प्रिय पाठकवृन्द! देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए लाखों बलिदानियों ने आत्माहुति दी, पर दुःख के साथ कहना पड़ता है कि स्वतंत्रता के बाद स्वतंत्रता संग्राम के मुख्य यौद्धा माने जाने वाले महात्मा गांधी भी अपने ही लोगो (स्वदेशवासियों) की गोलियों का शिकार हुए। यह ऐसी हत्या थी, जिससे सारा राष्ट्र हिल गया। देशवासी शोक-सागर में डूब गये। सबके मुख से हत्यारे के लिए बद दुआएँ निकलने लगी। यह भी सत्य है कि 30 जनवरी 1948 की उस घटना से पूर्व बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भारत पहुँचे और मस्जिदों आदि में शरण लिये हुए जिन बेघर व पीड़ित लोगों को गाँधी जी ने पाकिस्तान वापस जाने के लिए कहा था उन्होंने तथा पाकिस्तान को 55 करोड रूपये दिलवाने के लिए गाँधी जी को मरने दो’ के नारे भी लगाए थे।
गांधी जी भी इस बात को अनुभव कर रहे थे कि अब कांग्रेस में उनकी कोई नही सुनता। नेहरू जी ने उनसे पूछे बिना ही भारत-विभाजन पर हस्ताक्षर कर दिये और ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’ की घोषणा करने वाले गांधी जी फिर भी जीवित रहे। यही नहीं जनता को पाकिस्तान न बनने देने का आश्वासन देने वाले गांधी जी ने स्वयं पाकिस्तान जाकर रहने की भी इच्छा व्यक्त की थी और इसके लिए उन्होंने शाहनवाज खान (आजाद हिन्द फौज) को अपने योग्य वातावरण बनाने के लिए पाकिस्तान भी भेज दिया था कि गांधी जी की हत्या कर दी गई।
अर्थात् इतना महत्त्वहीन व्यक्ति एक हत्यारे के काण विश्ववन्ध बन गया और हत्यारा अपनों व परायों में आज 66 वर्ष बाद भी घृणा की दृष्टि से देखा जा रहा है। आर्य समाज के विद्वान पं0 धर्मदेव विद्यावाचस्पति ने 10 फरवरी 1948 को अखिल भारतीय रेडियों से एक लम्बी कविता बोली थी, जिसकी कुछ पंक्तियां थी।
हाय दुष्ट हत्यारे तूने, कुछ भी तो न विचार किया,
सकल विश्व के मान्य महात्मा का निर्दय संहार किया।
तूने सारे जग में भारत का अतिशय अपकार किया,
विश्व मित्र उस शुभ विभूति को हर के अत्याचार किया।।
वे तो अमर हुए जगती पर, अपने शुभ गुण गण कारण,
सत्य अहिंसा, प्रेम, दया का, किया उन्होने व्रत धारण।
उनका नाम मिटा सकता तू, नहीं कभी भी ऐ दानव,
तूने अतिकृत्घ्नता दिखला, किया कलंकित पद मानव।।
बाद में स्वामी विद्यानन्द विदेह ने भी लिखा था-
‘‘गोड़से के इस कृत्य की जितनी निन्दा की जाये, उतनी ही थोड़ी है। इससे अधिक नादानी का अन्य कोई कार्य हो ही नहीं सकता था। मरे हुए को मारना कोई बुद्धिमानी न थी। प्रभावहीन होकर गांधी एक नगण्य व्यक्ति बन चुका था।
अपना प्रभाव और अपनी प्रतिष्ठा अपने ही हाथों गवां कर गांधी जीते जी इतना अधिक मर चुका था कि यदि वह अपनी स्वाभाविक मौत मरता तो उसकी कोई अधिकचर्चा न हुई होती। उसका बहुत साधारण मातम मनाया गया होता। गोडसे ने गांधी को शहीद बनाकर अनायास ही सारे संसार में पुजवा दिया और अपने आपको सदा के लिए इतिहास में धिक्कृत बना लिया।’’
स्वतंत्रता से पूर्व अर्थात इस घटना से लगभग 21 वर्ष पहले भी एक महात्मा की हत्या की गई थी। वे थे महात्मा मुंशीराम, जिन्हें गांधी जी अपना बड़ा भाई कहते थे; जिन्होंने दलितोद्धार द्वारा राष्ट्र को सामाजिक व शुद्धि आंदोलन से मजहबी गुलामी से स्वतंत्र कराने के लिए अपना बलिदान दिया। इन दोनो महात्माओं के जीवन में कुछ समानताएं और असमानताएं थी। एक दृष्टि उन पर डालते है।
समानताएँ- ये दोनो महत्मा अपने दुर्व्यसनों को पछाड़ कर ऊँचे उठे थे। दोनो वकील थे। दोनो की सत्य पर आस्था थी। दोनो समाज में आदरणीय थे। दोनों अहिंसावादी, आस्तिक व त्यागी थे। दोनो का उद्देश्य समाज व राष्ट्र उत्थान था।
