यह सत्य है कि सांसारिक वस्तुओं के साथ हमारा सम्बन्ध नित्य रहने वाला नहीं है। इन विषय भोगों को अधिकाधिक भोग कर कोई व्यक्ति अधिक स्थायी पूर्ण सुख प्राप्त नहीं कर सकता। उपर्युक्त सत्य के समान ही यह भी अटल सत्य है कि ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध सदा से था, आज भी और आगे भी रहेगा। इस सम्बन्ध में यजुर्वेद में मन्त्र है कि
यु×जानः प्रथमं मनस्तत्वाय सविता धियम
अग्ने ज्योर्तिर्निचाय्य प्रथिव्या अध्याभरत्
यजुर्वेद 33/3
पदार्थ (य×जानः) योग को करने वाले मनुष्य (तत्त्वाय) तत्त्व अर्थात ब्रह्मज्ञान के लिए (प्रथमं मनः) जब अपने मन को पहिले परमेश्वर में युक्त करते है। तब (सविता) परमेश्वर उनकी (धियमा बुद्धि को अपनी कृपा से अपने में युक्त कर लेता है (अग्ने ज्यो0) फिर वे परमेश्वर के प्रकाश को निश्चय करके (अध्याभरत) यथावत धारण करते है (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच भोगी का यही प्रसिद्ध लक्षण है। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका (उपासना विषय)
योग का महत्व - हम इस प्रकार से समझ सकते है कि प्रत्येक व्यक्ति समस्त दुःखों से छूटकर नित्यानन्द को प्राप्त करना चाहता है। जब तक व्यक्ति योग दर्शन में प्रतिपादित हेय, हेय हेतुः, हान औ हानोपाय के स्वरूप को अच्छी प्रकार से नहीं जानता तब तक समस्त दुःखों की निवृत्ति और नित्यानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।
आज के मनुष्य ने घोर पुरूषार्थ किया है और करता भी जा रहा है। सारी पृथिवी का स्वरूप ही बदल डाला है। तदुपरान्त भी वह समस्त दुःखों की निवृत्ति और नित्यानन्द की प्राप्ति नही कर पाया इसी प्रकार चलते रहने पर भविष्य मेें भी मुख्य लक्ष्य की प्राप्ति की कोई संभावना नहीं है।
आज का मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ईर्ष्या, द्वेषादि मानसिक रोगों से दुःखी है। जिसका समाधान वह केवल धन-सम्पत्ति वा भौतिक विज्ञान से करना चाहता है, जिससे कदापि संभव नहीं हो सकता। इन मानसिक रोगों का समाधान तो आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी अध्यात्म विद्या को पढ़ने-पढ़ाने सुनने-सुनाने और इसको क्रियात्मक रूप देने से ही सम्भव है अन्यथा नही।
आज वर्तमान में योग के स्थान पर योगा शब्द ही अधिक सुनने में आता है। इस योगा का व्यवहारिक रूप सामने यह आ रहा है, कि जब व्यक्ति सांसारिक भोगों को सुख की इच्छा से अभर्यादित रूप में भोगता तो उस कारण रोगी हो जाता है। तब कुछ शारीरिक व्यायामादि आसनों को करके भोगों को भोगने की क्षमता पुनः प्राप्त करने को योगा कहा जा रहा है। अर्थात् भोगों की इच्छा से प्रेरित व्यक्ति जब भोगने की क्षमता प्राप्त कर लेवे उसको योगा कहते है। परन्तु योग का यह तात्पर्य नहीं है। सामान्य भाषा में योग को जोड़ कहते है पर यह गणित के योग का अर्थ है। ठीक इसी प्रकार योग दर्शन के योग का अर्थ है ‘‘युज समाधौ’’ आत्मने पदी दिवादिगणीय धातु में ‘धम्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। अतः योग का अर्थ समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों निरोध है।
