प्रिय पाठकवृन्द! पूर्व पंक्तियों में हमने एक महात्मा (मुंशीराम) की हत्या के कारणों की चर्चा की। अब दूसरे महात्मा श्(गाँधी) की हत्या के कारणों को देखते हैं। गाँधी जी की हत्या के कारण स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के कारणों से भिन्न थे। वहाँ हत्यारा अलग धर्म (मजहब) का था, जबकि यहाँ हत्यारा उसी धर्म का है। यहीं नहीं, यदि महात्मा गांधी महान देशभक्त थे, तो उनका हत्यारा भी अपने आपको देशभक्त बताता है। फिर वे कौन से कारण रहे, जो एक देशभक्त को हत्यारे की अवस्था तक ले आये और हत्यारा भी ऐसा कि जिसके अदालती बयान को सुनकर श्रोता रो पड़े और सरकार (स्वदेशी) डर गई। इसी कारण वह बयान लगभग 50 वर्ष तक प्रतिबन्धित रहा। अब खुले दिन से उन कारणों पर चर्चा करते हैं- गांधी जी की हत्या होने में मुख्य कारण बना पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दिलाने के लिए अनशन करना। हो सकता है कि गांधी अध्यात्म की उस उच्च अवस्था तक पहुंच गये हो, जहाँ मित्र, शत्रु व उदासीन की सभी सीमाएँ समाप्त हो जाती है, अपने-पराये की भावना नष्ट होकर केवल आत्मस्वरूप नजर आता है। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रहित पर आक्रमण करने वाले मुस्लिम व ईसाई से भी प्रेम किया। अंग्र्रेजो को मुसीबत में देखकर आंदोलन बन्द कर दिये। मुस्लिमों द्वारा हिन्दुओं पर किये गये अत्याचार व धर्मान्तरण के विरूद्ध शब्द भी नहीं बोला। यहीं नहीं, जब उनका बेटा हरिलाल इस्लाम ग्रहण कर अब्दुल्ला बन गया, तो भी उन्हे कोई आश्चर्य या दुःख नहीं हुआ, पर उनकी महानता पर संदेह तब होता है जब वे आर्यसमाज के शुद्धि आंदोलन का विरोध करते है। स्वामी दयानन्द को संकुचित विचार वाला और सत्यार्थ प्रकाश को निराशाजनक पुस्तक कहते-कहते वेदों (जिन्हें उन्होंने कभी नहीं पढ़ा) की आलोचना करने लगते है। महर्षि दयानन्द की आलोचना में मुसलमानों द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘उन्नीसवीं सदा का महर्षि’ के विरूद्ध एक शब्द भी नहीं बोलते और उसके उत्तर में प्रकाशित ‘रंगीला रसूल’ की जी भर कर निन्दा करते है।
जनरल डायर और अब्दुल रशीद जैसे हत्यारों के प्रति करूणा का भाव रखते हैं, पर वीर सावरकर, भगतसिंह, श्चीन्द्रनाथ सान्याल, नेताजी सुभाष आदि देशभक्तों का डटकर विरोध करते हैं। फिर भी इस देश को सहनशील हिन्दू गाँधी जी को देवता मानते रहे, पर उनके धैर्य का बांध तब टूट गया, जब गाँधी जी उन्हें बार-बार ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’ का आश्वासन दते रहे और गाँधी जी के जीते जी पाकिस्तान बन गया। पाकिस्तान से हिन्दुओं के अपने घर-बार, खेत-बाग सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा। लाखो लोगों को मुस्लिमों की क्रूरता के कारण अपनी जान से हाथ धोने पड़े, उनकी माँ-बहनों की इज्जत लूटी गई; कितनों को इस्लाम स्वीकार करना पड़ा और जो बड़ी मुश्किलसे जान बचाकर भारत पहुंचे, उन्हे गाँधी जी पाकिस्तान वापस जाने के लिए कहने लगे और पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमों को यहीं रहने की प्रार्थना की, यहीं नहीं जो चले गये थे, उन्हें भी वापस आने के लिए कहनेलगे। तब उन पीड़ितों ने पूछा- बापू, जब यही करना था, तो देश बँटवाया क्यो? विभाजन के विरोध में अनशन क्यों नहीं किया? सत्य के पुजारी को तो अपनी जान दे देनी चाहिए थी।
