‘प्रोफेसर संदीप
देसाई का जवाब नहीं, कमाल करते हो प्रोफेसर साहब’, ये शब्द फिल्म अभिनेता
सलमान खान के हैं-और यह किसी फिल्म का डायलॉग नहीं है। सलमान के ये शब्द उस
व्यक्ति के लिए हैं जो मेरीन इंजीनियर, प्रोफेसर जैसी नौकरियों को लात
मारकर पिछले पंद्रह-सोलह साल से मुम्बई की लोकल गाड़ियों में ‘भीख’ मांग रहा
है। यह भीख यह प्रोफेसर अपने लिए नहीं मांग रहा है, उन बदनसीब बच्चों के
लिए मांग रहा है जिन्हें सारे सरकारी दावों के बावजूद ढंग की शिक्षा नहीं
मिल रही।
प्रोफेसर संदीप अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। पहले एक जहाजी कंपनी
में मेरीन इंजीनियर की नौकरी और फिर देश के प्रतिष्ठित एस.पी. जैन
इंस्टीच्यूट आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसरी। तभी उनका ध्यान अभागे बच्चों की
तरफ गया। उन्होंने अपने दो साथियों, सुधा मनोहर देसाई और नुकल इस्लाम, के
साथ मिलकर मुम्बई के एक उपनगर गोरेगांव में झोपड़पट्टी में जाकर इंगलिस
स्कूल खोला जहाँ बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाती थी। पढ़ाने वाले भी मुफ्त
पढ़ाने आते थे। स्कूल चल निकला। संदीप और उनके साथियों का उत्साह बढ़ा।
उन्होंने नौकरी छोड़ दी। यह 1997 की बात है।
उन्होंने संकल्प लिया कि वे महाराष्ट्र के पिछड़े इलाकों में बच्चों को पढ़ाने के लिए सौ स्कूल खोलेंगे। यह अपनी स्वर्गीय अध्यापिका मां को उनकी श्रद्धांजलि भी थी। उन्होंने दूसरा स्कूल 2005 में रत्नागिरि के एक गाँव में जाकर खोला। पर पैसे के अभाव में स्कूल की इमारत बनाने का काम रुक गया। तब संदीप ने ‘भीख’ मांगने का निर्णय लिया। इस काम के लिए श्लोक मिशनरीज नाम की एक संस्था उन्होंने बनायी थी। कुछ परिचितों के सहयोग से काम चल रहा था। पर संदीप देसाई ने अब अपरिचितों से जुड़ने का निश्चय किया। उनका संकल्प था, समाज के अभागे बच्चों की शिक्षा का बोझ समाज का आम आदमी उठायेगा। मुम्बई की लोकल गाड़ियों में सफल करने वालों तक पहुंचे संदीप।
‘विद्यादान सर्वश्रेष्ठ दान आहे.....’ मराठी के इस वाक्य के साथ शुरु होता है प्रोफेसर संदीप का एक मिनट का भाषण। पहले मराठी में, फिर हिन्दी में, फिर अंग्रेजी में। फिर दान पेटी हाथ में लेकर संदीप यात्रियों से भीख मांगते हैं। शुरू-शुरू में लोग-बाग कुछ सिक्के डिब्बे में डाल दिया करते थे। अब नोट भी डाले जाते हैं-दस से लेकर हजार तक के। शिक्षा-दान की इस मुहिम की शुरुआत में ही पहले पांच महीने में चार लाख रुपए एकत्र हो गए थे। हर शाम भीख में मिली राशि का एक-एक पैसा ‘श्लोक’ के बैंक अकाउंट में जमा हो जाता है। पिछले लगभग पन्द्रह साल से यह क्रम चल रहा है-भीख मांगकर बच्चों को पढ़ाने का क्रम।
रोज सुबह ग्यारह-बारह बजे प्रो. संदीप अपना दान-बक्सा लेकर निकल पड़ते हैं। शाम छह बजे तक गोरेगांव से चर्चगेट के चक्कर लगाते हैं लोकल गाड़ी में। अब तो लोग पहचानने लगे हैं उन्हें, बिना उनके मांगे भी जेब से पैसे निकालकर डिब्बे में डाल देते हैं। रोज औसत तीन हजार रुपए एकत्र हो जाते हैं। पैसे के साथ-साथ प्रो. संदीप वालंटियर भी मांगते हैं। वे भी उन्हें मिलते हैं, जो गरीब बच्चों को मुफ्त पढ़ाते हैं-सप्ताह में कम से कम तीन बार। प्रो. संदीप का कहना है,‘‘मैं लोगों में यह जागृति लाना चाहता हूँ कि यदि भारत को विकसित होना है तो झोपड़पट्टियों और ग्रामीण इलाकों के हर बच्चे को शिक्षित बनाना होगा-यह काम सरकार का ही नहीं, हमारा भी है।