योग का स्वरूप क्या है। इसका समाधान समाधिपाद के दूसरे ही सूत्र में किया
योगश्चित्तवृत्ति निरोधः (यो0 1/2)
इसका शाब्दिक अर्थ है चित्त की वृत्तियों के निरोध को समाधि अर्थात् योग कहते है। इस सूत्र में चार शब्द है। (1) योग (2) चित्त (3) वृत्ति (4) निरोध पहला योग का अर्थ तो हम पूर्व ही जान चुके है। कि समाधि अर्थात् ईश्वर के स्वरूप में मग्नता है।
(2) चित्त को समझ कि यह क्या है। योग दर्शन में जो चित्त है वह मन का ही पर्यायवाची है। चित्त के दो कारण है- (1) अन्तः करण (2) बाह्यकरण अन्तःकरण के चार भेद जाने जाते है। मन बुद्धि चित्त व अहंकार। बाह्यकरण में 5 ज्ञानेन्द्रियां वा 5 कर्मेन्द्रियां आ जाती है। इसमें अन्तः करण मंे जो मन है वह इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को भीतर पहुँचाता है। तथा अन्दर संगृहित ज्ञान को बाहर पहुंचाता है। बुद्धि संगृहित ज्ञान के आधार पर पक्ष व विपक्ष में जो भारी हो उसका निर्णय देती है। चित्त वह होता है। जो बाहर से प्राप्त ज्ञान व स्मृति रूप में संगृहित करता है। अहंकार अपने होने पन का बोध कराता है। योग दर्शन में जिसे जिसे चित्त कहा जाता है, वह प्रकृति से बना पदार्थ है। प्रकृति का स्वभाव जड़ है। कारण के गुण कर्म स्वभाव कार्य में आते ही है। अतः चित्त एक जड़ पदार्थ है। यह सभी जीवों के पास होता है। परन्तु यह पांच अवस्था वाला है।
(1) क्षिप्त - चंचल अवस्था वाला
(2) मूढ़ - अज्ञान व मोह से ग्रस्त अवस्था है।
(3) विक्षिप्त - कभी स्थिर व कभी अस्थिर को कहते है।
(4) एकाग्र - अवस्थ जो स्थिर वाले चित्त को कहते है।
(5) निरूद्ध - सभी प्रभावों से रहित अवस्था वाला
इनमें से उत्तम योग निरूद्धावस्था में प्राप्त होता है। इस अवस्था में ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है, अन्य में नही अब तीसरा शब्द है। वृत्ति जिससे मन व चित्त अपना बाहर-भीतर करता है। उसे वृत्ति कहते है। वृत्तियों का मुख्य दो भाग होते है। एक क्लेश युक्त अथार्त दुःख पैदा करने वाली, दूसरी क्लेश रहित अर्थात दुःख पैदा न करने वाली इन्हे योग दर्शन की भाषा में क्लिष्ट और व अक्लिष्टा कहते है। जैसे कि योग दर्शन में कहा
वृत्तयः पंचतथ्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः। यो 1/5
अथार्त वृत्तिया पांच प्रकार की होती है। उनके भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट ये दो मुख्य विभाग है। जो वृत्तियों मनुष्य को अज्ञान, अधर्म, अनैश्वर्य तथा अवैराग्य की और ले जाती है। वे क्लिष्ट है अर्थात् दुःख देेने वाली, जो ज्ञान, धर्म, वैराग्य ईश्वर की ओर ले जाती हैवे अक्लिष्ट है।
हमारी वृत्तियों कहा जा रही है या हम उन्हें कहां भेज रहे हैं। कहा भेजना चाहिए व कैसे भेजना चाहिए इस कला का जानना ही योग है। काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि से सम्बन्धित कुसंस्कारों को नष्ट करने का उपाय वे विषय क्रमशः, हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय है। जिसको धारण कर मनुष्य सम्पुण दुःखों से बच सकता है।