देश-विभाजन के घाव की पीड़ा को देशवासी बड़ी मुश्किल से सहन कर रहेथे कि गाँधी जी ने उस घाव पर नमक छिड़क दिया। जिस पाकिस्तान से उन्हें यह विनाश मिला था, जो पाकिस्तान उनके देश (कश्मीर) पर आक्रमण कर रहा था फिर उसी पाकिस्तान को ऐसी परिस्थिति में 55 करोड़ रूपये देने के लिए गाँधी जी ने भारत सरकार पर दबाव डाला। नेहरू जी ने भी मना करते हुए कहा कि भारत की उससे कहीं अधिक (275 करोड़) रकम पाकिस्तान के जिम्मे निकलती है। अतः नकद अदायगी का कोई प्रश्न नहीं उठता।
पर गाँधी जी नहीं माने और अनशन शुरू कर दिया। गाँधी जी का यह कदम स्पष्टतः भारत के लिए बहुत घातक था और किसी भी देशभक्त की दृष्टि में यह उचित नहीं था। देश के सभी नेता मना कर रहे थे, पर गाँधी जी के प्राण बचाने के लिए 18 जनवरी 1948 को यह रूपया पाकिस्तान को देना पड़ा। गाँधी जी के इस व्यवहार से भारत के बच्चे से लेकर बड़े नेता तक गाँधी जी के प्रति अनास्था हो गई। बड़े से बड़े कांग्रेसी नेता भी यह कहने लगे थे कि अब तो गाँधी जी संन्यास लेकर हिमालय की किसी गुहा में जा बैठें तो अच्छा हो।’’ साधारण हिन्दू जनता कहने लगी थी कि अब तो भगवान गाँधी जी को अपने पास बुला लें तो अच्छा हो।’’
भारत के कानों में तो अभी अंग्रेजों के अन्याय का विरोध करने वाले क्रान्तिकारियों के गोले-गोलियों की आवाज गूँज रही थी। सम्भवतः उन्हीं में से किसी को लगा हो कि गाँधी जी भारत के साथ अन्याय कर रहे हैं और इस अन्याय का विरोध होना चाहिए। इसलिए 20 जनवरी 1948 को मदन लाल पाहवा नामक युवक ने गाँधी जी की प्रार्थना सभा में बम फैंका। जिससे पास की दीवार को छोड़कर किसी का कोई नुकसान नहीं हुआ।
30 जनवरी को मराठा युवक नाथूराम गोडसे ने शाम को प्रार्थना सभा में पहुँचकर गाँधी जी को तीन गोलियाँ मार दीं। सभी सहम गये। उस अफरा-तफरी में हत्यारा भाग सकता था, पर वह भागा नहीं, बल्कि एक के बाद एक गोलियाँ चलाने के उपरान्त उसने अपना पिस्तौल वाला हाथ ऊपर उठाया। और पुलिस-पुलिस चिल्लाने लगा। कोई आधा मिनट बीतने पर भी कोई उसके पास फटकने का साहस नहीं कर पा रहा था। उसने स्वेच्छा से पुलिस को आत्मसमर्पण किया, ताकि भगत सिंह की तरह न्यायालय में अपने कृत्य का औचित्य सिद्ध कर सके।
प्रतिक्रिया - गाँधी जी की हत्या होते ही देश में भूचाल-सा आ गया। हत्यारे का स्वयं राष्ट्रीय सेवक संघ से सम्बन्ध बताकर नेहरू सरकार ने 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया व संघ के सरचालक गुरु गोलवलकर के साथ (1 फरवरी) हजारों लोगों को जेल में ठूँस दिया। संघ से सम्बन्ध रखने वाले असंख्य सरकारी नौकरों को बर्खास्त कर दिया गया। आदेश जारी कर दिये गये कि जिस किसी भी सरकारी मुलाजिम की संघ से जरा भी हमदर्दी हो, उसे तुरन्त नौकरी से हटा दिया जाए। ऐसे समय में गोलवलकर जी ने अपने मस्तिष्क को नितान्त शीतल रखकर जेल जाते हुए आदेश दे दिया कि संघ की सब शाखायें एकदम बंद कर दी जायें और देश में संघ की ओर से किसी प्रकार की उत्तेजना न फैलाई जाये।
