‘‘नायमात्मा प्रवचनेन लक्ष्मी न मेघया न बहुनाश्रुतैन।’’
14 श्रावण संवत 1936 के दिन स्वामी दयानन्द बाँस बरेली पधारे। 3 भाद्रपद को चले गए। स्वामी महाराज को पहुँचते ही कोतवाल साहब को और हुकुम मिला कि पण्डित दयानन्द सरस्वमी के व्याख्यानों के अन्दर फिसाद को रोकने का बन्दोबस्त कर दे। पिता जी स्वयं सभा में गए और स्वामी जी महाराज के व्याख्यानों से ऐसे प्रभावित हुए कि उन के सत्संग से मुझ नारितक की संशय निवृत्ति का उन्हें विश्वास हो गया। रात को घर आते ही मुझे कहा-‘‘बेटा मुंशीराम! एक दण्डी सन्यासी आए है बडे विद्वान और योगीराज है। उनकी वक्तृता सुनकर तुम्हारे संशय दूर हो जायेंगे। कल मेरे साथ चलना। ‘‘उत्तर में कह तो दिया कि चलूंगा परन्तु मन में वहा भव रहा कि केवल संस्कृत जानने वाला साधु बुद्धि को बात क्या करेगा। दूसरे दिन बेगम बाग को कोठी में पिता जी के साळा पहुंचा जहां व्याख्यान हो रहा था। उस दिव्य आदित्य मूर्ति को देख कुछ श्रद्धा उत्पन्न हुई, परन्तु जब पादरी टी0 जे0 स्काट और दो तीन अन्य यूरोपियनों को उत्सुक्ता से बैठे देखा तो श्रद्धा टरे भी बढ़ी। अभी दस मिनट वक्तृता नहीं सुनी थी कि मन में विचार किया- ‘‘ यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते युक्तियुक्त बातें करता है कि विद्वान दंग हो जाये। व्याख्यान परमात्मा के निज नाम ओ3म् पर था। वह पहले दिन का आत्मि आह्याद कभी नही भूल सकता। नास्तिक रहते हुए भी आत्मिक आहाद में निमग्न कर देना ऋषि आत्मा का ही काम था।
उसी दिन दण्डी स्वामी से निवेदन किया गया कि टाऊन हाल मिल गया है इसलिए कल से व्याख्यान शुरू होंगे। स्वामी जी ने उच्च स्वर में कह दिया कि सवारी ठीक समय पर पहुँच जाया करेगी तो वह तैयार मिलेंगे।
टाउनहाल में जब तक ‘‘नमस्ते’’, ‘‘पोप’’, ‘‘पुराणो, जैनी, किरानी, कुरानी’’ इत्यादिक पुरानी परिभाषाओं का अर्थ बतलाते रहे तब तक तो पतिाजी श्रद्धा से सुनते रहे, परन्तु जब मूर्ति पूजा और और ईश्वरावतार का खण्डन होने लगा तो जहां एक ओर मेरी श्रद्धा बढ़ने लगी वहां पिता जी ने तो आना बन्द कर दिया और एक अपने मातहत थानेदार की ड्यूटी लगा दी। 24 अगस्त के दोपहर को ही बेगम बाग की कोठी पहुंच ड्योढ़ी पर बैठ जाता। 1।। और 4 बजे के बीच में जब ऋषि का दरबार लगता तो आज्ञा होते ही जो पहला मनुष्य आचार्य ऋषि को प्रणाम लेता रहता। व्याख्यान के लिए 20 मिनट से पहले सब दरबारी विदा हो जाते और आचार्य चलने की तैयारी कर लेते। मैं अपनी वेगनट पर सीधा टाउनहाल पहुंचा। व्याख्यान का दयानन्द की बग्धी उनके डेरे को और न चल देती। 25, 26, 27 अगस्त को ऋषि दयानन्द के पादरी स्काट के साथ तीन शास्त्रार्थ हुए। विषय प्रथम दिवस पुनर्जन्म, द्वितीय दिन ईश्वरावतार और तीसरे दिन मनुष्य के पाप बिना फल भुगता क्षमा किये जाते हैं या नहीं। पहले दो दिन लेखकों में मैं भी था। परन्तु दूसरी रात को मुझे सन्निपात ज्वर हो गया और फिर आचार्य दयानन्द के दर्शन में न कर सका। 30 श्रावण से 9 भाद्रपद (15 से 25 अगस्त) तक ऋषि जीवन सम्बन्धी अनेक घटनायें मैंने देखी, जिन में से उन्ही कुछ एक को यहां लिखूंगा जिनका प्रभाव मुझ पर ऐसा पड़ा कि अब तक मेरी आंखो के सामने घूम रही हैं।