(1) हेय - इस के स्वरूप का महर्षिपतंजलि जी ने योग दर्शन के सोलहवें सूत्र’’ हेय दुख मतागतम् मे स्पष्ट किया है। इसे इस प्रकार समझ छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि वह अब भोक्ता के समीप नहीं है। और जो दुःख वर्तमान क्षण में भोगा जा रहा है वह आगामी क्षण में नही रहेगा उसका भी त्याग नहीं हो सकता है। अतः एव जो भविष्य कालिक दुःख है वही छोड़ने योग है। इस दर्शन में इसी का पारिभाषिक नाम हेय उससे ही बचा जा सकता है।
हेयहेतु - द्रष्टृश्ययोः संयोगो हेय हेतु
योग दर्शन द्वितीय पाद 16 सूत्र
हेय हेतु का अर्थ है दुःख का कारण जीवात्मा का बुद्धि एव समस्त प्राकृतिक पदार्थो के साथ जो अज्ञान पूर्वक सम्बन्ध है वह हेय हेतु कहलाता है।
हान - तदभावत्संयोगाभावो हान मद्दृशेः कैवल्यम् (यो 2/25)
उस अविद्यादि क्लेशों का अभाव होने पर द्रष्टा (जीवात्मा) औ दृश्य (प्रकृति) के संयोग का अभाव हो जाता हैै। वह हान है, वही जीवात्मा का कैवल्य है।
हानोपाय- विवेकख्याति रविप्लवा हानोपायः योग 2/26
जब व्यक्ति को वैराग्य होता है तब उसका ज्ञान बढ़ता रहता है परन्तु लौकिक संस्कारों के कारण सम्प्रज्ञात समाधि मध्य मध्य में भंग होती रहती है। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि ईश्वर साक्षात्कार होते ही योगी मोक्ष का भागी नहीं होता। मोक्ष का अधिकारी बनने के लिए दीर्घ कापर्य अभ्यास की उपेक्षा रहती हैै। तथा यम-नियमों के पालन से ईश्वर प्रणि धानादि साधनों से अविप्लव अवस्था में ले जाना तथा मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति और पर वैराग्य की उत्पत्ति होती है। पर वैराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि और ईश्वर साक्षात्कार होता है। यह सब अभ्यास और वैराग्य के द्वारा निरोध किया जाता है। अभ्यास वैराग्यभ्यां तन्निरोधः यो 1/12 अभ्यास और वैराग्य से ही उसका निरोध हो सकता है। निरोध का अर्थ है प्रवाह को बदलना। यहां अनेक साधक भ्रमवश निरोध से रोकना अर्थ लेते है। जबकि चित्त को रोका नहीं जा सकता है। रोकने से तो दोगुनी और शक्ति से आक्रमण करता है। चित्तरूपी नही दो ओर बहने वाली है। एक कल्याण के लिए विवेक वैराग्य की ओर बहती है। और दूसरी पाप के लिए अज्ञान अविद्या एवं भोगों की ओर बहती है। कारण यह होता है कि अविधा भोगों वाले प्रवाह को विवेक व वैराग्य के बांध से रोककर कल्याण मार्ग की ओर प्रवाह को बदल देते है। परन्तु हठपूर्वक बलात्इन्द्रियों को रोकन वाले का तो वैसा ही हाल होगा जैसे नदी के प्रवाह को रोह देवें पर जल को किसी दूसरी और प्रवाहित न करें।
कालान्तर में जल उस बांध को तोडकर और भयंकर रूप में प्रवाहित होगा जो बाढ के समान विनाशकारी होगा निरोध का ऐसा अर्थ मानने वाले और गहरे गड्डे में जाते है । अत एवं निरोध का अर्थ हुआ ज्ञानपूर्वक विद्या पूर्वक प्रवाह को बदलना। अब सम्पूर्ण विवेचन से योग का मुख्य प्रयोजन सांसारिक दुःखों से छुटना है। जिसको विस्तार से कह दिया।