हत्यारे नथूराम गोडसे के अतिरिक्त उनके भाई गोपाल गोडसे तथा अन्य नारायण आपटे, विष्णु करकरके, दिगम्बर बागड़े व मदनलाल पाहवा (बम केस) आदि को भी इस हत्याकांड के आरोप में बंदी बनाया गया था। ‘हत्यारे ने गाँधी जी की हत्या वीर सावरकर की प्रेरणा से की है’ ऐसी कल्पना कर गुण्डों ने मुम्बई में तथा देश के अनेक भागों में भी हिंसा का नंगा खेल खेला। चित पावन ब्राह्मणों के घरों में आग लगाई गई, उन्हें लूटा गया। सावरकर सदन पर आक्रमण कर पत्थरबाजी की। शिवाजी पार्क में नारायण सावरकर को इतना घायल किया कि निरतन्तर अस्वस्थ रहकर वे 19 अक्तूबर 1949 को स्वर्ग सिधार गये। रोग की अवस्था में ही 5 फरवरी को वीर सावरकर को बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया गया।
गाँधी-हत्याकाण्ड में लेशमात्र भी हाथ न होने के कारण गुरु गोलवलकर जी को 6 अगस्त 1948 को कुछ प्रतिबन्धों सहित रिहा कर दिया गया। 13 अक्तूबर को वे प्रतिबन्ध भी हटा लिये गये। 12 नवम्बर को गुरु जी को पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। अब उनकी मुक्ति के लिए संघ ने आन्दोलन शुरू किया और लगभग 60 हजार स्वयंसेवकों ने जेल भरी। 12 जुलाई 1949 को संघ से प्रतिबन्ध हटा और अगले दिन गुरु जी मुक्त हो गये।
मुकदमे की सुनवाई मई 1948 के अंत में दिल्ली के लाल किले में हुई। नथूराम गोडसे, आपटे, मदन पाहवा, गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, डॉ0 दत्तात्रेय परचुरे, शंकर किस्तैया, दिगम्बर बागड़े आदि को जेलों से लाकर 20 मई को ही लाल किले में बंद कर दिया गया था। बागड़े पुलिस के बहकावे में जा गया और उसने बयान दिया कि नथूराम गोडसे और आपटे ने गाँधी जी की हत्या के लिए सावरकर से आशीर्वाद लिया था। यह बयान सब अखबारों में छप गया। नेहरू सरकार सावरकर की छवि बिगाड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही थी।
8 नवम्बर को गोडसे और आपटे ने अदालत में अपना बयान देते हुए कहा कि इस हत्या से सावरकर जी का कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दुओं की दुर्दशा करने तथा पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपया देने के गाँधी जी के प्रयासों से दुःखी होकर यह कदम उठाना पड़ा। गोडसे ने साफ-साफ कहा कि वह कोई अंधविश्वासी व्यक्ति नहीं है, जो हत्या से पहले किसी का आशीर्वाद माँगने जाता। उसने अपने पूरे होशोहवाश में व्यक्तिगत रूप से गाँधी जी की हत्या का फैसला लिया और हत्या की।’’ यह ऐतिहासिक बयान सरकार ने जब्त कर लिया।
20 नवम्बर 1948 को वीर सावरकर ने अदालत में अपना 52 पृष्ठ का बयान प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया था कि गाँधी जी की हत्या के मामले में उन्हें जान-बूझकर फंसाया गया। यह ठीक है कि वे गाँधी जी के विचारों से कभी सहमत नहीं रहे ओर भविष्य में भी कभी सहमत नहीं होंगे, परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे हत्या जैसे जघन्य कर्म पर उतर आते। मोरार जी देसाई भी एक गवाह थे, जिनके कथन की सावरकर ने अपने वक्तव्य में बहुत खिल्ली उड़ाई।
10 फरवरी 1949 को हत्याकांड के विशेष न्यायाधीश जस्टिस आत्माचरण ने निर्णय दिया-‘‘सावरकर ने देश के लिए बहुत कुछ भुगता। इस बात की जाँच होनी चाहिए कि ऐसे महान नेता का नाम इस हत्याकांड में क्यों घसीटा गया?’’