मुझे आचार्य दयानन्द के सेवकों से मालूम हुआ कि वह नित्य प्रातः शौच से निवृत्त होकर, केवल कोपिन पहिरे लठ्ठ हाथ में लिए 3 बजे बाहर निकल जाते है और 6 बजे लौटकर आते हैं। मैंने निश्चय किया कि उनका पीछा करके देखना चाहिए कि बाहर वह क्या करते है। दबदब-ए कैसरी अखबार एडिटर भी मेरे साथ हो लिए। ठीक 3 बजे आचार्य चल दिए हम पीछे हो लिए पाव मील धीरे धीरे चलकर वह इस तेजी से चले कि मुझ सा शीघ्रगामी जवान भी उन्हे निगाह में न रख सका आगे तीन मार्ग फटते थे हमें कुछ पता न लगा कि किधर गए। दूसरे प्रातः काल में अढ़ाई बजे से ही घात में उस जगह छिपकर जा बैठे जहां से तीन मार्ग फटते थे। उस विशाल रूद्र मूर्ति को आते देख कर हम भागने को हो गए। वह तेज चलते थे और में पीछै भाग रहा था मेरे पीछे बनिए एडिटर भी लुढ़कते लुढ़कते आ रहे थे। बीच में एक आध मील की दौड में रूद्र स्वामी ने लगाई। परन्तु वहां मैदान था मैने भी उनको आंख से ओझल न होने दिया। अन्त को पाव मील धीरे धीरे चलकर एक पीपल के वृक्ष तले बैठ गये। घडी मिलाया तो पूरे डेढ़ घण्टे आसन जमाये समाधि में स्थित रहे। प्राणायाम करते नहीं प्रतीत हुए, आसन जमाते ही समाधि लग गई। उठकर दो अंगडाइयां ली और टहलते हुए तत्कालीन आश्रम की ओर चल दिए।
एक श्नीचर के व्याख्यान के पीछे श्रोतागण को बतलाया गया कि दूसरे दिन (आदित्यवार को) नियम समय से एक घण्टा पहले व्याख्यान शुरू होगा। आचार्य ने उसी समय कह दिया। यदि सवारी एक घण्टा पहले पहुँचेगी तो मैं उसी समय चलने को तैयार रहूँगा। आदित्यवार को लोग पिछले समय से डेढ़ घंटे पहले ही जमा होने लगे।
14 श्रावण संवत 1936 के दिन स्वामी दयानन्द बाँस बरेली पधारे। 3 भाद्रपद को चले गए। स्वामी महाराज को पहुँचते ही कोतवाल साहब को और हुकुम मिला कि पण्डित दयानन्द सरस्वमी के व्याख्यानों के अन्दर फिसाद को रोकने का बन्दोबस्त कर दे। पिता जी स्वयं सभा में गए और स्वामी जी महाराज के व्याख्यानों से ऐसे प्रभावित हुए कि उन के सत्संग से मुझ नारितक की संशय निवृत्ति का उन्हें विश्वास हो गया। रात को घर आते ही मुझे कहा-‘‘बेटा मुंशीराम! एक दण्डी सन्यासी आए है बडे विद्वान और योगीराज है। उनकी वक्तृता सुनकर तुम्हारे संशय दूर हो जायेंगे। कल मेरे साथ चलना। ‘‘उत्तर में कह तो दिया कि चलूंगा परन्तु मन में वहा भव रहा कि केवल संस्कृत जानने वाला साधु बुद्धि को बात क्या करेगा। दूसरे दिन बेगम बाग को कोठी में पिता जी के साळा पहुंचा जहां व्याख्यान हो रहा था। उस दिव्य आदित्य मूर्ति को देख कुछ श्रद्धा उत्पन्न हुई, परन्तु जब पादरी टी0 जे0 स्काट और दो तीन अन्य यूरोपियनों को उत्सुक्ता से बैठे देखा तो श्रद्धा टरे भी बढ़ी। अभी दस मिनट वक्तृता नहीं सुनी थी कि मन में विचार किया- ‘‘ यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते युक्तियुक्त बातें करता है कि विद्वान दंग हो जाये। व्याख्यान परमात्मा के निज नाम ओ3म् पर था। वह पहले दिन का आत्मि आह्याद कभी नही भूल सकता। नास्तिक रहते हुए भी आत्मिक आहाद में निमग्न कर देना ऋषि आत्मा का ही काम था।
उसी दिन दण्डी स्वामी से निवेदन किया गया कि टाऊन हाल मिल गया है इसलिए कल से व्याख्यान शुरू होंगे। स्वामी जी ने उच्च स्वर में कह दिया कि सवारी ठीक समय पर पहुँच जाया करेगी तो वह तैयार मिलेंगे।