ब्र0 ज्ञान प्रकाशार्यः
आर्ष महाविद्यालय गुरूकुल कालवा
जिला जीन्द (हरियाणा)
सौजन्य से :
शांति धर्मी मासिक पत्रिका
यु×जानः प्रथमं मनस्तत्वाय सविता धियम
अग्ने ज्योर्तिर्निचाय्य प्रथिव्या अध्याभरत्
यजुर्वेद 33/3
पदार्थ (य×जानः) योग को करने वाले मनुष्य (तत्त्वाय) तत्त्व अर्थात ब्रह्मज्ञान के लिए (प्रथमं मनः) जब अपने मन को पहिले परमेश्वर में युक्त करते है। तब (सविता) परमेश्वर उनकी (धियमा बुद्धि को अपनी कृपा से अपने में युक्त कर लेता है (अग्ने ज्यो0) फिर वे परमेश्वर के प्रकाश को निश्चय करके (अध्याभरत) यथावत धारण करते है (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच भोगी का यही प्रसिद्ध लक्षण है। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका (उपासना विषय)
योग का महत्व - हम इस प्रकार से समझ सकते है कि प्रत्येक व्यक्ति समस्त दुःखों से छूटकर नित्यानन्द को प्राप्त करना चाहता है। जब तक व्यक्ति योग दर्शन में प्रतिपादित हेय, हेय हेतुः, हान औ हानोपाय के स्वरूप को अच्छी प्रकार से नहीं जानता तब तक समस्त दुःखों की निवृत्ति और नित्यानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।
आज के मनुष्य ने घोर पुरूषार्थ किया है और करता भी जा रहा है। सारी पृथिवी का स्वरूप ही बदल डाला है। तदुपरान्त भी वह समस्त दुःखों की निवृत्ति और नित्यानन्द की प्राप्ति नही कर पाया इसी प्रकार चलते रहने पर भविष्य मेें भी मुख्य लक्ष्य की प्राप्ति की कोई संभावना नहीं है।
आज का मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ईर्ष्या, द्वेषादि मानसिक रोगों से दुःखी है। जिसका समाधान वह केवल धन-सम्पत्ति वा भौतिक विज्ञान से करना चाहता है, जिससे कदापि संभव नहीं हो सकता। इन मानसिक रोगों का समाधान तो आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी अध्यात्म विद्या को पढ़ने-पढ़ाने सुनने-सुनाने और इसको क्रियात्मक रूप देने से ही सम्भव है अन्यथा नही।
आज वर्तमान में योग के स्थान पर योगा शब्द ही अधिक सुनने में आता है। इस योगा का व्यवहारिक रूप सामने यह आ रहा है, कि जब व्यक्ति सांसारिक भोगों को सुख की इच्छा से अभर्यादित रूप में भोगता तो उस कारण रोगी हो जाता है। तब कुछ शारीरिक व्यायामादि आसनों को करके भोगों को भोगने की क्षमता पुनः प्राप्त करने को योगा कहा जा रहा है। अर्थात् भोगों की इच्छा से प्रेरित व्यक्ति जब भोगने की क्षमता प्राप्त कर लेवे उसको योगा कहते है। परन्तु योग का यह तात्पर्य नहीं है। सामान्य भाषा में योग को जोड़ कहते है पर यह गणित के योग का अर्थ है। ठीक इसी प्रकार योग दर्शन के योग का अर्थ है ‘‘युज समाधौ’’ आत्मने पदी दिवादिगणीय धातु में ‘धम्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। अतः योग का अर्थ समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों निरोध है।
योग का स्वरूप क्या है। इसका समाधान समाधिपाद के दूसरे ही सूत्र में किया
योगश्चित्तवृत्ति निरोधः (यो0 1/2)