दोनो छुआछुत विरोधी थे। दोनो देशभक्त थे। दोनो की हत्या वृद्धावस्था में की गई थी। दोनो के हत्यारों ाके फासी मिली थी।
असमानताएँ - गांधी जी समय-समय पर अंग्रेजों से सहयोग लेते व देते रहते थे। दक्षिण अफ्रीका के बोअर तथा जुलु युद्धो में अंग्रेजो की सहायता करने के कारण अंग्रेजों ने 1915 में उन्हे ‘केसर-ए-हिन्द’ का पदक दिया था। जबकि महात्मा मुंशीराम ने गुरूकुल कांगडी में सरकारी (अंग्रेजी ) पाठ्यक्रम लागू करने के बदले मिलने वाली सरकारी सहायता को ठुकरा दिया था।
2 गांधी जी राजनीति के कारण प्रसिद्ध हुए। (सम्भवतः) इसमें अंग्रेजों का हाथ हो, क्योंकि गांधी जी का अहिंसा अस्त्र अंग्रेजो की ढाल था। जबकि महात्मा मुंशीराम अपने त्याग-तपस्या से प्रसिद्ध हुए। महात्मा मुंशीराम लगभग 36 वर्ष की अवस्था में वानप्रस्थी और 60 वर्ष की अवस्था में सन्यासी बन गये, जबकि गांधी जी अंतिम समय (78 वर्ष) तक गृहस्थी ही रहे। यद्यपि कस्तुरबा का देहान्त 1944 ई0 में हो गया था।
4 गांधी जी ने हिन्दुओं के साथ-साथ मुस्लिमों का भी पूज्य बनने लिए सिद्धान्त हीनता (मुस्लिम तुष्टीकरण) का सहारा लिया, जबकि स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए जामा मस्जिद में वेद मंत्र बोलकर हिन्द-मुस्लिम एकता का संदेश दिया।
5 गांधी जी मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम में सहयोगी बनाने के लिए उनकी हर उचित-अनुचित माँग मानकर उनकी अलगाववादी भावना को बढाते रहे, जो पाकिस्तान लेकर भी शांत नहीं हुई। जबकि स्वामी श्रद्धानन्द खिलाफत आंदोलन की असफलता से उत्पन्न मोपला विद्रोह (मालाबार ) में मुस्लिमों द्वारा किये गये हिन्दुओं के कत्ले आम, आगजनी व धर्म-परिवर्तन को देखकर न केवल खिलाफत से अलग हुए, अपितु शुद्धि (मुस्लिमों को पुनः हिन्दु बनाना ) और दलितोद्धार (दलितोें का सामाजिक व आर्थिक शोषण बंद कर समानता का अधिकार देना) को बढ़ावा देकर उन मुल्लाओं (मोहम्मद अली व शौकत अली) के सपनों पर पानी फेरने लगे, जो सात करोड़ दलितों को हिन्दु-मुस्लिम में आधा-आधा बाँटने की योजना बना रहेथे।
6 गांधी जी देश को स्वतंत्र कराने के लिए बार-बार आन्दोलन चलाते थे, पर अंग्रेजो को मुसीबत में देखकर आंदोलन वापिस ले लेते थे। अतः उनकी इस नीति के कारण लाला-लाजपतराय, सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय जैसे क्रांतिकारी व अहिंसावादी भी उनसे अलग हो गये। यहां तक कि मोहम्मद अली जिन्ना जैसा राष्ट्रवादी व्यक्ति भी कट्टर अलगाववादी बन गया। जबकि स्वामी श्रद्धानन्द ने गहरे मतभेद होते हुए भी देश-धर्म के हितैषी लोगों (लाला लाजपत राय, महात्मा हंसराज आदि) को सदा साथ रखा। दलितोद्धार के प्रश्न पर कांग्रेस से मतभेद होने के कारण त्यागपत्र दे दिया, फिर भी कांग्रेस के अधिवेशनों में अपना संदेश भेजते रहे, ताकि दलितोद्धार कांग्रेस का विषय बन जाये और दलितों का जीवन स्तर ऊँचा उठे। बलिदान से एक दिन पहले (22 दिसम्बर 1926 ई0) भी स्वामी जी ने गोहाटी के कांग्रेस अधिवेशन में अपना संदेश भेजा था-‘भारत का भावी सुख हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आश्रित है।’
Hindi Sahitya ! Indian Sahitya ! Indian Culture ! Bhartiya Sanskriti ! Jai Tiwari !Traditions and Customs of India ! Incredible India ! Amazing Facts about India ! India At world ! Intersting Things & Stuff about India!
0 Comments