टाउनहाल में जब तक ‘‘नमस्ते’’, ‘‘पोप’’, ‘‘पुराणो, जैनी, किरानी, कुरानी’’ इत्यादिक पुरानी परिभाषाओं का अर्थ बतलाते रहे तब तक तो पतिाजी श्रद्धा से सुनते रहे, परन्तु जब मूर्ति पूजा और और ईश्वरावतार का खण्डन होने लगा तो जहां एक ओर मेरी श्रद्धा बढ़ने लगी वहां पिता जी ने तो आना बन्द कर दिया और एक अपने मातहत थानेदार की ड्यूटी लगा दी। 24 अगस्त के दोपहर को ही बेगम बाग की कोठी पहुंच ड्योढ़ी पर बैठ जाता। 1।। और 4 बजे के बीच में जब ऋषि का दरबार लगता तो आज्ञा होते ही जो पहला मनुष्य आचार्य ऋषि को प्रणाम लेता रहता। व्याख्यान के लिए 20 मिनट से पहले सब दरबारी विदा हो जाते और आचार्य चलने की तैयारी कर लेते। मैं अपनी वेगनट पर सीधा टाउनहाल पहुंचा। व्याख्यान का दयानन्द की बग्धी उनके डेरे को और न चल देती। 25, 26, 27 अगस्त को ऋषि दयानन्द के पादरी स्काट के साथ तीन शास्त्रार्थ हुए। विषय प्रथम दिवस पुनर्जन्म, द्वितीय दिन ईश्वरावतार और तीसरे दिन मनुष्य के पाप बिना फल भुगता क्षमा किये जाते हैं या नहीं। पहले दो दिन लेखकों में मैं भी था। परन्तु दूसरी रात को मुझे सन्निपात ज्वर हो गया और फिर आचार्य दयानन्द के दर्शन में न कर सका। 30 श्रावण से 9 भाद्रपद (15 से 25 अगस्त) तक ऋषि जीवन सम्बन्धी अनेक घटनायें मैंने देखी, जिन में से उन्ही कुछ एक को यहां लिखूंगा जिनका प्रभाव मुझ पर ऐसा पड़ा कि अब तक मेरी आंखो के सामने घूम रही हैं।
मुझे आचार्य दयानन्द के सेवकों से मालूम हुआ कि वह नित्य प्रातः शौच से निवृत्त होकर, केवल कोपिन पहिरे लठ्ठ हाथ में लिए 3 बजे बाहर निकल जाते है और 6 बजे लौटकर आते हैं। मैंने निश्चय किया कि उनका पीछा करके देखना चाहिए कि बाहर वह क्या करते है। दबदब-ए कैसरी अखबार एडिटर भी मेरे साथ हो लिए। ठीक 3 बजे आचार्य चल दिए हम पीछे हो लिए पाव मील धीरे धीरे चलकर वह इस तेजी से चले कि मुझ सा शीघ्रगामी जवान भी उन्हे निगाह में न रख सका आगे तीन मार्ग फटते थे हमें कुछ पता न लगा कि किधर गए। दूसरे प्रातः काल में अढ़ाई बजे से ही घात में उस जगह छिपकर जा बैठे जहां से तीन मार्ग फटते थे। उस विशाल रूद्र मूर्ति को आते देख कर हम भागने को हो गए। वह तेज चलते थे और में पीछै भाग रहा था मेरे पीछे बनिए एडिटर भी लुढ़कते लुढ़कते आ रहे थे। बीच में एक आध मील की दौड में रूद्र स्वामी ने लगाई। परन्तु वहां मैदान था मैने भी उनको आंख से ओझल न होने दिया। अन्त को पाव मील धीरे धीरे चलकर एक पीपल के वृक्ष तले बैठ गये। घडी मिलाया तो पूरे डेढ़ घण्टे आसन जमाये समाधि में स्थित रहे। प्राणायाम करते नहीं प्रतीत हुए, आसन जमाते ही समाधि लग गई। उठकर दो अंगडाइयां ली और टहलते हुए तत्कालीन आश्रम की ओर चल दिए।
एक श्नीचर के व्याख्यान के पीछे श्रोतागण को बतलाया गया कि दूसरे दिन (आदित्यवार को) नियम समय से एक घण्टा पहले व्याख्यान शुरू होगा। आचार्य ने उसी समय कह दिया। यदि सवारी एक घण्टा पहले पहुँचेगी तो मैं उसी समय चलने को तैयार रहूँगा। आदित्यवार को लोग पिछले समय से डेढ़ घंटे पहले ही जमा होने लगे।
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