इसका शाब्दिक अर्थ है चित्त की वृत्तियों के निरोध को समाधि अर्थात् योग कहते है। इस सूत्र में चार शब्द है। (1) योग (2) चित्त (3) वृत्ति (4) निरोध पहला योग का अर्थ तो हम पूर्व ही जान चुके है। कि समाधि अर्थात् ईश्वर के स्वरूप में मग्नता है।
(2) चित्त को समझ कि यह क्या है। योग दर्शन में जो चित्त है वह मन का ही पर्यायवाची है। चित्त के दो कारण है- (1) अन्तः करण (2) बाह्यकरण अन्तःकरण के चार भेद जाने जाते है। मन बुद्धि चित्त व अहंकार। बाह्यकरण में 5 ज्ञानेन्द्रियां वा 5 कर्मेन्द्रियां आ जाती है। इसमें अन्तः करण मंे जो मन है वह इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को भीतर पहुँचाता है। तथा अन्दर संगृहित ज्ञान को बाहर पहुंचाता है। बुद्धि संगृहित ज्ञान के आधार पर पक्ष व विपक्ष में जो भारी हो उसका निर्णय देती है। चित्त वह होता है। जो बाहर से प्राप्त ज्ञान व स्मृति रूप में संगृहित करता है। अहंकार अपने होने पन का बोध कराता है। योग दर्शन में जिसे जिसे चित्त कहा जाता है, वह प्रकृति से बना पदार्थ है। प्रकृति का स्वभाव जड़ है। कारण के गुण कर्म स्वभाव कार्य में आते ही है। अतः चित्त एक जड़ पदार्थ है। यह सभी जीवों के पास होता है। परन्तु यह पांच अवस्था वाला है।
(1) क्षिप्त - चंचल अवस्था वाला
(2) मूढ़ - अज्ञान व मोह से ग्रस्त अवस्था है।
(3) विक्षिप्त - कभी स्थिर व कभी अस्थिर को कहते है।
(4) एकाग्र - अवस्थ जो स्थिर वाले चित्त को कहते है।
(5) निरूद्ध - सभी प्रभावों से रहित अवस्था वाला
इनमें से उत्तम योग निरूद्धावस्था में प्राप्त होता है। इस अवस्था में ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है, अन्य में नही अब तीसरा शब्द है। वृत्ति जिससे मन व चित्त अपना बाहर-भीतर करता है। उसे वृत्ति कहते है। वृत्तियों का मुख्य दो भाग होते है। एक क्लेश युक्त अथार्त दुःख पैदा करने वाली, दूसरी क्लेश रहित अर्थात दुःख पैदा न करने वाली इन्हे योग दर्शन की भाषा में क्लिष्ट और व अक्लिष्टा कहते है। जैसे कि योग दर्शन में कहा
वृत्तयः पंचतथ्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः। यो 1/5
अथार्त वृत्तिया पांच प्रकार की होती है। उनके भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट ये दो मुख्य विभाग है। जो वृत्तियों मनुष्य को अज्ञान, अधर्म, अनैश्वर्य तथा अवैराग्य की और ले जाती है। वे क्लिष्ट है अर्थात् दुःख देेने वाली, जो ज्ञान, धर्म, वैराग्य ईश्वर की ओर ले जाती हैवे अक्लिष्ट है।
हमारी वृत्तियों कहा जा रही है या हम उन्हें कहां भेज रहे हैं। कहा भेजना चाहिए व कैसे भेजना चाहिए इस कला का जानना ही योग है। काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि से सम्बन्धित कुसंस्कारों को नष्ट करने का उपाय वे विषय क्रमशः, हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय है। जिसको धारण कर मनुष्य सम्पुण दुःखों से बच सकता है।
