमाण उपलब्ध हैं। यह प्रमाण भी जुटाने की आवश्यकता नहीं है कि जीन्द की भूमि इतनी चिकनी व उर्वरा है कि जहाँ पर घास और ईंधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। जीन्द के समीप स्थित वराह-वन (बड़ा-बीड़), जो महाभारत काल में पानीपत से लेकर हिसार तक फैला था। यहां घास और ईंधन का अथाह भण्डार था। यही स्थिति देखकर ही पाण्डव-पुत्र युधिष्ठिर ने इस क्षेत्र में अपने शिविर स्थापित किये थे।-
    ततो देशे समे स्निग्धे प्रभूतयवसेन्ध ने।
    निवेशयामास तदासेनां राजा युद्धिष्ठिर।।
    महाभारत उद्योगपर्व अ. 152 श्लोक-1 तदन्तर राजा युद्धिष्ठिर ने एक चिकने और समतल प्रदेश में जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पडाव डाला।
    पाण्डु-पुत्र महाराज युद्धिष्ठिर के साथ महारानी द्रोपदी भी युद्धक्षेत्र में उनके साथ ही आई थी-
    उपलब्ये तु पांचाली द्रोपदी सत्यवादिनी।
    सह स्त्री मनिववतृते दासीदास सम्मावृता।।
    महाभारत उद्योग पर्व अ. 152 श्लोक-160 पांचाल राजकुमारी सत्यवादिनी द्रोपदी दास-दासियों से घिरी हुई कुछ दुर तक महाराज के साथ गयी, फिर सभी स्त्रियों के साथ उपलब्य नगर में लौट गई।
    ज्ञातव्य है कि उपप्लव्य नगर मत्यस्य देश की राजधानी विराट्नगर का उपनगर था; जो पाण्डु-पुत्रों के मित्र राजाओं में से दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र के दक्षिण में सबसे निकट, सुरक्षित तथा विश्वसनीय स्थान था।
    भगवान श्री कृष्ण के शिविर भी दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र में स्थित होने के संकेत भी सरलता से उपलब्ध है। यथा-
    आसाद्य सरितं पुण्यांकुरूक्षेत्रे हिरण्वतीम्।
    सूपतीर्थां शुचिचलां शर्करापकवर्जिताम्।।
    खानयामास परिरवां केशवस्तत्र भारत।
    गुप्त्यर्थमपि चादिश्य बलंतत्र न्यवेशयत्।।
    महाभाारत उद्योग पर्व अ. 152 श्लोक 7-8 भरतनन्दन जनमेजय! कुरूक्षेत्र में हिरण्वती नामक एक पवित्रनदी है, जो स्वच्छ एवं विशुद्ध जल से भरी है। उसके तट पर अनेक सुन्दर घाट हैं। उस नदी में कंकड़, पत्थर और कीचड़ का नाम नहीं है। उसके समीप पहुँचकर भगवान श्रीकृष्ण ने खाई खुदवाई और उसकी रक्षा के लिए पहरेदारों को नियुक्त करके वहीं सेना को ठहराया। आगे की पंक्तियों में यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि हिरण्वती नदी इसी दक्षिणांचल क्षेत्र में होकर बहती थी; जिसका वर्तमान स्वरूप चेतंग है, जिसके किनारे पर वर्तमान का जीन्द आबाद है।
    उस समय सतलुज तथा यमुना की कुछ धाराएं सरस्वती नदी में आकर मिलती थी। इसके अतिरिक्त दो अन्य लुप्त हुई नदियां दृष्द्वती और हिरण्वती भी सरस्वती का सहायक नदियां थी, लगभग 1900 ईसा पूर्व तथा भू-गर्भी कदलाव की वजह से यमुना तथा सतलुज ने अपना मार्ग बदल लिया तथा दृषद्वती नदी के भी 2600 ई. पू. सूख जाने के कारण सरस्वती नदी लुप्त हो गयी।
    अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि सभी नदियां हिमालय की तलहटी से निकलकर मैदान में उतरी है।3 इनमें से कई नदियों का मार्ग जीन्द जनपद (दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र) के क्षेत्र में प्रवाहमान रही है। इन नदियों की पहचान समय की गति के अनुसार बदलती भी रही है। विद्वान भार्गव के मतानुसार दृषद्वती का मार्ग फलकी वन और कौशिकी के आसपास रहा है।4 यह भी कहना है कि महाभारत काल में दृषद्वती रौप्या नदी कहलाती थी।5
    यह भी प्रमाणित है कि परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि का आश्रम जिला जीन्द में स्थित जामनी गांव जो आज भी चैतंग नदी के तट पर है) में था।
    एतच्चर्चीक पुत्रस्य योगैर्विचरता महीम।
    प्रसर्पणं महीपाल रौप्यायाम मितौजसः।।
    महाभारत वन पर्व अ.-129 श्लोक-7 महाराज! योेग शक्ति स सारी पृथ्वी पर विचरने वाले महातेजस्वी ऋचीकनन्दन जमदग्नि का प्रसर्पण (घूमने फिरने का स्थान ) तीर्थ है, जो रौप्या नामक नदी के समीप (तट पर) सुशोभित है। एक अन्य मतानुसार वैदिक काल में उल्लेखित दृषद्वती का ही दूसरा नाम हिरण्वती नदी जाना गयी है। सम्भव है इसे रौप्या-दृषद्वती भी वर्णित किया जाता रहा हो?