अब तक कई पुरस्कार प्रो. संदीप की संस्था को मिल चुके हैं। उनके नाम ही नहीं, उनके चेहरे से भी मुम्बई के लोग परिचित हैं। अखबारों में उनकी कीर्ति-गाथा छपती है, टी.वी. पर इंटरव्यू होते हैं। प्रोफेसर और उनके साथियों को संतोष मिल रहा है और अभागे बच्चों को शिक्षा।
पर लोकल गाड़ी में उनका ‘भीख’ मांगना रेलवे पुलिस को रास नहीं आया। पिछले दिनों उन्हें भीख मांगने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया था। सुना है प्रोफेसर संदीप ने चुपचाप जुर्माना भर दिया था और उनका कहना है कि वे अपना काम करते रहेंगे। पुलिस का कहना है कि प्रोफेसर को रेलगाड़ी में भीख मांगने की अनुमति लेनी चाहिए थी। प्रोफेसर का कहना है कि उन्होंने बरसों पहले अनुमति मांगी थी, पर कोई उत्तर नहीं मिला तो वे अपना काम करते रहे। जब उनकी गिरफ्तारी की खबर अखबारों की सुर्खी बनी तो आम आदमी इस कार्रवाई से क्षुब्ध हो गया, क्या यही काम बचा है, रेलवे पुलिस के पास। पर ‘भिखारी’ अपने काम में लगा है। विद्या-दान को सर्वश्रेष्ठ दान मानने वाले प्रो. देसाई के सामने महामना मदन मोहन मालवीय का उदाहरण है। दुनिया जानती है कि मालवीय जी ने किस तरह दान ले-लेकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। तब गांधी जी ने एक बार कहा था,‘महामना मालवीय जी देश के सबसे बड़े भिखारी हैं। काश, मैं भी उन जैसा हो पाता!’
मालवीय जी और गांधी जी दोनों प्रोफेसर देसाई की ‘श्लोक’ संस्था के सहयोगियों की प्रेरणा हैं। देसाई गांधी जी का यह उद्धरण अक्सर दुहराते हैं कि ‘ताकत शारीरिक क्षमता से नहीं आती, अदम्य इच्छाशक्ति से आती है।’ और उनमें और उनके सहयोगियों में इच्छाशक्ति की कोई कमी नहीं है। देसाई गिरफ्तारी की बात नहीं करते, सुनकर हंस देते हैं। पर सवाल उठता है, जब सारा समाज किसी कार्य की प्रशंसा कर रहा है, तो हमारी पुलिस को वह काम गलत क्यों लगता है? रेलगाड़ी में भीख मांगने वालों से यात्रियों को परेशानी हो सकती है, होती भी है, पर क्या प्रोफेसर देसाई के ‘भीख’ मांगने से परेशान होने की कोई शिकायत पुलिस के पास आयी है? यदि नहीं तो पुलिस ने ऐसा करना जरूरी क्यों समझा? और यदि हाँ, तो क्या यह सवाल समाज में नहीं उठना चाहिए कि क्या हम इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि अपने ही शरीर के एक अंग की बीमारी हमें छूती नहीं?
हर बच्चे का शिक्षित होना विकसित होने की शर्त ही नहीं है, हमारे समाज के सभ्य होने का प्रमाण भी है। प्रोफेसर देसाई जैसे लोग इन शर्तों को पूरा करने में लगे हैं। ये लोग हथकड़ियों के नहीं, फूलमालाओं के अधिकारी हैं। कुछ अरसा पहले मुम्बई की एक संस्था ‘परहित सेवा संघ’ ने प्रो. देसाई की संस्था ‘श्लोक’ का अभिनंदन किया था। उस सभा में उपस्थित हजारों लोगों ने पिछड़े इलाकों में सौ स्कूल खोलने, मुफ्त शिक्षा देने के काम में सहयोगी बनने का आश्वासन दिया था। तब उस मंच से भी यही कहा गया था,‘कमाल करते हो प्रोफेसर साहब!’ सलमान खान ने अपने ट्वीट में श्लोक संस्था का बैंक अकाउंट नंबर भी दिया है ताकि उनके मित्र मालवीय की परंपरा के इस ‘भिखारी’ को आवश्यक सहायता भिजवा सकें। वह ‘भीख’ मांगकर देश को शिक्षित बनाने में लगा है।
जय हो।
विश्वनाथ सचदेवा
मासिक पत्रिका अंगिरापुत्र से साभार
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