(1) हेय - इस के स्वरूप का महर्षिपतंजलि जी ने योग दर्शन के सोलहवें सूत्र’’ हेय दुख मतागतम् मे स्पष्ट किया है। इसे इस प्रकार समझ छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि वह अब भोक्ता के समीप नहीं है। और जो दुःख वर्तमान क्षण में भोगा जा रहा है वह आगामी क्षण में नही रहेगा उसका भी त्याग नहीं हो सकता है। अतः एव जो भविष्य कालिक दुःख है वही छोड़ने योग है। इस दर्शन में इसी का पारिभाषिक नाम हेय उससे ही बचा जा सकता है।
हेयहेतु - द्रष्टृश्ययोः संयोगो हेय हेतु
योग दर्शन द्वितीय पाद 16 सूत्र
हेय हेतु का अर्थ है दुःख का कारण जीवात्मा का बुद्धि एव समस्त प्राकृतिक पदार्थो के साथ जो अज्ञान पूर्वक सम्बन्ध है वह हेय हेतु कहलाता है।
हान - तदभावत्संयोगाभावो हान मद्दृशेः कैवल्यम् (यो 2/25)
उस अविद्यादि क्लेशों का अभाव होने पर द्रष्टा (जीवात्मा) औ दृश्य (प्रकृति) के संयोग का अभाव हो जाता हैै। वह हान है, वही जीवात्मा का कैवल्य है।
हानोपाय- विवेकख्याति रविप्लवा हानोपायः योग 2/26
जब व्यक्ति को वैराग्य होता है तब उसका ज्ञान बढ़ता रहता है परन्तु लौकिक संस्कारों के कारण सम्प्रज्ञात समाधि मध्य मध्य में भंग होती रहती है। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि ईश्वर साक्षात्कार होते ही योगी मोक्ष का भागी नहीं होता। मोक्ष का अधिकारी बनने के लिए दीर्घ कापर्य अभ्यास की उपेक्षा रहती हैै। तथा यम-नियमों के पालन से ईश्वर प्रणि धानादि साधनों से अविप्लव अवस्था में ले जाना तथा मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति और पर वैराग्य की उत्पत्ति होती है। पर वैराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि और ईश्वर साक्षात्कार होता है। यह सब अभ्यास और वैराग्य के द्वारा निरोध किया जाता है। अभ्यास वैराग्यभ्यां तन्निरोधः यो 1/12 अभ्यास और वैराग्य से ही उसका निरोध हो सकता है। निरोध का अर्थ है प्रवाह को बदलना। यहां अनेक साधक भ्रमवश निरोध से रोकना अर्थ लेते है। जबकि चित्त को रोका नहीं जा सकता है। रोकने से तो दोगुनी और शक्ति से आक्रमण करता है। चित्तरूपी नही दो ओर बहने वाली है। एक कल्याण के लिए विवेक वैराग्य की ओर बहती है। और दूसरी पाप के लिए अज्ञान अविद्या एवं भोगों की ओर बहती है। कारण यह होता है कि अविधा भोगों वाले प्रवाह को विवेक व वैराग्य के बांध से रोककर कल्याण मार्ग की ओर प्रवाह को बदल देते है। परन्तु हठपूर्वक बलात्इन्द्रियों को रोकन वाले का तो वैसा ही हाल होगा जैसे नदी के प्रवाह को रोह देवें पर जल को किसी दूसरी और प्रवाहित न करें।
कालान्तर में जल उस बांध को तोडकर और भयंकर रूप में प्रवाहित होगा जो बाढ के समान विनाशकारी होगा निरोध का ऐसा अर्थ मानने वाले और गहरे गड्डे में जाते है । अत एवं निरोध का अर्थ हुआ ज्ञानपूर्वक विद्या पूर्वक प्रवाह को बदलना। अब सम्पूर्ण विवेचन से योग का मुख्य प्रयोजन सांसारिक दुःखों से छुटना है। जिसको विस्तार से कह दिया।
ब्र0 ज्ञान प्रकाशार्यः
आर्ष महाविद्यालय गुरूकुल कालवा
जिला जीन्द (हरियाणा)
सौजन्य से :
शांति धर्मी मासिक पत्रिका
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