    महाभारत में आये वर्णन में हिरण्वती नदी की कुरूक्षेत्र की पवित्र नदी के नाम से भी जाना गया है। इस नदी के तट पर ही भगवान श्री कृष्ण ने अपने शिविर का निर्माण कराया था। इस नदी का मार्ग भी फलकीवन से होकर सोमतीर्थ से (जीन्द होकर) रामहृद की ओर जाता है। एम.एल.भार्गव के मतानुसार भी हिरण्वती नदी की पहचान दृष्द्वती नदी की किसी शाखा के रूप में जो फलकीवन से होकर नीचे की ओर (दक्षिणांचल कुरूक्षेत्र में) बहती थी, के रूप में की गई है।
    नदियों के बहाव व स्थिति में यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि पाण्डव सेना के पड़ाव तथा शिविर कुरूक्षेत्र-भूमि के दक्षिणांचल अर्थात वर्तमान के जीन्द जनपद में ही रहे थे। इसी ही क्षेत्र में चल कर अर्जुन का रथ उत्तर की ओर (पुण्डरी-राजौन्द मध्य के आस-पास) दोनों सेनाओं के बीच में ले जाया गया था।
    इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का गूढ़ उपदेश (ज्ञान)पिपली के निकट, तरन्तुक यक्ष के पास, कुरूक्षेत्र के अन्तिम छोर पर, स्थाणेश्वर शहर के अति निकट, पेहवा मार्ग पर न देकर दोनों सेनाओं के मध्य मे, 48 कोस की परिधि की भूमि के माध्य में जो लगभग पुण्डरी-राजौन्द के बीच में पड़ता है, में दिया था।
    इस चिन्तनव शोधपूर्ण विषय को लेकर मैं सबसे अधिक दोषी दक्षिणांचल-कुरूक्षेत्र के विद्वानों, लेखकों व इतिहासकारों को अधिक मानता हूं, जिन्होंने इस विषय को लेकर ना तो संतोषपूर्ण कुछ लिखा है और नां ही ज्योतिसर के ऐतिहासिकभूगोलपर कभी कुछ शोधपरक टिप्पणी ही की है।

    सन्दर्भ
1.   ज्ञानामृत मासिक, सम्पादक जगदीश चन्द्र, वर्ष-11 अंक-12 अप्रैल 1976 पृष्ठ 37
2. 48 कोस कुरूक्षेत्र भूमि की परिक्रमा, कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड कुरूक्षेत्र, 1999, पृष्ठ-38
3. वामन पुराण अ. 13 श्लोक 19 से 22
4. M.L. Bhargava OP. cut, PP-57-58
5. महाभारत वनपर्व अ. 29 श्लोक-7
6.Sasanka Sehkar parui, Kurukshetra in the Vaman Purana, Punthi Pustak Calcutta, 1976 PP-36
6. M.L. Bhargava OP. cut, PP-58
रामशरण युयुत्सुश्री अंगिराशोध संस्थानशांति नगर, पटियाला चैकजीन्द-126102 (हरियाणा)

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