सरकार को तो पहले ही अहसास था, अतः सावरकर के ससम्मान मुक्त हो जाने के बाद भी सरकार ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में कोई चुनौती नहीं दी और सावरकर ने भी देशहित को देखते हुए सरकार पर मानहानि का दावा नहीं किया।
10 फरवरी 1949 को वीर सावरकर ससम्मान मुक्त किये गये, नथूराम गोडसे और आपटे को फाँसी तथा अन्य अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। अभियुक्तों ने उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय ने डॉ0 परचुरे और शंकर किस्तैया को दोषमुक्त ठहराया व फाँसी की सजा प्राप्त दूसरे अभियुक्त आपटे की सजा में नरमी बरतने के लिए सरकार से अनुशंसा की क्योंकि उसने न तो हत्याभियुक्त के साथ गोली चलाई थी और न वह हत्या वाले दिन हत्यास्थल से पकड़ा गया था, पर सरकार ने स्वीकार नहीं की। 22 जून 1949 को उच्च न्यायालय ने विष्णु करकरे, मदन लाल पाहवा और गोपाल गोडसे (नथूराम के छोटे भाई) को आजीवन कारावास तथा नथूराम और नारायण आपटे को फाँसी का दण्ड सुनाया।
15 नवम्बर 1949 को अम्बाला सेंट्रल जेल में सुबह 8 बजे नथूराम गोडसे और आपटे ने अपने माता-पिता के चित्रों की पूजा, क्योंकि सरकार ने गोडसे को मरणासन्न वृद्ध माता-पिता के अंतिम दर्शन करने की अनुमति नहीं दी थी। इसके बाद वे दोनों हाथों में गीता और भगवाध्वज लेकर व अखण्ड भारत का मानचित्र छाती से लगाए ‘वन्दे मातरम्’ और ‘अखण्ड भारत अमर रहे’ के नारे लगाते हुए सहर्ष फाँसी चढ़ गये।
गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे और मदन लाल पाहवा 17 वर्ष का आजीवन कारावास बिताकर श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के समय 13 अक्तूबर 1964 को जेल से मुक्त हुए, पर नथूराम गोडसे का वह ऐतिहासिक अदालती बयान तब भी मुक्त नहीं हो पाया, जिसमें उसने कहा थाः-
‘‘यदि देशभक्ति पाप है तो मैं मानता हूँ कि मैंने पाप किया है। यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ। मुझे विश्वास है कि मनुष्यों द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर अगर कोई न्यायालय है, तो उसमें मेरे काम को अपराध नहीं समझा जावेगा। मैंने देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया।’’
प्रिय पाठकवृन्द! ‘दो महात्मा और उनके हत्यारे’ लेख के माध्यम से हमने इतिहास का अवलोकन किया। दो घटनाओं की पृष्ठभूमि और प्रतिक्रिया देखी। घटना तो पहले हो चुकी होती है। बाद वाले लोग तो अपने-अपने दृष्टिकोण से उन्हें देखते भर हैं। कौन सही है और कौन गलत, इसका निर्णय सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से करते हैं। जहाँ सामान्य व्यक्ति एक क्ष को सुनकर या पढ़कर ही किसी के विषय में अच्छी-बुरी धारणा बना लेता है, वहीं विचारशील व्यक्ति दोनों पक्षों पर चिन्तन कर निर्णय करता है। इसीलिए प्रबुद्ध पाठकों की सेवा में दोनों पक्ष रखने का प्रयास किया है, ताकि हम घटना के साथ कारण को भी देखें। क्योंकि कारण ही किसी घटना को लज्जा या सम्मान का विषय बनाते हैं। फिर भी दृष्टिकोण मुख्य है।
Hindi Sahitya ! Indian Sahitya ! Indian Culture ! Bhartiya Sanskriti ! Jai Tiwari !Traditions and Customs of India ! Incredible India ! Amazing Facts about India ! India At world ! Intersting Things & Stuff about India!
राजेशार्य आट्टा
1166, कच्चा किलो
साढौरा (यमुनानगर)
सौजन्य से : शान्तिधर्मी पत्रिका
जनरल डायर और अब्दुल रशीद जैसे हत्यारों के प्रति करूणा का भाव रखते हैं, पर वीर सावरकर, भगतसिंह, श्चीन्द्रनाथ सान्याल, नेताजी सुभाष आदि देशभक्तों का डटकर विरोध करते हैं। फिर भी इस देश को सहनशील हिन्दू गाँधी जी को देवता मानते रहे, पर उनके धैर्य का बांध तब टूट गया, जब गाँधी जी उन्हें बार-बार ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’ का आश्वासन दते रहे और गाँधी जी के जीते जी पाकिस्तान बन गया। पाकिस्तान से हिन्दुओं के अपने घर-बार, खेत-बाग सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा। लाखो लोगों को मुस्लिमों की क्रूरता के कारण अपनी जान से हाथ धोने पड़े, उनकी माँ-बहनों की इज्जत लूटी गई; कितनों को इस्लाम स्वीकार करना पड़ा और जो बड़ी मुश्किलसे जान बचाकर भारत पहुंचे, उन्हे गाँधी जी पाकिस्तान वापस जाने के लिए कहने लगे और पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमों को यहीं रहने की प्रार्थना की, यहीं नहीं जो चले गये थे, उन्हें भी वापस आने के लिए कहनेलगे। तब उन पीड़ितों ने पूछा- बापू, जब यही करना था, तो देश बँटवाया क्यो? विभाजन के विरोध में अनशन क्यों नहीं किया? सत्य के पुजारी को तो अपनी जान दे देनी चाहिए थी।
देश-विभाजन के घाव की पीड़ा को देशवासी बड़ी मुश्किल से सहन कर रहेथे कि गाँधी जी ने उस घाव पर नमक छिड़क दिया। जिस पाकिस्तान से उन्हें यह विनाश मिला था, जो पाकिस्तान उनके देश (कश्मीर) पर आक्रमण कर रहा था फिर उसी पाकिस्तान को ऐसी परिस्थिति में 55 करोड़ रूपये देने के लिए गाँधी जी ने भारत सरकार पर दबाव डाला। नेहरू जी ने भी मना करते हुए कहा कि भारत की उससे कहीं अधिक (275 करोड़) रकम पाकिस्तान के जिम्मे निकलती है। अतः नकद अदायगी का कोई प्रश्न नहीं उठता।
पर गाँधी जी नहीं माने और अनशन शुरू कर दिया। गाँधी जी का यह कदम स्पष्टतः भारत के लिए बहुत घातक था और किसी भी देशभक्त की दृष्टि में यह उचित नहीं था। देश के सभी नेता मना कर रहे थे, पर गाँधी जी के प्राण बचाने के लिए 18 जनवरी 1948 को यह रूपया पाकिस्तान को देना पड़ा। गाँधी जी के इस व्यवहार से भारत के बच्चे से लेकर बड़े नेता तक गाँधी जी के प्रति अनास्था हो गई। बड़े से बड़े कांग्रेसी नेता भी यह कहने लगे थे कि अब तो गाँधी जी संन्यास लेकर हिमालय की किसी गुहा में जा बैठें तो अच्छा हो।’’ साधारण हिन्दू जनता कहने लगी थी कि अब तो भगवान गाँधी जी को अपने पास बुला लें तो अच्छा हो।’’
भारत के कानों में तो अभी अंग्रेजों के अन्याय का विरोध करने वाले क्रान्तिकारियों के गोले-गोलियों की आवाज गूँज रही थी। सम्भवतः उन्हीं में से किसी को लगा हो कि गाँधी जी भारत के साथ अन्याय कर रहे हैं और इस अन्याय का विरोध होना चाहिए। इसलिए 20 जनवरी 1948 को मदन लाल पाहवा नामक युवक ने गाँधी जी की प्रार्थना सभा में बम फैंका। जिससे पास की दीवार को छोड़कर किसी का कोई नुकसान नहीं हुआ।
30 जनवरी को मराठा युवक नाथूराम गोडसे ने शाम को प्रार्थना सभा में पहुँचकर गाँधी जी को तीन गोलियाँ मार दीं। सभी सहम गये। उस अफरा-तफरी में हत्यारा भाग सकता था, पर वह भागा नहीं, बल्कि एक के बाद एक गोलियाँ चलाने के उपरान्त उसने अपना पिस्तौल वाला हाथ ऊपर उठाया। और पुलिस-पुलिस चिल्लाने लगा। कोई आधा मिनट बीतने पर भी कोई उसके पास फटकने का साहस नहीं कर पा रहा था। उसने स्वेच्छा से पुलिस को आत्मसमर्पण किया, ताकि भगत सिंह की तरह न्यायालय में अपने कृत्य का औचित्य सिद्ध कर सके।
प्रतिक्रिया - गाँधी जी की हत्या होते ही देश में भूचाल-सा आ गया। हत्यारे का स्वयं राष्ट्रीय सेवक संघ से सम्बन्ध बताकर नेहरू सरकार ने 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया व संघ के सरचालक गुरु गोलवलकर के साथ (1 फरवरी) हजारों लोगों को जेल में ठूँस दिया। संघ से सम्बन्ध रखने वाले असंख्य सरकारी नौकरों को बर्खास्त कर दिया गया। आदेश जारी कर दिये गये कि जिस किसी भी सरकारी मुलाजिम की संघ से जरा भी हमदर्दी हो, उसे तुरन्त नौकरी से हटा दिया जाए। ऐसे समय में गोलवलकर जी ने अपने मस्तिष्क को नितान्त शीतल रखकर जेल जाते हुए आदेश दे दिया कि संघ की सब शाखायें एकदम बंद कर दी जायें और देश में संघ की ओर से किसी प्रकार की उत्तेजना न फैलाई जाये।
हत्यारे नथूराम गोडसे के अतिरिक्त उनके भाई गोपाल गोडसे तथा अन्य नारायण आपटे, विष्णु करकरके, दिगम्बर बागड़े व मदनलाल पाहवा (बम केस) आदि को भी इस हत्याकांड के आरोप में बंदी बनाया गया था। ‘हत्यारे ने गाँधी जी की हत्या वीर सावरकर की प्रेरणा से की है’ ऐसी कल्पना कर गुण्डों ने मुम्बई में तथा देश के अनेक भागों में भी हिंसा का नंगा खेल खेला। चित पावन ब्राह्मणों के घरों में आग लगाई गई, उन्हें लूटा गया। सावरकर सदन पर आक्रमण कर पत्थरबाजी की। शिवाजी पार्क में नारायण सावरकर को इतना घायल किया कि निरतन्तर अस्वस्थ रहकर वे 19 अक्तूबर 1949 को स्वर्ग सिधार गये। रोग की अवस्था में ही 5 फरवरी को वीर सावरकर को बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया गया।
गाँधी-हत्याकाण्ड में लेशमात्र भी हाथ न होने के कारण गुरु गोलवलकर जी को 6 अगस्त 1948 को कुछ प्रतिबन्धों सहित रिहा कर दिया गया। 13 अक्तूबर को वे प्रतिबन्ध भी हटा लिये गये। 12 नवम्बर को गुरु जी को पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। अब उनकी मुक्ति के लिए संघ ने आन्दोलन शुरू किया और लगभग 60 हजार स्वयंसेवकों ने जेल भरी। 12 जुलाई 1949 को संघ से प्रतिबन्ध हटा और अगले दिन गुरु जी मुक्त हो गये।
मुकदमे की सुनवाई मई 1948 के अंत में दिल्ली के लाल किले में हुई। नथूराम गोडसे, आपटे, मदन पाहवा, गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, डॉ0 दत्तात्रेय परचुरे, शंकर किस्तैया, दिगम्बर बागड़े आदि को जेलों से लाकर 20 मई को ही लाल किले में बंद कर दिया गया था। बागड़े पुलिस के बहकावे में जा गया और उसने बयान दिया कि नथूराम गोडसे और आपटे ने गाँधी जी की हत्या के लिए सावरकर से आशीर्वाद लिया था। यह बयान सब अखबारों में छप गया। नेहरू सरकार सावरकर की छवि बिगाड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही थी।
8 नवम्बर को गोडसे और आपटे ने अदालत में अपना बयान देते हुए कहा कि इस हत्या से सावरकर जी का कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दुओं की दुर्दशा करने तथा पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपया देने के गाँधी जी के प्रयासों से दुःखी होकर यह कदम उठाना पड़ा। गोडसे ने साफ-साफ कहा कि वह कोई अंधविश्वासी व्यक्ति नहीं है, जो हत्या से पहले किसी का आशीर्वाद माँगने जाता। उसने अपने पूरे होशोहवाश में व्यक्तिगत रूप से गाँधी जी की हत्या का फैसला लिया और हत्या की।’’ यह ऐतिहासिक बयान सरकार ने जब्त कर लिया।
20 नवम्बर 1948 को वीर सावरकर ने अदालत में अपना 52 पृष्ठ का बयान प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया था कि गाँधी जी की हत्या के मामले में उन्हें जान-बूझकर फंसाया गया। यह ठीक है कि वे गाँधी जी के विचारों से कभी सहमत नहीं रहे ओर भविष्य में भी कभी सहमत नहीं होंगे, परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे हत्या जैसे जघन्य कर्म पर उतर आते। मोरार जी देसाई भी एक गवाह थे, जिनके कथन की सावरकर ने अपने वक्तव्य में बहुत खिल्ली उड़ाई।
10 फरवरी 1949 को हत्याकांड के विशेष न्यायाधीश जस्टिस आत्माचरण ने निर्णय दिया-‘‘सावरकर ने देश के लिए बहुत कुछ भुगता। इस बात की जाँच होनी चाहिए कि ऐसे महान नेता का नाम इस हत्याकांड में क्यों घसीटा गया?’’
सरकार को तो पहले ही अहसास था, अतः सावरकर के ससम्मान मुक्त हो जाने के बाद भी सरकार ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में कोई चुनौती नहीं दी और सावरकर ने भी देशहित को देखते हुए सरकार पर मानहानि का दावा नहीं किया।
10 फरवरी 1949 को वीर सावरकर ससम्मान मुक्त किये गये, नथूराम गोडसे और आपटे को फाँसी तथा अन्य अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। अभियुक्तों ने उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय ने डॉ0 परचुरे और शंकर किस्तैया को दोषमुक्त ठहराया व फाँसी की सजा प्राप्त दूसरे अभियुक्त आपटे की सजा में नरमी बरतने के लिए सरकार से अनुशंसा की क्योंकि उसने न तो हत्याभियुक्त के साथ गोली चलाई थी और न वह हत्या वाले दिन हत्यास्थल से पकड़ा गया था, पर सरकार ने स्वीकार नहीं की। 22 जून 1949 को उच्च न्यायालय ने विष्णु करकरे, मदन लाल पाहवा और गोपाल गोडसे (नथूराम के छोटे भाई) को आजीवन कारावास तथा नथूराम और नारायण आपटे को फाँसी का दण्ड सुनाया।
15 नवम्बर 1949 को अम्बाला सेंट्रल जेल में सुबह 8 बजे नथूराम गोडसे और आपटे ने अपने माता-पिता के चित्रों की पूजा, क्योंकि सरकार ने गोडसे को मरणासन्न वृद्ध माता-पिता के अंतिम दर्शन करने की अनुमति नहीं दी थी। इसके बाद वे दोनों हाथों में गीता और भगवाध्वज लेकर व अखण्ड भारत का मानचित्र छाती से लगाए ‘वन्दे मातरम्’ और ‘अखण्ड भारत अमर रहे’ के नारे लगाते हुए सहर्ष फाँसी चढ़ गये।
गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे और मदन लाल पाहवा 17 वर्ष का आजीवन कारावास बिताकर श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के समय 13 अक्तूबर 1964 को जेल से मुक्त हुए, पर नथूराम गोडसे का वह ऐतिहासिक अदालती बयान तब भी मुक्त नहीं हो पाया, जिसमें उसने कहा थाः-
‘‘यदि देशभक्ति पाप है तो मैं मानता हूँ कि मैंने पाप किया है। यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ। मुझे विश्वास है कि मनुष्यों द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर अगर कोई न्यायालय है, तो उसमें मेरे काम को अपराध नहीं समझा जावेगा। मैंने देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया।’’
प्रिय पाठकवृन्द! ‘दो महात्मा और उनके हत्यारे’ लेख के माध्यम से हमने इतिहास का अवलोकन किया। दो घटनाओं की पृष्ठभूमि और प्रतिक्रिया देखी। घटना तो पहले हो चुकी होती है। बाद वाले लोग तो अपने-अपने दृष्टिकोण से उन्हें देखते भर हैं। कौन सही है और कौन गलत, इसका निर्णय सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से करते हैं। जहाँ सामान्य व्यक्ति एक क्ष को सुनकर या पढ़कर ही किसी के विषय में अच्छी-बुरी धारणा बना लेता है, वहीं विचारशील व्यक्ति दोनों पक्षों पर चिन्तन कर निर्णय करता है। इसीलिए प्रबुद्ध पाठकों की सेवा में दोनों पक्ष रखने का प्रयास किया है, ताकि हम घटना के साथ कारण को भी देखें। क्योंकि कारण ही किसी घटना को लज्जा या सम्मान का विषय बनाते हैं। फिर भी दृष्टिकोण मुख्य है।
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राजेशार्य आट्टा
1166, कच्चा किलो
साढौरा (यमुनानगर)
सौजन्य से : शान्तिधर्मी पत्रिका
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